Wednesday, June 20, 2018

प्रवृत्ति ??????

कल कोई कह रहे थे , ''मैं संसार की ओर ले जानेवाली प्रवृत्ति छोड़ चुका हूं, अब तो प्रवृत्ति सत्य की ओर है।

 

सब कहते है यही संसार से निवृत्ति है। अर्थात सत्य के प्रति प्रवृत्ति संसार के प्रति निवृत्ति है।''

यह बात दिखने में ठीक लगती है और समझ में भी आती है। बिलकुल बुद्धि और तर्क-युक्त है, *पर उतनी ही व्यर्थ भी है*।

ऐसे ही शब्दों के खेल में कितने ही लोग प्रवचन ओर सत्संग के फेर में पड़े रहते हैं। बुद्धि और तर्क- आत्मिक जीवन के संबंध में कहीं भी ले जाते मालूम नहीं होते हैं। मैं  उनसे कहता हूं, ''आप शब्दों में उलझ गये हैं। 'संसार की ओर प्रवृत्ति' का कोई अर्थ नहीं है। *असल में प्रवृत्ति ही संसार है*। वह किस ओर है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। बस, उसका होना ही संसार है। वह धन की ओर हो तो, वह धर्म की ओर हो तो- उसका स्वरूप एक ही है।''

प्रवृत्ति मनुष्य को अपने से बाहर ले जाती है। वह वासना है,  वह तृष्णा और दौड़ है। जब तक प्रवृति है तब तक वह 'जो है', उसका होना नहीं हो पाता है। इस 'है' का उद्घाटन ही सत्य है।

सत्य कोई वस्तु नहीं है, जिसे पाना है। वह वासना का कोई विषय नहीं है। इससे उसकी ओर प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। वह तो तब है, जब कोई प्रवृत्ति नहीं होती। तब जो होता है, उसका नाम सत्य है। इससे सत्य को पाना नहीं है, असल में पाना ओर छोड़ना से परे सत्य है ।

http://satsangwithparveen.blogspot.in/?m=1

No comments:

Post a Comment