Wednesday, July 29, 2015




यथाऽदर्शे तथाऽत्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके।
यथाप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके छायातपोरिव ब्रह्मलोके ।।५।।
इस मनुष्य देह में आत्मज्ञान इतना स्पष्ट होता है जैसे आप अपने को दर्पण में देखते हो। पितृलोक में यह ज्ञान वैसे ही होता है जैसे आप अपने को स्वप्न में अनुभव करते हो। गन्धर्वलोक में कैसा आत्मज्ञान होता है? सुन्दर दृष्टान्त है। जैसे जल में आप अपनी परिछाहीं देखते हो। स्थिर हुआ जल तो बन गई बात और जहाँ चंचल हुआ जल, सारी चीज बिखर गई। ब्रह्मलोक में आत्मज्ञान छाया की तरह होता है। आप धूप में खडे हैं और आप की ही छाया पड रही है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य लोक में जो बोध होता है वह निर्मलतम है..

मनुष्य देह रूपी अनमोल धन हमे प्राप्त हुआ है इसके दुारा ही परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है इसलिय आत्मजाग्रती के मार्ग पर चलकर अती शिघ्र अपना जीवन सफल बनाना चाहिय..

प्रणाम जी

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