Saturday, August 15, 2015

कभी मन को ऐसे विचार भी दें...

सुप्रभात जी
कभी मन को ऐसे विचार भी दें...

जिस पद में विश्राम पाने से फिर शोक न हो और जिसके पाने से फिर बन्धन न रहे ऐसा पद मुझको कब प्राप्त होगा?
कब मैं मन के मनन भाव को त्यागकर विश्रान्तिमान् हूँगा-जैसे मेघ भ्रमने को त्यागकर पहाड़ के शिखर में विश्रान्ति करता है-और कब चित्त की दृश्यरूप वासना मिटेगी जैसे तरंग से रहित समुद्र शान्तमान् होता है तैसे ही कब मैं मन के संकल्प विकल्प से रहित शान्तिमान् हूँगा?

तृष्णारूपी नदी को बोधरूपी बेड़ी और संत् संग और सत्‌शास्त्ररूपी मल्लाह से कब तरूँगा, चित्तरूपी हाथी जो अभिमानरूपी हाथी जो अभिमानरूपी मद से उन्मत्त है उसको विवेकरूपी अंकुश से कब मारूँगा और ज्ञानरूपी सूर्य से अज्ञानरूपी अन्धकार कब नष्ट करूँगा?

हे देव! सब आरम्भों को त्यागकर मैं अलेप और अकर्ता कब होऊँगा? जैसे जल में कमल अलेप रहता है तैसे ही मुझको कर्म कब स्पर्श न करेंगे?

मेरा परमार्थरूपी भास्वर वपु कब उदय होगा जिससे मैं जगत् की गति को देखकर हँसूँगा हृदय में सन्तोष पाऊँगा और पूर्णबोध विराट् आत्मा की नाईं होऊँगा?

वह समय कब होगा कि मुझ जन्मों के अन्धे को ज्ञानरूपी नेत्र प्राप्त होगा, जिससे मैं परमबोध पद को देखूँगा?

वह समय कब होगा जब मेरा चित्तरूपी मेघ वासना रूपी वायु से रहित आत्मरूपी सुमेरु पर्वत में स्थित होकर शान्तमान् होगा?

अज्ञान दशा कब जावेगी और ज्ञानदशा कब प्राप्त होगी? अब वह समय कब होगा कि मन और काया और प्रकृति को देख कर हँसूँगा?

वह समय कब होगा जब जगत् के कर्मों को बालक की चेष्टावत् मिथ्या जानूँगा और जगत् मुझको सुषुप्ति की नाईं हो जावेगा । वह समय कब होगा जब मुझको पत्थर की शिलावत् निर्विकल्प समाधि लगेगी और शरीर रूपी वृक्ष में पक्षी आलय करेंगे और निस्संग होकर छाती पर आन बैठेंगे?

हे देव! वह समय कब होगा जब इष्ट अनिष्ट विषय की प्राप्ति से मेरे चित्त की वृत्ति चलायमान न होगी और विराट की नाईं सर्वात्मा होऊँगा?

वह समय कब होवेगा जब मेरा सम असम आकार शान्त हो जावेगा और सब अर्थों से निरिच्छितरूप मैं हो जाऊँगा? कब मैं उपशम को प्राप्त होऊँगा-जैसे मन्दराचल से रहित क्षीरसमुद्र शान्तिमान् होता है-और कब मैं अपना चेतन वपु पाकर शरीर को अशरीरवत् देखूँगा?

कब मेरी पूर्ण चिन्मात्र वृत्ति होगी और कब मेरे भीतर बाहर की सब कलना शान्त हो जावेंगी और सम्पूर्ण चिन्मात्र ही का मुझे भान होगा? मैं ग्रहण त्याग से रहित कब संतोष पाऊँगा और अपने स्वप्रकाश में स्थित होकर संसाररूपी नदी के जरामरणरूपी तरंगों से कब रहित होऊँगा और अपने स्वभाव में कब स्थित होऊँगा?
ऐसे विचार से मानसिक परवाह अवश्य दिशा परिवर्तित होगा...
Satsangwithparveen.blogspot.com

प्रणाम जी

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