Wednesday, August 5, 2015

सत्संग क्या है

जन्मो से हमे एक भयानक रोग हो गया है की हम सच को झूट और झूट को सच मानने लगे है इस कारण हम सत्संग का मतलब भी झूट का संग समझने  लगे है इसलिए सत्संग के नाम पे झूट का ही संग करते है सत्संग की व्याख्या से पहले  हमें  ये जानना जरूरी है की सच क्या है और झूट क्या है पहले जान  लें की झूट क्या है हमारा ये पञ्च भोतिक शरीर या पञ्च तत्त्व से बनी कोई भी चीज़  अन्दर मन चित बुद्धी और अहंकार ये सब झूट है फिर सच क्या है एक मात्र परमात्मा और उसके अंशी आत्मा ही सत्ये है
अब इसी थ्योरी से सच झूट को समजना होगा ..हमे यानि हमारे जीव को इस संसार में आये  अनंत जन्म बीत चुके है इस कारण ये जीव पञ्च भोतिक तत्वों को ही सच मान बैठा है जरा सोचिये मंदिर में रखी मूर्ति क्या पञ्च भोतिक नही है तो क्या वो सच है? और  ऊपर से है हम उन झूटी मूर्तियों की भी फोटो लेके कहते है की आज के दर्शन मतलब झूटी मूर्ति की भी झूटी तस्वीर के साथ हम सत्संग करते है क्या ये सत्संग है फिर झूटे शरीरो में आस्था रखते है चेतनता से हमारा कोई नाता नही रह गया है तो सत्ये क्या है ..?? सत्ये केवल परमात्मा का विषये है सत्ये का ध्यान सत्ये है सत्ये का ज्ञान सत्ये है सत्ये की बात सत्ये है सत्ये का बोध सत्ये है
इस सत्येता में उतर के देखिये आप अपने आप असत्य से दूर हो जायेंगे सावधान रहें झूट कब सत्ये में मिलके हमे भरमित कर देती है हमे पता भी नही चलता सत्ये का कोई नाम नही है इसलिए नाम को सत्ये मत मानो बल्कि केवल सत्ये को स्वीकार करो चाहे कोई भी नाम से हो सत्ये का कोई नाम नही होता क्योंकि हम तीन गुणों के संसार में रहते है इसलिए हम सत्ये को भी गुणों के आधार  पर देखते है इसलिए उसका गुणों के अनुरूप नाम या संबोधन करते है जो कालांतर के साथ नाम बन जाता है जिस से भरम और असत्य का जन्म हओता है
इसलिए सत्ये को समझ कर केवल  सत्संग करें ...मेरी बात से अगर किसी भी तरह से आपके अहंकार को ठेस पोहोचती है तो मै आपसे चरण वंदन क्षमा मंगतता हूँ .
सत सुपने में क्यों कर आये सत साईं है न्यारा {वाणी कि. ३२/२  }
प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मै जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है (यजुर्वेद ३१/१८) 
उपनिषद में स्पष्ट रूप कहा गया है कि अमृतस्वरूप दिव्य ब्रह्मपुर में परब्रह्म स्थित है ( मुण्डकोपनिषद् २/२/७ ) ।वेद का कथन है कि उस अनादि अक्षरातीत परब्रह्म के समान न तो कोई है , न हुआ है और न कभी होगा । इसलिए उस परब्रह्म के सिवाय अन्य किसी को भी परमात्मा नही कहा जा सकता  (ऋग्वेद ७/३२/२३) ।
तिन कबीले में रहना , पूजे  पानी  आग पत्थर।
बेसहूर  इन   भांत   के , जान  बूझ  जले  काफर।। (प्राणनाथ वाणी)
satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी 

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