Thursday, October 1, 2015

बातूनी भेद


ए जो अरवाहें अरस की, पडी रहें तले कदम।
खान पान इनों इतहीं, रूहें रहें तले हुकम।।

ये जो आनंद की अंश आत्माएँ हैं जो जानती हैं की आनंद कहीं बाहर नही है वो अपने हृदये में ही आनंद रूपी चेतन ब्रह्म को पा लेतीं हैं इन्ही को परमधाम की आत्माएँ कहा जाता है , ये अपने हृदये में ही परमात्मा का चिंतन व अनुभव निरंतर करती रहती है इसी को परमात्मा के चरणो में पड़ा रहना कहा गया है अन्यथा चरणों में पड़े रहने का  भाव दूेत भाव है क्योंकि चरणो में बड़ो के छोटे पड़ते है और जहां बड़े छोटे का भाव हो वह परमात्मा का शुद्ध प्रेम नही हो सकता क्योंकि प्रेम का भाव ही अदूेत से प्रारम्भ होता है जहाँ दूेत हो वो प्रेम नही आक्रषण होता है प्रेम में मैं और तू का भाव नही रहता जब निरंतर चिंतन से भावप्रवाह उसी तरफ हो जाता है तो मैं तू हो जाता है जब प्रेम जागृत होता है इसलिए इसमें चरणो में पड़े रहने का भाव मात्र समझाने के लिए बताया गया है , "खान पान इन्हो इत ही " का भाव भी बोहोत गहरा होकर गुरता है खान पान इनों इतहीं,
खान पान से भाव आहार से है..यहाँ आहार का भाव समझना आवशयक है कोई भी वस्तु अपनी सम जाती आहार  से तृप्त होती है जैसे हमारा शरीर पृथ्वी तत्व से बना है तो इसकी तृप्ति भी पृथ्वी तत्त्व आहार से होती है जैसे फल दूध रोटी आदि सब पृथ्वी तत्व से बने है इसी प्रकार हम यानि आत्माएँ आनंद रूपी ब्रह्म की अंशी हैं आनंद ही ब्रह्म है वही हमारे सजातीय हैं इसलिए आत्मावों का आहार अर्थात जिस से उन्हें तृप्ति होती है वो केवल ब्रह्म ही है आत्मावों का इसके अलावा कोई आहार नही है इस आनंद से आनंद की तृप्ति को ही आत्मावों का खान पान कहा गया है , और जब रूहें आनंद रूपी ब्रह्म से एक रूप हो जाती है तो उनमे और ब्रह्म में कोई फर्क या अंतर नही रह जाता उनके हृदये में परमात्मा उनसे एक रूप हो जाते है ऐसी स्थिति में परमात्मा का प्रवाह आत्मा में व आत्मा का परमात्मा में हो जाता है ऐसी स्थिति में जो परमात्मा चाहते है वही आत्माएँ करतीं हैं व जो आत्माएँ करती है वही परमात्मा चाहते है (करता जीव है जो आतम भाव मे आजाता है) इसे ही हुकुम से चलना कहा गया है..

(साथजी वाणी की एक एक चौपाई अन्नत बातुनी रहस्य लिय हुय है जो केवल बृह्मआतमांये ही जान्ती हैं और अन्नत की व्याख्या असंभव है )
इसलिय काहा गया है "ऐ सतवाणी मथके लेऊं जो इसको सार"....

प्रणाम जी

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