रेहे ना सकों मैं रूहों बिना, रूहें रेहे ना सकें मुझ बिन।
जब पेहेचान होवे वाको, तब सहें ना बिछोहा खिन।|
परमात्मा आत्माओं के बिना नही रह सकते भाव बहोत गहन है जैसे प्रकाश में हमारा बिम्ब याने परछाई बन जाती है याने वो हम से ही है वैसे ही परमधाम में आनंद से( परमात्मा से)आनंद प्रकाशित होता रहता है उसी आनंद के अंश हम आतमायें हैं और आतमाओं को निरंतर आनंद देना परमातमा का स्वभाव है आतमायें आनंद अंश होने के कारण परमात्मा सदेव उनमें आनंद रूप मे विराजमान रहते हैं जैसे सूर्य अपनी किरणों से प्रकाशित होता है वेसे ही बृह्म आनंद रूप मे प्रकाशित होते हैं ये प्रकाशित भाव ही आत्मायें हैं आनंद का प्रकाश आनंद ही है जो की आत्मायें है जैसै सूर्य का प्रकाशित होना उनकी किरणें है वेसे ही ब्रह्म का प्रकाशित होना आत्मायें हैं सूर्य बिना प्रकाशित हुय नही रह सकता अर्थात बिना किरणो के नही रह सकता वैसे ही परमात्मा आत्माओं के बिना नही रह लकते बस फर्क ये है की सूर्य की किरणें शुद्ध चेतन नहीं है पर परमातमा की कीरणें यानें आत्मायें शुद्ध चेतन हैं ..इसी प्रकार दूसरे भाव में आतमायें भी परमात्मा के बिना नहीं रह सकती ये तो बहोत सीधे से समझा जा सकता है जैसे समूदंर के बिना लहरें नही है वैसे ही परमात्मा के बिना आत्मायें नही रह सकती या ये कहें की उनके बिना आत्मायें अपनी कल्पना भी नही कर सकती , जब आतमाओं को अपनी पहचान हो जायेगी तब स्वतः ही उसे परमातमा का बोध हो जायगा और वो अपने अंशी के बिना एक पल भी नही रह सकेगी अर्थात वो परमात्मा को अपने में ही पराप्त कर लेगी कयोंकी परमातमा उसके साथ ही हैं वो कह तो रहे हैं की "रेहे ना सकों मैं रूहों बिना"
बिछोडा सह ना सके का भाव यही है की परमात्मा साथ हैं का भाव आते ही या बोध होते ही बिछोडा कैसा ...?? फिर तो अधखिन पियु नयारा नही माहे रहे हिल मिल..
प्रणाम जी
जब पेहेचान होवे वाको, तब सहें ना बिछोहा खिन।|
परमात्मा आत्माओं के बिना नही रह सकते भाव बहोत गहन है जैसे प्रकाश में हमारा बिम्ब याने परछाई बन जाती है याने वो हम से ही है वैसे ही परमधाम में आनंद से( परमात्मा से)आनंद प्रकाशित होता रहता है उसी आनंद के अंश हम आतमायें हैं और आतमाओं को निरंतर आनंद देना परमातमा का स्वभाव है आतमायें आनंद अंश होने के कारण परमात्मा सदेव उनमें आनंद रूप मे विराजमान रहते हैं जैसे सूर्य अपनी किरणों से प्रकाशित होता है वेसे ही बृह्म आनंद रूप मे प्रकाशित होते हैं ये प्रकाशित भाव ही आत्मायें हैं आनंद का प्रकाश आनंद ही है जो की आत्मायें है जैसै सूर्य का प्रकाशित होना उनकी किरणें है वेसे ही ब्रह्म का प्रकाशित होना आत्मायें हैं सूर्य बिना प्रकाशित हुय नही रह सकता अर्थात बिना किरणो के नही रह सकता वैसे ही परमात्मा आत्माओं के बिना नही रह लकते बस फर्क ये है की सूर्य की किरणें शुद्ध चेतन नहीं है पर परमातमा की कीरणें यानें आत्मायें शुद्ध चेतन हैं ..इसी प्रकार दूसरे भाव में आतमायें भी परमात्मा के बिना नहीं रह सकती ये तो बहोत सीधे से समझा जा सकता है जैसे समूदंर के बिना लहरें नही है वैसे ही परमात्मा के बिना आत्मायें नही रह सकती या ये कहें की उनके बिना आत्मायें अपनी कल्पना भी नही कर सकती , जब आतमाओं को अपनी पहचान हो जायेगी तब स्वतः ही उसे परमातमा का बोध हो जायगा और वो अपने अंशी के बिना एक पल भी नही रह सकेगी अर्थात वो परमात्मा को अपने में ही पराप्त कर लेगी कयोंकी परमातमा उसके साथ ही हैं वो कह तो रहे हैं की "रेहे ना सकों मैं रूहों बिना"
बिछोडा सह ना सके का भाव यही है की परमात्मा साथ हैं का भाव आते ही या बोध होते ही बिछोडा कैसा ...?? फिर तो अधखिन पियु नयारा नही माहे रहे हिल मिल..
प्रणाम जी
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