Thursday, October 29, 2015

विरह...

 सुप्रभात जी

इस मनोहर ऋतु में कोयल प्रसन्न मन से कूक रही है तथा तोते आनन्द विभोर होकर तरह-तरह की क्रीड़ायें कर रहे हैं, किन्तु मैं ही ऐसी मन्दभाग्या आत्मा हूँ, जो आपके बिना अकेली ही अपना समय काट रही हूँ तथा रो-रोकर अपनी आँखों को लाल कर रही हूँ।
कोयल की उमंगभरी मधुर कूक तथा तोते की चपल क्रीड़ाओं को देखकर आत्मा (विरहिणी) का विरह और अधिक बढ़ जाता है। वह अपने भाग्य को कोसते हुए यही कहती है कि काश ! मेरा प्रिय (परमात्मा) यदि मेरे पास होता, तो मैं भी इसी तरह आनन्द मग्न होती। किन्तु, इस समय तो विरह में आँसू बहाने के अतिरिक्त मेरे पास और कोई काम ही नहीं है।

प्रणाम जी

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