Monday, November 16, 2015

अनन्यता...

अनन्यता ..

"त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्चसखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणम् त्वमेव,
त्वमेव सर्वम् मम देव देव॥"
तुम मेरे पति हो, तुम मेरी पत्नी हो, तुम मेरे गुरु हो, तुम मेरे शिष्य हो, तुम मेरे पिता हो, तुम मेरी माता हो, तुम मेरी कान्ता हो, तुम मेरे दुश्मन हो, तुम मेरे मित्र हो, मेरे जो कुछ हो-तुम हो।

अगर तुम कहो यह तुम्हारा शत्रू नहीं हो सकता तो शत्रु के लिए दूसरे का हाथ पकडोगे? एक गोपी उपर से कूड़ा फेंक रही थी। तो कूड़ा फेंकते हुए उसने आँख मींचते हुए कहा-'
'कृष्णार्पणमस्तु।'
वहाँ से जा रहे थे एक महात्मा। महात्मा ने पूछा- 'मैया,चन्दन(चढ़ाती) हो ? आरती उतारती हो ? फूल (चढ़ाती) हो? जय-जयकार शंख बजाती हो ? हमने सब भक्तों को सुना, लेकिन तू तो कूड़ा चढ़ा रही है।
'उस गोपी ने नीचे आकर महात्मा का हाथ पकड़ लिया। वह गोपी थी बड़ी तेज। उसने कहा-'मेरा धर्म बिगाड़ता है ?'
'क्यों ?'
'प्राण उसे दिया, मन उसे दिया, जीवन उसे दिया तो कूड़ा देने के लिए किसी और का हाथ (पकड़ूँ)?
'यह अनन्यता है।......'

प्रणाम जी

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