Thursday, January 21, 2016

बुलबुले सा है प्रवीण

ना तो मैं हिन्दू हूं ना में हूं मुसलमान |
पांच त्तव का पिंड ये मेरा आखर जाय समशान ||
गरभ में हम नहीं थे भाई  हमने फिर भी बचपन देखा है , जन्म मरण की है ये गाडी जिसपे करमोंका लेखा है ||
मटका मिट्टि का भरके बोलें इसको तुम पानीसे भरदो , मिट्टि देख के हम यूं बोले येजडतत्व तो बाहर करदो ||
छिलके पर सब लडके मर रहे , फल तो कोई खाता नही है „ अन्दर का फल अती ही मीठा पर फलतक कोइ जाता नही है ||
बुलबुले सा है प्रवीण , कबतक तू टिकपायगा |
कब भरेगा येमन तेरा , कब अपनेघर जायगा ||

प्रणाम जी

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