Thursday, March 24, 2016

ना कछू चोर न कोई साधू, कई डिंभके धरे ध्यान।
तान मान सब विद्या व्याकरण, बहुरंगी बहु ग्यान।।

वास्तव में न तो कोई चोर होता है और न कोई साधु। यह सब त्रिगुणात्मक माया के प्रभाव से ही होता है। प्रकृती सदा प्रिवर्तनशील है |इसमें हुय प्रिवर्तन को ही सत्व, रज और तम आदी गुणों के माध्यम से जीव को असत में सत्य का भ्रम होता है व इसी में त्रिगुणात्मक रस ग्रहण कर अच्छे बुरे की कल्पना करके अपनी माया का निर्धारण सवंय करता है व उसी में उलझा रहता है | अपने निर्धारण के अनुसार ही आत्मा परमात्मा व गूरू की असत व त्रिगुणात्मक व्याख्या बना लेता है  ... इसलिय इस आडम्बर में फंसे हुए कई लोग ध्यान का नाटक करते हैं। संगीत की कलाओं, व्याकरण आदि सभी प्रकार की विद्याओं तथा ज्ञान की अनेक प्रकार की शाखाओं (विद्याओं) पर भी त्रिगुणात्मक प्रिवर्तनशील माया ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है।
इसलिय  अदूैत से रहित शुष्क ज्ञान और भौतिकवादी संगीत जीवन में शाश्वत आनन्द की प्राप्ति नहीं करा सकते हैं। सत्व, रज और तम से मुक्त हुए बिना परम तत्व की प्राप्ति सम्भव ही नहीं है....

प्रणाम जी

No comments:

Post a Comment