सौ माला वाओ गले में , द्वादस करो दस बेर ।
जोलों प्रेम न उपजे पिउ सों , तोलों मन न छोड़े फेर ।। ( श्री मुख वाणी- कि. १४/५ )
अपने गले में एक दो नहीं , बल्कि सौ मालायें डाल लो , केवल एक जगह ही नहीं , बल्कि १२ अंगों में १० बार तिलक लगा लो , चाहे तुम इतने सिद्ध बन जाओ कि योग द्वारा भविष्य की सारी बातें जानने लगो , दूसरों के मन की बात भी जान जाओ , चौदह लोकों का सारा दृश्य भी देखने लगो तथा मरे व्यक्तियों को जीवित करने लगो , लेकिन जब तक परमात्मा से प्रेम नहीं होता , तब तक यह मन माया में फँसना नहीं छोड़ेगा ...
भाव- आत्मा और परमात्मा के एकरूपता का भाव जीसमें परमात्मा से एक क्षण के लिय भी भिन्नता संभव न हो और हमेशा इसी के वास्तविक बौध में रहना प्रेम है..और ये है कया ?
थोडा समझने का प्रयास करते है कि आत्मा और परमात्मा की एक रूपता है क्या...थोडा ध्यान पूर्वक ग्रहण करें..
परमात्मा पुर्ण आनंद,शुद्ध प्रेम,चेतनता व अन्नतता का शुद्ध स्वरूप है उन्ही के हृदय का अंश सब आत्माऐं हैं ,परमात्मा के पुर्ण आनंद,शुद्ध प्रेम,चेतनता व अन्नतता का शुद्ध स्वरूप का अन्नत विस्तार का अन्नत आनंद को ग्रहण करने के लिय लीला रूप को परमधाम कहते हैं ,यही आनंद की लिला रूप परमधाम सब आतमाऔं का शुद्ध हृदय है और सभी आत्माऔं में यही हृदय है इसलिय इनमें अदूैत भाव है अर्थात परमधाम व हृदय एक ही है इसलिय जो भी शुद्ध आनंद के लीला रूप परमधाम में आनंद लीला होती है चाहे वो एक पत्ता भी हिले वो सब आतमाऔं के हृदय में होता है और ये शुद्ध लिला रूपी धाम परमात्मा से ही है इसलिय यह परमातमा का निवास भी है इसलिय सब आत्माऔ का हृदय परमात्मा का धाम है ...अब जरा सोचिय आत्मा और परमात्मा में भिन्नता असंभव है या नही जब यही बोध आत्मा को सत्य रूप में हो जाता है तो यही आत्मा का प्रेम है...
पूर्ण ब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए हमें शरीर, मन, बुद्धि आदि के धरातल पर होने वाली उपासना पद्धतियों को छोड़कर तारतम ग्यान के आधार पर उस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ेगा, जो नवधा आदि सभी प्रकार की उपासना पद्धतियों से भिन्न है। जीव को अखण्ड मुक्ति की प्राप्ति भी इसी अनन्य प्रेम के बौध द्वारा होती है ।
अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति का रसमयी मार्ग दूारा यह अथाह भवसागर गाय के बछड़े के खुर से बने हुए गड्ढे की तरह छोटा हो जाता है । तब उन्होंने हम इसे बड़ी सरलता से पार कर लेते हैं.. ।
Sataangwithparveen.blogspot.com
Www.facebook.com/kevalshudhsatye
प्रणाम जी
जोलों प्रेम न उपजे पिउ सों , तोलों मन न छोड़े फेर ।। ( श्री मुख वाणी- कि. १४/५ )
अपने गले में एक दो नहीं , बल्कि सौ मालायें डाल लो , केवल एक जगह ही नहीं , बल्कि १२ अंगों में १० बार तिलक लगा लो , चाहे तुम इतने सिद्ध बन जाओ कि योग द्वारा भविष्य की सारी बातें जानने लगो , दूसरों के मन की बात भी जान जाओ , चौदह लोकों का सारा दृश्य भी देखने लगो तथा मरे व्यक्तियों को जीवित करने लगो , लेकिन जब तक परमात्मा से प्रेम नहीं होता , तब तक यह मन माया में फँसना नहीं छोड़ेगा ...
भाव- आत्मा और परमात्मा के एकरूपता का भाव जीसमें परमात्मा से एक क्षण के लिय भी भिन्नता संभव न हो और हमेशा इसी के वास्तविक बौध में रहना प्रेम है..और ये है कया ?
थोडा समझने का प्रयास करते है कि आत्मा और परमात्मा की एक रूपता है क्या...थोडा ध्यान पूर्वक ग्रहण करें..
परमात्मा पुर्ण आनंद,शुद्ध प्रेम,चेतनता व अन्नतता का शुद्ध स्वरूप है उन्ही के हृदय का अंश सब आत्माऐं हैं ,परमात्मा के पुर्ण आनंद,शुद्ध प्रेम,चेतनता व अन्नतता का शुद्ध स्वरूप का अन्नत विस्तार का अन्नत आनंद को ग्रहण करने के लिय लीला रूप को परमधाम कहते हैं ,यही आनंद की लिला रूप परमधाम सब आतमाऔं का शुद्ध हृदय है और सभी आत्माऔं में यही हृदय है इसलिय इनमें अदूैत भाव है अर्थात परमधाम व हृदय एक ही है इसलिय जो भी शुद्ध आनंद के लीला रूप परमधाम में आनंद लीला होती है चाहे वो एक पत्ता भी हिले वो सब आतमाऔं के हृदय में होता है और ये शुद्ध लिला रूपी धाम परमात्मा से ही है इसलिय यह परमातमा का निवास भी है इसलिय सब आत्माऔ का हृदय परमात्मा का धाम है ...अब जरा सोचिय आत्मा और परमात्मा में भिन्नता असंभव है या नही जब यही बोध आत्मा को सत्य रूप में हो जाता है तो यही आत्मा का प्रेम है...
पूर्ण ब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए हमें शरीर, मन, बुद्धि आदि के धरातल पर होने वाली उपासना पद्धतियों को छोड़कर तारतम ग्यान के आधार पर उस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ेगा, जो नवधा आदि सभी प्रकार की उपासना पद्धतियों से भिन्न है। जीव को अखण्ड मुक्ति की प्राप्ति भी इसी अनन्य प्रेम के बौध द्वारा होती है ।
अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति का रसमयी मार्ग दूारा यह अथाह भवसागर गाय के बछड़े के खुर से बने हुए गड्ढे की तरह छोटा हो जाता है । तब उन्होंने हम इसे बड़ी सरलता से पार कर लेते हैं.. ।
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