Monday, June 20, 2016



आनन्द का अपार सागर ही परमात्मा है। कोई इसे गोड़ कहता है, तो कोई खुदा कहता हैै तो कोई उसे महाशक्ति कहता है। कोई इसी को कर्त्तापुरख कहता है तो कोई सुप्रीम पावर कहता है। नाम चाहे जो भी हो किन्तु ब्रह्म एक ही है — आनन्द का सागर! अनन्त आनन्द का महासमुद्र!

परमात्मा आनंद से ओत-प्रोत है। परमात्मा आनंद का अथाह सागर है। अनन्त आनंद ही परमात्मा है। वेदान्त में परमात्मा की यही परिभाषा दी गई  है।
परमात्मा में केवल आनंद होता है — इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। जो परमात्मा में डूबता है, वह भी आनंद से सरोबार हो जाता है। आनंद में डूब जाने का ज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है।

ब्रह्मज्ञान केवल अपने ही अन्दर से हो सकता है, किसी और उपाय से नहीं। इसीलिये तो इसे आत्मज्ञान कहा जाता है। ब्रह्मज्ञान कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका लड्डू बनाकर किसी दूसरे के मुँह में ड़ाला जा सके। जो सच्चा ब्रह्मज्ञानी है, वह जानता है कि ब्रह्मज्ञान तो अपने पुत्र को भी नहीं दिया जा सकता, दूसरों को देने की बात तो दूर रही।
लेकिन फिर भी हमारे बहुत सारे महात्मा “ब्रह्मज्ञान” को प्रसाद की तरह बाँटने में लगे हुए हैं, और बहुत सारे लोग उसे बटोर कर ले जाने में लगे हुए हैं।

जो कोई मनुष्य आनन्द-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा को जान लेता है, वह भी आनन्द-स्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाता है। अध्यात्मिक होने का अर्थ साधु-महात्मा हो जाने से नहीं है। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा के साथ एकात्मकता बनाकर जीना सीख लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — इस अस्तित्त्व के साथ सहयोग का सम्बन्ध बना लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा को अपने जीवन में घोल लेना।
अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — आनंद की अनुभूति को बनाये रखना। अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — ब्रह्म में स्थित हो जाना।
एक अध्यात्मिक व्यक्ति जानता है कि परम आनंद कहीं आसमान से नहीं टपकता। वह जानता है कि आनन्द कहीं बाहर से नहीं आता। अतः अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है बृह्म के साथ एकत्व हो जाना जीसमें दूैत भाव संभंव ही न हो उस आनंद के साथ मिलकर आनंद होजाओ फिर अलगाव हो ही नही सकेगा कयोंकी जैसे पानी में से पानी को नही निकाल सकते वैसे ही आनंद से आनंद कैसे अलग होगा...
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी

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