विष्णु का अर्थ..
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प्रकृति के कोइ एक हि पदार्थ के जितने गुणवाचक नाम हो, उन सभी नाम के एक-एक स्वतन्त्र देव के रूप में विकसित हुए दिखते है । जैसे कि – आकाश स्थित सूर्य को आदित्य = पृथिवी के रसों का ग्रहण करनेवाला, पूषन् = पोषण करनेवाला, विष्णु= किरणोंको समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त करनेवाला, सवितृ= सभी जीवो का प्रसव करानेवाला । ये सभी स्वतन्त्र देव के सूक्त है । जिसमें विष्णु, जो सूर्य का ही व्यापनशील गुणवाले होने के कारण एक स्वतन्त्र देव के रूपमें स्तुत्य बने है ।
विष्णु शब्द विश् (प्रवेश-धात्) से व्युत्पन्न है । सूर्य ही अपने किरणों से तीनों लोक में एक साथ प्रवेश कर देता है (अर्थात ब्रह्म सभी जीवो पर समान कृपा करता है सब जिवो को समान पोषित करता है कयोंकी सूर्य अत्यनत तेजवान व सभी जीव जन्तु व वनस्पति आदि को पोषित करता है इसी कारण ब्रह्म को सूर्य कि संघ्या से संबोधित किया गया है )
यास्कने निरुक्त में कहा है
‘‘यद् विषितो भवति तद् विष्णुर्भवति । विष्णुर्विशते र्वा व्यश्नोतेर्वा, तस्य एषा भवति ।‘‘
इसकी टीका में दुर्ग लिखते है –
‘‘यदा रश्मिभिरतिशयेनायं व्याप्तो भवति, व्याप्नोति वा रश्मिभिरयं सर्वम्, तदा विष्णुरादित्यो भवति । [3]
‘‘अर्थात् जब सूर्य रूपी बृह्म अपने किरणों से अतिशय रूपसे सभी जगह फैल जाता है अथवा जो (अपने) किरणों से सभी व्याप लेता है, इस कारण आदित्य को विष्णु कहा जाता है ...यह बृह्म के सत्ता रूप का द्योतक है आनंद बृह्म न्यारा है...
निर्गुण राम निरंजन राया, जिन वह सकल श्रृष्टि उपजाया ।
निगुण सगुन दोउ से न्यारा, कहैं कबीर सो राम हमारा ॥
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प्रणाम जी
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