Monday, October 31, 2016

*वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं*

१. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य।
इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य।
इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही अपर वैराग्य है।

*सिद्ध वैराग्य यापर वैराग्य क्या है?*

तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्॥ १/१६॥
(योगदर्शन)
शब्दार्थ- पुरुषख्यातेः= पुरुष के ज्ञान से;गुणवैतृष्ण्यम्= जो प्रकृति के गुणों में तृष्णा का अभाव हो जाना है; तत्= वह;परम्= पर वैराग्य है।
अर्थात् यह पर वैराग्य निराकांक्षा की अन्तिम अवस्था है- मान्यता के पुरुष के परम शुद्ध निर्विकार पुरुष के अन्तरतम स्वभाव को जानने के कारण समस्त इच्छाओं का विलीन हो जाना। (यहां दो पूरूषो का जिक्र है इनके विषय में जान्ना परम आव्यशक है ..श्वेताश्वतर उपनिषदमें भी यह बात स्पष्ट की है ।
द्वा सुपर्णा सयुजौ सखायौ, समाने वृक्षे परिषस्वजाते ।
तयोरेकं पिप्पलं स्वादुमत्तिः अनश्ननन्यो अभिचाकषीति ।।

अर्थात् एक वृक्षमें दो पक्षी सखाभावसे रहते हैं । उनमेंसे एक उस वृक्षके फलका आस्वादन करता है तो दूसरा मात्र देखता रहता ) *इसकी पूर्ण व्याख्या के लिय आप हमारी कर्ता भोक्ता भेद की post पढ. सकते हैं*

       वैराग्य की यह अवस्था अतिदुर्लभ है। सवंय में अन्तश्चेतना के विलीन हो जाने पर यह अपने आप ही प्रकट हो जाती है। इसीलिए इसे पर वैराग्य कहते हैं। सिद्ध महापुरुषों की यह स्वाभाविक दशा होने के कारण इसे सिद्ध वैराग्य भी कहा जाता है। यह समस्त साधनाओं का फल है, जो सिद्ध योगियों को सहज सुलभ रहता है। अन्तर्चेतना सवंय में विलीन होने के कारण विषयों के प्रति, भोगों के प्रति न गति होती है, न रुचि और न ही रुझान। यह निर्विकार भावदशा की सहज अभिव्यक्ति है।

*पर इनदोनो ही अवस्थाओं का परमात्मा के प्रेम से कोई सम्बन्ध नही है परमात्मा प्रेम इन दोनो अवस्थाओं से परे है*
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प्रणाम जी

Sunday, October 30, 2016

*लक्ष्मी का अर्थ*

दीपावली के दिन जो पूजा होती है उसे लक्ष्मी पूजन कहा जाता है। आज ज्यादातर लोग समझते हैं कि लक्ष्मी का अर्थ है धन की देवी। ये लक्ष्मी शब्द का बहुत संकुचित अर्थ हो गया। वास्तव में इस शब्द का अर्थ बहुत विशाल है। लक्ष्मी शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की लक्ष धातु से हुई है। लक्ष का शाब्दिक अर्थ है ध्यान लगाना, ध्येय बनाना, ध्यानपूर्वक निरीक्षण करना इत्यादि। इसका अर्थ ये है कि जब हम एकाग्रचित्त होकर कोई कार्य या साधना करते हैं तो उसका जो फल प्राप्त होता है उसे लक्ष्मी कहते हैं। जैसे आगर आप अदूैत भाव में साधना करते है तो उसकेफलस्वरूप जो आप अदुैत मे एकरसता को पराप्त करते है वह अदुैत भाव में तो शब्दातीत भाव है पर शब्दो में कहें तो यह उस साधना का फल है इस फल को ही या  साधना के उस फलस्वरूप भाव को ही लक्ष्मी कहते है...
*अतः धन, मूर्ती या अन्य बाह्य साधनो से पूजा करके लक्ष्मी के भाव को तुच्छ ना बनायें अपितु इसका व्यापक अर्थ ग्रहण करें..*
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प्रणाम जी

Saturday, October 29, 2016

सुप्रभात जी

इस जगत के दूैत व मान्यता के जाल ने बंधन की गांठ को इस प्रकार जोर से बांधा हैं, कि मानव इसे सत्य एवं सुखद समझ कर आत्मा एवं परमात्मा के अदैत सम्बन्ध को असत्य मानने लगा हैं और इसके विपरीत दूैत के झूठी देह और जगत को सत्य माने बैठा हैं।

इस संसार के समस्त लोग शारीरिक सम्बंध को ही सच्चा मानते चले जा रहे हैं। आत्मा व परमात्मा की पहचान कोई भी नहीं करता। क्षण भंगुर शरीर के झूठे सम्बंधो को स्वीकार कर उन्हें पालन करने में सारा जीवन व्यतीत कर देते हैं क्योंकि देह को ही उन्हों ने सर्वस्व मान लिया हैं।

इस शरीर पर चंदन का लेप लगाकर इसे बार बार धोते हैं और सुगन्धित इत्र आदि लगाते हैं फिर अच्छे अच्छे भोजन पका कर बडे प्यार से इसे पुष्ट करते हैं और इसकी सुरक्षा हेतु अनेक प्रयास करते हैं। वे इस तथ्य को भूल जाते हैं कि उनकी यह द्रष्टि (लक्ष्य) तो नश्वर मिट्टी की काया - खाक से ही बांधी हैं।

इस शरीर का सर्वोतम और एक मात्र उपयोग आत्मा में परमात्मा को पहचान कर उस भाव को अदैुत प्रेम से पोषित करना है...
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प्रणाम जी

Wednesday, October 19, 2016

*एक बात और समझना,*
बहोत ध्यान से,  कि हम समर्पण और उपहार (gift)मे भेद न जान्ने के कारण परमात्मा में समर्पण ना करके उन्हे उपहार देने का प्रयास करते रहते है , ध्यान देना इसका भी केवल प्रयास करते हैं दे नही पाते , कयोंकी संवय को परमात्मा मे लगाना या उन्हे देना समर्पण है, और सवंय का कुछ परमात्मा को देना उपहार कहलायगा, ..
आप अपना मन उन्हेदेकर समर्पण सोच रहेहोना तो ध्यान से सुनो ये समर्पण नही उपहार देने का प्रयास कर रहे हो.. समर्पण होता है खुदको देना...अरे संसारी ग्यान से ही समझलो एकलव्य ने द्रोंण को अंगुठा दे दिया तो समर्पण कहलाया या गुरू दक्षिणा, ध्यानदेना *दक्षिणा* कहलाया समर्पण नही.. यही हम किये जा रहे है अपना अर्थात मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा चित ये तो आपका है आप नही हो, आपका दोगे तो उपहार होगा और सवंय को देना या लगाना समर्पण होगा...एक और संसारीक उदाहरण- कि जैसे पत्नी पती को कोइ भी अपनी वस्तु दे तो ये उपहार है, और खुद को देने से समर्पण हो जाता है..ध्यान रहे परमात्मा तुम्हारे उपहार का भूखा नही है, संसारीक बोल बोलूं तो उपहार देने का परयास करके तुम उसका अपमान कर रहे हो...

ये है अध्यात्म का A, और हम समझते हैं की गुरू से नाम ले लिया तो हमारी शुरूआत हो गयी हमारा कल्याण हो गया...
 *ध्यान दो*

 *केवल नाम लेके बैठना जीवन को व्यर्थ गवाना है* *और नाम लेके ये सोचना की मैने तारतम ले लिया है तो यह तारतम का घोर अपमान है* तारतम कोई लेने देने की वस्तु नही है...
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी