Monday, November 28, 2016

*मन*
दो मन हैं..
एक है- म और न = मन ,म=मैं - न=नही = जो आप सवंय नही हो वो मानी हूई मान्यता कि स्थिती है *मन* अर्थात जो आप नहि हो .

और दूसरा मन है - म=मैं , न=नही अर्थात जो आप नही हो उसमें जो सत्य "है" की स्थिती है ,वो आप सवंय है...
पहला मन---सत्य और स्थूल के बीच की *नही* की स्थिती मन है.. वास्तव में यह है ही नही यह केवल *मान्यता* है .. तो मन याने *मैं नही* अर्थात मन है ही नही केवल मान्यता है... तो जो है नही उसका तुमने पहाड वना रख्खा है .. और मान्यता में भ्रमित हो रहे हो..
दूसरा मन----एक मन और है , ये है "मैं नही" की अवस्था शुक्ष्म अंह के पार की अवस्था..*इसका विस्तार से विवरण श्रि प्राणनाथ वाणी में दिया गया है..*

*इलाज-* -- केवल एक, इस मन की मान्यता अर्थात *नही* की जड़ पर "मैं नही" की अवस्था से प्रहार..
इसलिय कहा है " *मन ही बान्धे मन ही खोले*
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प्रणाम जी

Sunday, November 27, 2016

सुख और आनंद में कया भेद है..??

बाहरी दृष्य में आनंद का प्रतिबिंबित होना सुख है .. अर्थात सुख का अस्तितव है ही नही, यह तो केवल आनंद का प्रतिबिंब है.. प्रतिबिंब भ्रम होता है सत्य नही.. प्रतिबिंब कभी पकड़ में नही आता इसलिय सुख भी कभी पकड़ में नही आता .. *प्रतिबिंब हमेंशा अमने सत्य स्वरूप के विपरीत दिशा में बन्ता हैं* .. इसलिय सुख भी बाहर दिखता है.. अर्थात आनंद=परमात्मा या सवंय अन्दर है , बाहर तो हर वस्तु में आपका ही प्रतिबिंब सुख बनकर आपको भ्रमित कर रहा है..
*बाहर से अंदर की और मुड जाओ, असत्य से सत्य की और चलो, प्रतिबिंब से मूल स्वरूप की और चलो, सुख से आनंद की और चलो, दूैत से अदूैत की और चलो, अपनी और चलो, सवंय को जान जाओ, तुम सवंय आनंद हो फिर प्रतिबिंब कयो पकडते हो ?
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प्रणाम जी

Friday, November 25, 2016


*आनंद का मार्ग भेद*

तीन चीजें है
१- दृष्य
२-दृष्टा
३-और आप "सवंय"

आप सवंय आनंद अंश हो ,जिसका प्रभाव दृष्टा को  दृष्य में दिखता है, और दृष्टा दृष्य में आनंद समझ कर भ्रमित रहता है.. यह भाव ध्यान व भक्ति में रहता है...अर्थात सवयं की विमुखता का आनंद तुम्हे अन्य वस्तुओं में आता है... जबतक सवंय में नही आओगे यह भ्रम बना रहेगा..
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प्रणाम जी

Thursday, November 24, 2016

*मन को समझना बहोत विकट व आवश्यक है ..*

कर्ता और क्रिया के मेल से उत्पन्न अवस्था मन है ..उदाहरण-जैसे ढोल बजाने वाला कर्ता है और बजने वाला ढोल से जो ध्वनी उत्पन्न होती है वो मन है.. यह मन क्रिया के अनुसार अपना रूप बदलता रहता है इसलिय कईबार इसकी उपस्थिती न दिखने पर भी यह भ्रमित करता रहता है.. ऐसा भ्रम अध्यात्म में सबसे ज्यादा होता है..
जब आपका अहं "अस्तितव" भक्ति से जुडता है तो वहां भी कर्ती याने अहं "अस्तितव" और क्रिया याने भक्ती के संयोग से जो मन उतपन्न होता है वह मन अद्रिश्य सा रहता है और हम समझ लेते हैं कि मन लय हो गया और हम मन से परे हो गये.. पर वहां भी मन उपस्थित रहता है , वह भी घातक है, यह अवस्था भी परमात्मा से विमुखता ही है..
इसलिय सही मार्ग ढूंडो..
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प्रणाम जी

Saturday, November 5, 2016

*बन्धन का कारण कया है??*

कारण शरीर ”प्रकृति” का नाम है। सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों के समुदाय का नाम प्रकृति है। ये सूक्ष्मतम कण हैं। उसी का नाम ‘कारण-शरीर’ है।
 अब उस प्रकृति रूपी कारण शरीर से दूसरा जो शरीर उत्पन्न हुआ, उसका नाम ‘सूक्ष्म शरीर’ है। आपने शरीर पर सूती कुर्ता कपड़ा पहन रखा है। इसका कारण है धागा। और धागे का कारण है- रूई। रूई, धागा और कॉटन-कुर्ता ये तीन वस्तु हो गयीं। कुर्ता, धागा और रूई, तो ऐसे तीन शरीर हैं- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। पर इनमें से बंधन का जो महा कारण है वह है महाकारण शरीर ये है  महाअग्यान इसके भी पीछे छिपी है सब बंधनो की जड़ .. परमात्मा का आपके साथ जो 'वियोग' मालुम देता है कि 'परमात्मा'के साथ हमारा 'वियोग' है-ऐसा जो अनुभव होता है, वह है महा कारण , और जिसको ये वियोग अनुभव होता है वह है सब बन्धनो की जड़ ... और यह है *शुक्षम अहम* *इसको पालिया तो समझो आधा काम हो गया*.. कयोंकी इसको पाकर ही इसे समाप्त किया जा सकेगा..
*मारा कह्या काढ़ा कह्या, और कह्या हो जुदा। एही मैं खुदी टले, तब बाकी रह्या खुदा।।*

*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा*

(विषय सपष्ट न होने पर सत्यसंगत का सहारा लें)
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प्रणाम जी