Wednesday, August 30, 2017

मन कया है ?

अहं कया है ?

आत्मा कया है ?

सबसे पहले अहं--- आपका जो होने का अहसास है वो अहं है । इसमे आपको जो सवंय की उपस्थिती का अहसास रहता है निरंतर, वो अहं के कारण है ।

 मन--- इस सवंय के अहसास के बाद जो भी भाव रहती है वो मन है , इसे हृदय भी कहते है इसके चार भाग है ( मन चित बुद्धी और अहंकार ) अहं के साथ ये सदा रहते हैं निरंतर । इसलिय मन पर काबू पाना नामूमकिन है जबतक की अहं को समझा ना जाये । आप जो भी करते है, अहं से ही होता है और जाहां अहं है वहा शत प्रतिशत मन रहता है, चाहे भक्ती हो त्याग हो तप हो बृह्मचार्य हो बैराग नाम जाप हो चितवनी हो या जो भी हो । मन की आयु बहेत ही अल्प होती है अर्थात यह निरंतर बनता और मिटता रहता है, इसका बनना और मिटना अहं की स्थिती के अनूसार है,अर्थात अगर आप सतसंग मे है तो वहां के अनुसार, अगर ध्यान में हैं तो तो वहां के अनुसार, अगर संसार में है तो वहां के अनुसार, प्रेम में है तो वहां के अनुसार, परिवार में हैं तो वहां के अनुसार, भक्ती में हैं तो वहां के अनुसार, चितवनी में है तो वहां के अनुसार या जहां भी आपकी उपस्थिती रहती है मन वही के अनुसार निर्मित हो जाता है ।

आत्मा--- आत्मा आनंद है। यह बुद्धि और गुणों से परे है।इसलिए उपस्थित(अहम) स्थिति से इसको समझना लगभग असम्भव है। यह अहम की ज्ञान अवस्था (एकरसता) से प्रतिबिंबित होती है। यह आंतरिक विषय है। इसके प्रतिबिंब के भान को पकड़ कर उसके विपरीत मूल आनंद की खोज करने से कुछ बात बन सकती है।

जिस भी वस्तु मे आपको आनंद की अनुभूति होती है वो आत्मा के कारण है। पर ऐसा बिल्कुल नहीं है कि वो आत्मा का आनंद है। आत्मा का आनंद नहीं होता आत्मा ही आनंद होती है जिसका भास रहता है जिसको खोजना होता है। इसलिए जो भी आनंद तुमने आजतक लिया है वो तिल भर भी नहीं है आत्मा के आगे। इसको खोजना थोड़ा कठिन हो सकता है पर सबसे सरल यही है।इसकी खोज में दासता  नहीं है , स्वतंत्रता है हर बंधनसे। केवल यही खोजने योग्य है केवल इसी की खोज करनी चाहिए। बाकी सब प्रतिबिंब है झूठ है मिथ्या है।अहम है।

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सतगुरुतत्व क्या है ?


ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादि लक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वदा साक्षिरूपम्,
भावातीतं त्रिगुण रहितं सतगुरु तन्नमामि ॥
(स्कन्द्पुराणे गुरुगीतायम्)


अर्थ:= *सच्चिदानंद ब्रह्म आनन्द स्वरूप है, उसका आनंद ही प्रत्येक प्राणी में अक्रषण रूप में विद्यमान रह कर उसे आनंद की और आकर्षित करता है, यही आनंद जब आंतरिक रूप में जान लिया जाता है तो इसी को सत्गुरु य गुरुतत्व कहा जाता है।वही मूल आनंद आकर्षण सत्गुरु हैं। क्योंकि गु का अर्थ है अंधेरा या माया और रू का अर्थ है आनंद या प्रकाश,तो जो माया रूपी अंधेरे में आंतरिक आनंद रूपी प्रकाश के आकर्षण के माध्यम से हमें सत्य आनंद का बोध होता है यही माध्येम गुरूतत्वा या सतगुरु है* इसी आनंद के माध्यम तत्व को राधा या श्यामा कहा गया है।इसी कारण किसी मूलआनंदतत्वदर्शी ने कहा था राधे राधे श्याम मिला दे, राधा अर्थात उपरोक्त माध्यम व श्याम अर्थात मूल आनंद। पर अज्ञानवश लोगो ने इसे रटना शुरू कर दिया कि राधे राधे श्याम मिला दे।इस राधा तत्व से अनभिज्ञ होने के कारण लोगों ने इसे स्त्री या पुरुष बना कर देखना शुरू कर दिया।इसी के कारण राधा नाम के जाप का भ्रम पैदा हो गया।यही मूलतत्व सर्वोत्तम ज्ञान एवं परम सुख का दाता है। यह द्वंद्व अर्थात माया, निरंजन निराकार एवं साकार ब्रह्मांड से परे हैं । आकाश जैसा इसका स्वभाव है, क्योंकि ये परम शांत व अनंत्ता लिए हुए है।तत्वमसि में से असि पद ब्रह्म को कह गया है । तत पद ईश्वर से परे ब्रहं का लक्ष्य देते हैं। वह अचल रूप, सदा साक्षी स्वरूप हैं । स्वभाव अर्थात अध्यात्म अर्थात मूल अहम या अक्षरब्रह्म से भी परे हैं । तीनों गुण सत-रज-तम के स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश से परे हैं । ऐसे सतगुरु को सप्रेम नमस्कार है ।


ऋग्वेद 10.49.1


केवल एक परमात्मा ही सत्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वालों को सत्य ज्ञान का देने वाला है । वही ज्ञान की वृद्धि करने वाला और  धार्मिक मनुष्यों को श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त करने वाला है । वही एकमात्र इस  सारे संसार का रचयिता और नियंता है । इसलिए कभी भी उस एक परमात्मा को छोड़कर और किसी को भी धारण नहीं करना चाहिए ..

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Monday, August 21, 2017

सुख और आनंद में कया भेद है..?? (नया संसकरण)


बाहरी दृष्य में आनंद का प्रतिबिंबित होना सुख है .. अर्थात सुख का अस्तितव है ही नही, यह तो केवल आनंद का प्रतिबिंब है.. प्रतिबिंब भ्रम होता है सत्य नही.. प्रतिबिंब कभी पकड़ में नही आता इसलिय सुख भी कभी पकड़ में नही आता .. *प्रतिबिंब हमेंशा अमने सत्य स्वरूप के विपरीत दिशा में बन्ता हैं* .. इसलिय सुख भी बाहर दिखता है.. अर्थात आनंद=परमात्मा या सवंय अन्दर है , बाहर तो हर वस्तु में आपका ही प्रतिबिंब सुख बनकर आपको भ्रमित कर रहा है..
*बाहर से अंदर की और मुड जाओ, असत्य से सत्य की और चलो, प्रतिबिंब से मूल स्वरूप की और चलो, सुख से आनंद की और चलो, दूैत से अदूैत की और चलो, अपनी और चलो, सवंय को जान जाओ, तुम सवंय आनंद हो फिर प्रतिबिंब कयो पकडते हो ?
इस प्रतिबिम्ब रूपी सुख के लिय मूल आनंद को कयों भूलाऐ बैठे हो ? और घोर अग्यान दोखिये अपने मूल आनंद को त्याग कर झूठे प्रतिबिम्ब के सुख को पाने के लिय और खोने के भय से अनेक देवी देवताओं की गुलामी करते हो । मूल को पकडो, स्वतंत्र बनो, झूठ में सदा भय रहता है, झूठ गुलाम बनाता है सत्य सदा स्वतंत्र है । केवल सत्य, नित्य भाव में रहो, आनंद रहो ।
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प्रणाम जी

Sunday, August 6, 2017

प्रश्न -मैं पाप करने से कैसे बच सकता हूं ???

उत्तर- मैं पाप नही करूंगा, यही सोच तुम्हे पापी बना देती है .."मैं पाप नही करूंगा" भाव के पीछे जो बोलने वाला है वही तो पापी है, कौन है वो ?
वो अहं है, यही पापी है होने में रहता है, यही वैरागी होने में, ग्यानी होने में, धर्मी होने में, गूरू होने में, शिष्य होने में, भक्त होने में , परमात्मा से प्रेम करके प्रेमी होने में, सब में यही रहता है | यही जड़ है पापी होने की या पाप करने की | अगर पाप से बचना चाहते हो तो पापी को समाप्त करो.. अहं को समाप्त करो, जब पाप करने वाला ही नही रहेगा तो पाप कौन करेगा...
*अहं का अर्थ अहंकार से नही है, अहं जड़ है अहंकार पत्ते के समान है*

*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।*
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