Friday, September 29, 2017

*क्या मैं परमात्मा को पा सकता हूं या उसका दर्शन कर सकता हूं*

बृह्म को प्राप्त वो कर सकता है जो बृह्म से बडा हो , जो प्राप्त हो सके वो बृह्म नही है. बृह्म तो सदा से ,अनादी काल से तुम में ही है.. फिर कया प्राप्त करना चाहते हो . कया ये घोर अग्यान नही है कि तुम उसे प्राप्त करना चाहते हो जो तुम में ही है.. बस तुम उसके तुममें होने के बोध में नही हो .. वो तुममें है सदा से ,निरंतर , इस बोध में बोधित रहना ही ग्यान है, योग है, प्रेम है, अदूैत भाव है, शुद्ध अन्यता है, अखंड आनंद है,

जो कहते हैं : हमें परमात्मा का दर्शन हुआ है, वे गलत ही बात कहते हैं।


दर्शन तो पराए का हो सकता है, स्वयं का कैसे दर्शन होगा!


स्वयं के दर्शन का कोई उपाय नहीं है।


आत्म—दर्शन शब्द भी गलत है।


आत्म—अनुभूति होती है, दर्शन नहीं होता।


दर्शन का तो मतलब है दो हो गए—द्रष्टा और दृश्य।
वहां तो एक ही है, वहां कोई द्रष्टा नहीं, कोई दृश्य नहीं।


एक पुलक होती है; एक भाव—दशा होती है।


जिसको बुद्ध संवेग कहते हैं।
एक संवेग होता है। तुम जान लेते हो, बिना जाने।
पहचान लेते हो, बिना पहचाने।


..इसी बोध के बिषय में वेद कहता है..


*"" प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मै जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है (यजुर्वेद ३१/१८) """*


अर्थात उसे पाना नही है वो तुममें है ये जान्ना है..पाया हूआ है सदा से ,बस उस पाई हुई स्थिती को जानलो बस मिल गया आनंद, वेद भी बार बार यही कह रहा है..की


*""उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ )""*
*अर्थात पाना नही है, वो तुममें ही है ये जान्ना है..*
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  • प्रणाम जी
*सच्चा तीर्थ क्या है? मैं देखता हूं की अनेकों लोग तीर्थो पर जाकर  प्राकृतिक आपदा के शिकार होकर प्राण त्याग देते है, और उनके परिजन विलाप करते हुए उन तीर्थों को बुरा भला कहते हैं। तो कृपया तीर्थ का अर्थ बताएं।*

तीर्थ का अर्थ है ऐसा पवित्र जिसके साथ संयोग करने से पवित्रता आये, जिसके साथ संयोग से अपने को पवित्र समझते है उसे तीर्थ कहते है। तो ध्यान देना कि दो ही चीजे है एक जड़ और एक चेतन। इसमें से हम सब जाने या अनजाने चेतन को ही पवित्र मानते हैं क्योंकि शरीर से चेतन प्राण निकल जाने पर हम उसको छूने मात्र से स्नान करते है। अर्थात उसको अपवित्र समझते है । तो कहने का अर्थ है कि जो चेतन है वहीं पवित्र है और जो पवित्र है वहीं तीर्थ है। अर्थात तीर्थ बाहरी विषय नहीं है ये आंतरिक विषय है पर हम सारी उम्र इस वास्तविक तीर्थ से अनजान होकर जड़ पदार्थो में ही तीर्थ मानकर भ्रमित रहते है। तो सच्चे तीर्थ के लिऐ सबसे पवित्र वस्तु का संग करना चाहिए वो है आपकी चेतना जिससे आप अनजान हैं।इस चेतना रूपी तीर्थ को करने से आपके अनंत जन्मों के पाप कट जाते हैं। इस मार्ग पर चलना ही भक्ति है, प्रेम भी यही है, आत्मा भी यही है । परमात्मा भी यही है, यही योग है, यही परमतत्व है।


जनाः यैः तरन्ति तानि तीर्थानि’ अर्थात् मनुष्य जिस माध्यम भवसागर से पार हो, वही तीर्थ है। आंतरिक प्रेम का बोध ही वास्तविक तीर्थ है। निरर्थक इधर उधर भटकते रहना तथा नदियों के जल में डुबकी लगाकर जड़ पदार्थों की परिक्रमा करना तीर्थ नहीं है।
आजन्म मरणान्तं च गंगादि तटनीस्थिता:।
मण्डूक मत्स्य प्रमुखा योगिनस्ते भवन्ति किम्।।
(गरुड़ पुराण १६/६८)

जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते.


सच्चा तीर्थ वह है, जिसमें अपने चित्त को एकाग्र कर आंतरिक सफर पर चला जाए। इसमें कर्मों का कोई भी बन्धन नहीं लगता और वास्तविक तीर्थ यात्रा का लाभ मिलता है। अर्थात तिर्थ तन से नही अतः करण से होता है ..तन को कष्ट देने से परमात्मा नही मिलते...


तावत्तपो व्रतं तीर्थं जप होमार्चनादिकम्।
वेदशास्त्रागम कथा यावत्तत्त्वं न विन्दति।।
(गरुड़ पुराण १६/९८)
तब तक ही तप, व्रत, तीर्थाटन, जप, होम और देवपूजा आदि हैं तथा तब तक ही वेदशास्त्र और आगमों की कथा है जब तक कि परमतत्त्व का बोध प्राप्त नहीं होता;  परमतत्त्व का बोध प्राप्त होने पर इनसबका कुछ भी अर्थ नहीं रह जाता है...
इसलिय तिर्थ आदी मे भटकने की अपेक्षा परमतत्व की खोज करो जो कहीं बाहर नही है हमारे हृदय में ही है...
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प्रणाम जी

Saturday, September 9, 2017

क्या मैं रोज़ थोड़ा थोड़ा प्रेम बढ़ा कर परमात्मा को पा सकता हूं ???

क्या तुम रोज छोटे छोटे पानी के गढढे बना कर समुन्द्र का निर्माण कर पाओगे ? तुम प्रेम का अर्थ ही भी समझे हो। प्रेम खुद ही परमात्मा है। प्रेम अथाह है । अथाह को छोटे छोटे टुकड़ों में कैसे बांट सकते हो। हम गलती ये कर रहे हैं कि हमें जो बौद्ध होना है उसको अपने अनुसार बना लेते हैं। अर्थात हम प्रेम बढ़ा कर परमात्मा को पाना चाहते हैं, जबकी परमात्मा स्वयं प्रेम ही है, तो तुम जिसे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हो वो प्रेम नहीं है, ये मोह है, एक गुण है, ये वही वस्तु है जो तुम संसार मे सबसे करते हो, ये भी तुम इतना नहीं कर पाओगे जितना तुम संसार में करते हो। फिर क्यों खुदको धोखा दे रहे हो।
जिस दिन प्रेम का बोध होगा उस दिन कुछ पाना नहीं रह जायेगा। ध्यान रहे प्रेम को ही पाना है, प्रेम से पाने जैसे कुछ नहीं है। प्रेम क्या है? इस विषय पर हमारी पहले एक पोस्ट आ चुकी है वो आप satsangwithparveen.bolgspot.com पर जाकर पढ़ सकते हैं। या fb पर www.facebook.com/kevalshudhsatye