*सच्चा तीर्थ क्या है? मैं देखता हूं की अनेकों लोग तीर्थो पर जाकर प्राकृतिक आपदा के शिकार होकर प्राण त्याग देते है, और उनके परिजन विलाप करते हुए उन तीर्थों को बुरा भला कहते हैं। तो कृपया तीर्थ का अर्थ बताएं।*
तीर्थ का अर्थ है ऐसा पवित्र जिसके साथ संयोग करने से पवित्रता आये, जिसके साथ संयोग से अपने को पवित्र समझते है उसे तीर्थ कहते है। तो ध्यान देना कि दो ही चीजे है एक जड़ और एक चेतन। इसमें से हम सब जाने या अनजाने चेतन को ही पवित्र मानते हैं क्योंकि शरीर से चेतन प्राण निकल जाने पर हम उसको छूने मात्र से स्नान करते है। अर्थात उसको अपवित्र समझते है । तो कहने का अर्थ है कि जो चेतन है वहीं पवित्र है और जो पवित्र है वहीं तीर्थ है। अर्थात तीर्थ बाहरी विषय नहीं है ये आंतरिक विषय है पर हम सारी उम्र इस वास्तविक तीर्थ से अनजान होकर जड़ पदार्थो में ही तीर्थ मानकर भ्रमित रहते है। तो सच्चे तीर्थ के लिऐ सबसे पवित्र वस्तु का संग करना चाहिए वो है आपकी चेतना जिससे आप अनजान हैं।इस चेतना रूपी तीर्थ को करने से आपके अनंत जन्मों के पाप कट जाते हैं। इस मार्ग पर चलना ही भक्ति है, प्रेम भी यही है, आत्मा भी यही है । परमात्मा भी यही है, यही योग है, यही परमतत्व है।
जनाः यैः तरन्ति तानि तीर्थानि’ अर्थात् मनुष्य जिस माध्यम भवसागर से पार हो, वही तीर्थ है। आंतरिक प्रेम का बोध ही वास्तविक तीर्थ है। निरर्थक इधर उधर भटकते रहना तथा नदियों के जल में डुबकी लगाकर जड़ पदार्थों की परिक्रमा करना तीर्थ नहीं है।
आजन्म मरणान्तं च गंगादि तटनीस्थिता:।
मण्डूक मत्स्य प्रमुखा योगिनस्ते भवन्ति किम्।।
(गरुड़ पुराण १६/६८)
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते.
सच्चा तीर्थ वह है, जिसमें अपने चित्त को एकाग्र कर आंतरिक सफर पर चला जाए। इसमें कर्मों का कोई भी बन्धन नहीं लगता और वास्तविक तीर्थ यात्रा का लाभ मिलता है। अर्थात तिर्थ तन से नही अतः करण से होता है ..तन को कष्ट देने से परमात्मा नही मिलते...
तावत्तपो व्रतं तीर्थं जप होमार्चनादिकम्।
वेदशास्त्रागम कथा यावत्तत्त्वं न विन्दति।।
(गरुड़ पुराण १६/९८)
तब तक ही तप, व्रत, तीर्थाटन, जप, होम और देवपूजा आदि हैं तथा तब तक ही वेदशास्त्र और आगमों की कथा है जब तक कि परमतत्त्व का बोध प्राप्त नहीं होता; परमतत्त्व का बोध प्राप्त होने पर इनसबका कुछ भी अर्थ नहीं रह जाता है...
इसलिय तिर्थ आदी मे भटकने की अपेक्षा परमतत्व की खोज करो जो कहीं बाहर नही है हमारे हृदय में ही है...
Satsangwithparveen.blogspot.com
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Www.facebook.com/kevalshudhsatye
तीर्थ का अर्थ है ऐसा पवित्र जिसके साथ संयोग करने से पवित्रता आये, जिसके साथ संयोग से अपने को पवित्र समझते है उसे तीर्थ कहते है। तो ध्यान देना कि दो ही चीजे है एक जड़ और एक चेतन। इसमें से हम सब जाने या अनजाने चेतन को ही पवित्र मानते हैं क्योंकि शरीर से चेतन प्राण निकल जाने पर हम उसको छूने मात्र से स्नान करते है। अर्थात उसको अपवित्र समझते है । तो कहने का अर्थ है कि जो चेतन है वहीं पवित्र है और जो पवित्र है वहीं तीर्थ है। अर्थात तीर्थ बाहरी विषय नहीं है ये आंतरिक विषय है पर हम सारी उम्र इस वास्तविक तीर्थ से अनजान होकर जड़ पदार्थो में ही तीर्थ मानकर भ्रमित रहते है। तो सच्चे तीर्थ के लिऐ सबसे पवित्र वस्तु का संग करना चाहिए वो है आपकी चेतना जिससे आप अनजान हैं।इस चेतना रूपी तीर्थ को करने से आपके अनंत जन्मों के पाप कट जाते हैं। इस मार्ग पर चलना ही भक्ति है, प्रेम भी यही है, आत्मा भी यही है । परमात्मा भी यही है, यही योग है, यही परमतत्व है।
जनाः यैः तरन्ति तानि तीर्थानि’ अर्थात् मनुष्य जिस माध्यम भवसागर से पार हो, वही तीर्थ है। आंतरिक प्रेम का बोध ही वास्तविक तीर्थ है। निरर्थक इधर उधर भटकते रहना तथा नदियों के जल में डुबकी लगाकर जड़ पदार्थों की परिक्रमा करना तीर्थ नहीं है।
आजन्म मरणान्तं च गंगादि तटनीस्थिता:।
मण्डूक मत्स्य प्रमुखा योगिनस्ते भवन्ति किम्।।
(गरुड़ पुराण १६/६८)
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते.
सच्चा तीर्थ वह है, जिसमें अपने चित्त को एकाग्र कर आंतरिक सफर पर चला जाए। इसमें कर्मों का कोई भी बन्धन नहीं लगता और वास्तविक तीर्थ यात्रा का लाभ मिलता है। अर्थात तिर्थ तन से नही अतः करण से होता है ..तन को कष्ट देने से परमात्मा नही मिलते...
तावत्तपो व्रतं तीर्थं जप होमार्चनादिकम्।
वेदशास्त्रागम कथा यावत्तत्त्वं न विन्दति।।
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तब तक ही तप, व्रत, तीर्थाटन, जप, होम और देवपूजा आदि हैं तथा तब तक ही वेदशास्त्र और आगमों की कथा है जब तक कि परमतत्त्व का बोध प्राप्त नहीं होता; परमतत्त्व का बोध प्राप्त होने पर इनसबका कुछ भी अर्थ नहीं रह जाता है...
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प्रणाम जी
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