Sunday, November 26, 2017

*माया ओर परमात्मा क्या है??*
होना सत्ता है, *है* परमात्मा है..


उस है का विस्तार और लय को होना कहा गया है कयोंकी ये होता है. यही माया है..


जो है सदा से सदा तक, जीसमें होना नही है , वह तो *है* ही ,अनंत से वही शब्द में परमात्मा है..


जो *है* को जान्ता है वह होने में है को देखलेता है..
जो *है* को नही जान्ता वह होने में भ्रमित रहता है..
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Monday, November 13, 2017

*कहते हैं सत्संग से बड़ा कोई लाभ नहीं है, पर सत्संग का सही अर्थ क्या है ? कृपया बताएं ।*

सवंय का संग ही सतसंग है.. तुम सवंय ही सत्य हो आनंद हो.. इसके अलावा कोई सत्यसंग नही है..अगर स्वंय को नही पहचाना तो कही भी भ्रमण करलो झूठ का झूठ ही रहेगा, और सवंय को जान लिया तो बस फिर निरंतर सत्य ही है.. फिर सतसंग के विकार भाव को भी पार करलोगे..
सतसंग को विकार भाव इसलिय काहा है कयोंकी इसमें दो का भाव है सत्य और संग, अर्थात सत्य का संग करने वाला, अर्थात *अहं* | अपने को सत्य से अलग मान्ते हो, यही अहं भाव सतसंग मे विकार रूप में उपस्थित रहता है.. इसलिय सवंय की शुद्ध पहचान ही सतसंग है..आनंद ही सत्य है ,आप ही आनंद हो..बाहर तो सब झूठ है..
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Sunday, November 12, 2017

*मैंने कई लोगों को झगड़ते देखा है कि कृष्ण पारब्रह्म है या नहीं । कृष्ण क्या है बताएं..*

नाम पर झगडा कयों ..??

कृष्ण शब्द के अनेक अर्थ हैं।
1-कृष् धातु का एक अर्थ है खेत जोतना,अर्थात वे जो खींच लेते हैं,
2-दूसरा अर्थ है आकर्षित करना।
वे जो प्रत्येक
को अपनी ओरआकर्षित करते हैं,
3-कृष्ण का अर्थ है विश्व का प्राण,
उसकी आत्मा। जो सम्पूर्ण
संसार के प्राण हैं- वही हैं कृष्ण।
4-कृष्ण का अर्थ है वह तत्व जो सबके 'मैं-
पन' में रहता है।मैं हूँ, क्योंकि परमात्मा है।
इसलिय धर्मगरन्थों में पूर्णब्रह्म परमात्मा को कृष्ण नाम से सम्बोधित किया गया है..
ईश्वर: परम : कृष्ण: सच्चिदानन्द विग्रह: |
अनादिरादि गोविन्द: सर्वकारणकारणम् ||
श्रीकृष्ण परम ईश्वर है, सच्चिदानन्द- विग्रह है, अनादि है| गोविन्द है एवम सब कारण के कारण है|


जबकी परमातमा शब्दातीत है..

*अछर अछररातीत कहावहि, सो भी कहियत इत सब्द ।*
*सब्दातित क्यों पाबही, ए जो दुनिया हद ॥ कि. १०७/७***

*इन सरूप की इन जुबां , कही न जाए सिफत ।*
*सब्दातीत के पार की , सो कहनी जुबां हद इत ।।*


परमात्मा कहते हैं, 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते'
जो कुछ भी हम स्पर्श करते हैं, जो भी हम इस
विश्व में देखते हैं- वह सब कुछ परमात्मा का ही है।
उनकी ही सत्ता है..
कृष्ण कोई शरीर रही है कयोंकी शरीर त्रिगुणातमक है.. त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥
(गीताः ७/१३)
प्रकृति के इन तीनों गुणों से उत्पन्न भावों द्वारा संसार के सभी जीव मोहग्रस्त रहते हैं, इस कारण प्रकृति के गुणों से अतीत मुझ परम-अविनाशी को नहीं जान पाते हैं....


इसलिय कृष्ण कोई वजूद का नाम नही है व्यापकता कृष्ण है.. परमधाम मे सत्य आकर्षण है परमधाम निज स्वरूप है आनंद का और आनंद ही बृह्म है.. आतमांये अंश है परमात्मा की ..और अंशी अपने अंश की और सदैव आकृषित रहती है जैसे मिट्टी का ढ़ेला कितना भी ऊपर फेंको पर वापस पृथ्वी की और ही आता है कयोंकी वो उसका अंश है इसी तरह ऐसे ही अग्नि उपर उठती है कयोंकी अंश है सुर्य का इसी इसी प्रकार हम आत्मांये आनंद अंग होने के कारण सदैव आनंद की और आकर्षित रहतीं हैं आनंद ही बृह्म है इसलिय हमारा परम आकर्षण परमात्मा है यानी वो हमारे सबसे बडे कृष्ण हैं. कयोंकी आकर्षण ही कृष्ण है परमात्मा परम आकर्षण हैं इसलिय वो परम कृष्ण हैं..आत्मांये धाम की और आकर्षित रहतीं है इसलिय परमधाम हमारा कृष्ण है..
कृष्ण को अगर किसी शरीर का नाम समझते हो तो तो तुरंत अपना मार्ग बदलें कयोंकी आप विपरित मार्ग पर हैं..संकिर्ता कृष्ण नही है व्यापकता कृष्ण है...यही शुक्षम भेद ना समझपाने के कारण हम परमात्मा को पाने के बजाय उनका नाम पकड कर बैठ जाते हैं व हममें विकार उत्पन्न हो जाते हैं ..ये भी सत्य है की संसीर में सभी प्राणी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष केवल परमात्मा का ही सेवन करते है और उसे ही याने कृष्ण को ही चाहते है..बस सत्यबोध के अभाव में सार त्तव गरहण नही हो पाता ..
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प्रणाम जी

Saturday, November 11, 2017

*लोग मन, अहम और आत्मा की बात तो करते है पर बताता कोई नहीं की ये असल में है क्या ?कृपया बताएं की..*

*मन कया है ?*

*अहं कया है ?*

*आत्मा कया है ?*

*सबसे पहले अहं---* आपका जो होने का अहसास है वो अहं है । इसमे आपको जो सवंय की उपस्थिती का अहसास रहता है निरंतर, वो अहं के कारण है ।

*मन*
  इस सवंय के अहसास के बाद जो भी भाव रहती है वो मन है , इसे हृदय भी कहते है इसके चार भाग है ( मन चित बुद्धी और अहंकार ) अहं के साथ ये सदा रहते हैं निरंतर । इसलिय मन पर काबू पाना नामूमकिन है जबतक की अहं को समझा ना जाये । आप जो भी करते है, अहं से ही होता है और जाहां अहं है वहा शत प्रतिशत मन रहता है, चाहे भक्ती हो त्याग हो तप हो बृह्मचार्य हो बैराग नाम जाप हो चितवनी हो या जो भी हो । मन की आयु बहेत ही अल्प होती है अर्थात यह निरंतर बनता और मिटता रहता है, इसका बनना और मिटना अहं की स्थिती के अनूसार है,अर्थात अगर आप सतसंग मे है तो वहां के अनुसार, अगर ध्यान में हैं तो तो वहां के अनुसार, अगर संसार में है तो वहां के अनुसार, प्रेम में है तो वहां के अनुसार, परिवार में हैं तो वहां के अनुसार, भक्ती में हैं तो वहां के अनुसार, चितवनी में है तो वहां के अनुसार या जहां भी आपकी उपस्थिती रहती है मन वही के अनुसार निर्मित हो जाता है ।

*आत्मा---*
आत्मा आनंद है। यह बुद्धि और गुणों से परे है।इसलिए उपस्थित(अहम) स्थिति से इसको समझना लगभग असम्भव है। यह अहम की ज्ञान अवस्था (एकरसता) से प्रतिबिंबित होती है। यह आंतरिक विषय है। इसके प्रतिबिंब के भान को पकड़ कर उसके विपरीत मूल आनंद की खोज करने से कुछ बात बन सकती है।

जिस भी वस्तु मे आपको आनंद की अनुभूति होती है वो आत्मा के कारण है। पर ऐसा बिल्कुल नहीं है कि वो आत्मा का आनंद है। आत्मा का आनंद नहीं होता आत्मा ही आनंद होती है जिसका भास रहता है जिसको खोजना होता है। इसलिए जो भी आनंद तुमने आजतक लिया है वो तिल भर भी नहीं है आत्मा के आगे। इसको खोजना थोड़ा कठिन हो सकता है पर सबसे सरल यही है।इसकी खोज में दासता  नहीं है , स्वतंत्रता है हर बंधनसे। केवल यही खोजने योग्य है केवल इसी की खोज करनी चाहिए। बाकी सब प्रतिबिंब है झूठ है मिथ्या है।अहम है।

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Friday, November 10, 2017

*बोहोत प्रयास के बाद भी मेरा मन परमात्मा में नहीं लगता, क्या करूं ? कृपया समाधान करें ।*

*प्रयास मत करें मन नहीं लगेगा । आजतक किसी का नहीं लगा । जो कहते हैं की मन लगता है वो झूठ कह रहें हैं और जो कहते है मन लगाओ वो तुम्हे भ्रमित कर रहे है*

*मन के दूारा परमात्मा को नही पाया जा लकता*
एक उदाहरण से समझें .. पहले आप (अहम)हो फिर आपका मन है, इसको इस प्रकार समझो की आपका शरीर और उसके हाथ पांव, जैसे शरीर के उप अंग उसके हाथ पांव होते हैं वैसे ही अहम के उप अंग में मन चित बुद्धि आदि हैं .. अब अगर आप सोची की आप तो मजदूरी करो ओर आपका हाथ या पांव घर पर विश्राम कर के आनंदित रहे तो क्या ये सम्भव है ? कयोंकी आपके हाथ पांव आपसे आलग होकर कार्य कैसे करेंगे बताओ कर सकते हैं कया ठीक वैसे ही हम कर रहे हैं हम खुद अहम रूप में प्रकृती के साथ आपनी स्थिती बनाऐ हुये हैं और कह रहे है हमारा मन परमात्मा मे लग जाय ,अरे मन आपका ही है ये वहीं रहेगा जाहां आप हो जैसे आपके हाथ पांव वही है जहा आप हो वैसे ही मन भी है , ये मन परमात्मा में कैसे लगेगा जब इसका कोइ खुदका अस्तितव ही नही है..क्योंकि मै अहम हूं तो मन है, इसमें मन का क्या दोष ? जबतक आप हो तो बाल(मन) उगेंगे ही इनको रोकना या समाप्त करना है तो खुद को समाप्त करदो खुद(अहम) नहीं रहोगे तो बाल उगेंगे ही नहीं..नही ये मन वहीं रहेगा जहां अहम हो । अहम सत्ता का घोतक है ओर परमात्मा आनंद है । सत्ता के लय के पश्चात आनंद है । *आनंद है, आनंद आएगा ऐसा नहीं है* आप अहम नहीं हो तो आप आनंद हो, ओर आप अहम हो तो आप सत्ता हो । अहम के नहीं होने में आनंद है, ओर अहम के होने में माया है सत्ता है, मन आदि सब है,  अब सोचो कितनी मर्खता कर रहे हो कि अहम के होने बाद की स्थिति याने मन को अहम के नहीं होने की स्थिति(आनंद) में लगाना चाहते हो, ये वैसा ही है जैसे आप चाहते हो कि आपकी मृत्यु के बाद की स्थिति को आपका हाथ पहले ही देख ले । खुद रह कर मनको परमात्मा मे लगाने में अनेक जीवन व्यर्थ गवां दिय ..और कह रहे हो की मन परमात्मा में नही लगता ...इसलिय 80 हजार साल समाधी के बाद भी मन वही आया जाहां विशवामित्र की सवंय की स्थिती थी, इसलिय इतनी तपस्या के बाद भी मन नही लगा परमात्मा में .... अरे 80 हजार नही करोडों वर्ष लगादो फिर भी कया होगा ..इसमें मनकी कया गलती इसलिय मन को नही लगाना है अहम समाप्त करना है । *बस यही बात गांठ बांधलो ओर सही दिशा में लग जाओ*


अब उपनिषदों का यह कथन हमारी समझ में आजायेगा और वेद भी कहता यही कहता है..


उपनिषदों का कथन है कि वह ब्रह्म मन तथा वाणी से परे है, अतः उसे इन्द्रियों, मन, वाणी तथा बुद्धि के साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता ।*
( कठो. २/६/)
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ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।।

Thursday, November 9, 2017

*मुक्ति का अर्थ क्या है ? कृपया समझाएं ।*

मुक्ति का अर्थ है आत्मा की परमात्मा के साथ अटूट संगति। दोनों में ऐसी अंतरगता जिसमें द्वैत असंभव हो जाए। परस्पर इस तरह घुल-मिल जाना कि उनमें विलगाव संभव ही न हो। जब ऐसी मुक्ति प्राप्त हो, तब कहा जाता है कि सांसारिक व्याधियों से दूरमन पूरी तरह निस्पृह निर्लिप्त हो चुका है। जैन दर्शन में इस अवस्था को कैवल्य’ कहा गया है। कैवल्य यानी अपनेपन की समस्तअनुभूतियों का त्यागकर ‘केवल वही’ का बोध रह जाना। यह बोध हो जाना कि मैं भी वहीं हूं और एक दिन उसी का हिस्सा बन जाऊंगा।उस समय न कोई इच्छा होगी न आकांक्षा। न कोई सांसारिक प्रलोभन मुझे विचलित कर पाएगा। इसी स्थिति को बौद्ध दर्शन में ‘निर्वाण’ कीसंज्ञा दी गई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-‘बुझा हुआ’। व्यक्ति जब इस संसार को जान लेता है, जब वह संसार में रहकर भी संसार से परे रहने की, कीचड़ में कमल जैसी निर्लिप्तता प्राप्त कर लेता है, तब मान लिया जाता है कि वह इस संसार को जीत चुका है।
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प्रणाम जी

Wednesday, November 8, 2017

*आज संसार में अनेक संप्रदाय व अनेक मत मतांतर हैं, जिनसे भर्म की स्थिति पैदा हो गई है । इन सबमें से सही मार्ग कोनसा है ? या कल्याण का एक मात्र मार्ग कोनसा है ? कृपया बताएं ।*

दूैत को त्याग कर उदूैतमय हो जाना ही सही व एक मात्र मार्ग है , इस अदूैत के कई नाम हैं जैसे- प्रेम, सत्य या सांच, शुद्ध अनन्यता, कैवल्य आदी आदी,
इसके अलावा सब संसारी ग्यान है, दूैत का है फिर चाहे पूरा वेद कंठस्त करलो पूरी वाणी को याद करलो पर दूैत से पीछा नही छूटेगा.. गीता में इस विषय पर बहोत सपष्ट कहा है...


अध्यात्मज्ञान नित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।। (गीता, १३/११)


आत्मा के आधिपत्य में निरन्तर चलना अध्यात्म का आरम्भ है। उसके संरक्षण में चलते हुए परमतत्त्व परमात्मा का प्रत्यक्ष बोध और उसके साथ मिलनेवाली जानकारी ज्ञान है। यही अध्यात्म की पराकाष्ठा है। इसके अतिरिक्त सृष्टि में जो कुछ है अज्ञान है...


*"सांचा साहेब सांचसो पाइये सांचको सांच है प्यारा"*
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प्रणाम जी

Tuesday, November 7, 2017

*विज्ञान में धर्म को स्वीकार नहीं किया जाता, आधुनिक लोग वैज्ञानिक तर्क देकर धर्म को अस्वीकार कर देते है, क्या धर्म और विज्ञान परस्पर विरोधी हैं या इनका आपस में कोई संबंध है ?*

*विज्ञान और धर्म*

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विज्ञान क्षेत्र से धर्म पर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि वह कपोल कल्पनाओं और अंध विश्वासों पर आधारित है। किंवदंतियों को इतिहास और उक्तियों को प्रमाण मानता है। तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने से कतराता है। अस्तु उसकी नींव खोखली है। धर्म, श्रद्धा एक ऐसा ढकोसला है, जिसकी आड़ में धूर्त ठगते और मूर्ख ठगाते रहते हैं। धर्म संप्रदायों ने मानवी एकता पर भारी आघात पहुँचाया है। पूर्वाग्रह, हठवाद एवं पक्षपात का ऐसा वातावरण उत्पन्न किया है, जिसमें अपनी मान्यता सही और दूसरो को गलत सिद्ध करने का अहंकारी आग्रह भरा रहता है। अपनी श्रेष्ठता दूसरे की निकृष्टता ठहराने, अपनी बात दूसरों से बलपूर्वक मनवाने के लिए धर्म के नाम पर रक्त की नदियाँ बहाई जाती रही हैं। अस्तु उससे दूर ही रहना चाहिए.. कट्टरतावादी सामयिक सुधारों की उपेक्षा करते रहते हैं और उनके साथ जुड़े जाने वाली विकृतियों को भी धर्म परंपरा मानने लगते हैं। ऐसी ही विकृत सांप्रदायिकता को लोग ‘धर्म’ की संज्ञा देते हैं। इसलिय लोग धर्म अलगाव करके उसकी उपहास किया जाता है..


धर्म कहकर जिसका उपहास उड़ाया जाता और अनुपयोगी ठहराया जाता है, वह विकृत संप्रदायवाद ही है। आरंभ में संप्रदायों की संरचना भी सदुद्देश्य से ही हुई थी और उसमें बदली हुई परिस्थितियों में परिवर्तन की गुंजायश रखी गई थी। कट्टरतावादी सामयिक सुधारों की उपेक्षा करते रहते हैं और उनके साथ जुड़े जाने वाली विकृतियों को भी धर्म परंपरा मानने लगते हैं। ऐसी ही विकृत सांप्रदायिकता को लोग ‘धर्म’ की संज्ञा देते हैं।


विज्ञान का अर्थ है विशिष्ट ज्ञान—अर्थात ‘विवेक’ है। विज्ञान का लक्ष्य है—सत्य की शोध। यथार्थता के साथ दूरदर्शिता एवं सद्भावना के जुड़ जाने में विवेक दृष्टि बनती है। विज्ञान से तात्पर्य भौतिकी नहीं है।


संसार में रहते हुए अपने कार्य या अपनी परम आवश्यकता को पूर्ण करने के लिय सबसे उत्तम साधन को अपना कर  अपने लक्ष्य को सरलता से प्राप्त करना यही विग्यान है ..यही विवेक है । इसके अतिरिक्त अन्य सभी मजदूरी है, व्यर्थ बोझा उठाना और अपने आपको मूढ़ सिद्ध करने जैसा है । ऎसा विवेक या विग्यान धारण कर अपने आपको परम मार्ग पर चला दें तो सभी कुछ उचित हो जाये, जीवन सार्थक हो जाये ।


विज्ञान का जो प्रयोजन है, उसे हम आधुनिक मनीषियों की कुछ व्याख्याओं के आधार पर और भी अधिक स्पष्टता के साथ समझ सकते हैं।


‘कामन सेन्स ऑफ लाइफ’ ग्रंथ के लेखक जेकोव ब्रोनोवस्की ने विज्ञान को चिंतन का एक समग्र दर्शन माना है और कहा है-‘‘जो चीज काम दे, उसकी स्वीकृति और जो काम न दे, उसकी अस्वीकृति ही विज्ञान है।’’ इस संदर्भ में वे अपनी बात को और भी अधिक स्पष्ट करते हैं-‘‘विज्ञान की यही प्रेरणा है कि हमारे विचार वास्तविक हों, उनमें नई-नई परिस्थितियों के अनुकूल बनने की क्षमता हो, निष्पक्ष हो तो वह विचार भले ही जीवन के, संसार के किसी भी क्षेत्र का क्यों न हो विज्ञान माना जायेगा। ऐसी विचारधारा वैज्ञानिक ही कही जायेगी।’ यही विवेक जाग्रती है यही विग्यान है..
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प्रणाम जी

Friday, November 3, 2017

*जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ।*
*प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई । जिमि खगपति जल कै चिकनाई |*

स्त्ये को जाने बिना वह अंतकरण में प्रतीत (घटित,महसूस, अनुभव) नहीं होती एवं बिना प्रतीत के प्रीत (प्रेम, एकरस, अदुयत) नहीं होती । बिना प्रेम के दृढ़ता से भगति (जुङाव या दो का भाव न होना) नहीं होती । इसलिए सत्य को बिना जाने अदुयेत, एकरसता, या प्रेम सम्भव ही नहीं है ।शुद्ध सत्य को जाने बिना लोग जो भगति करते है उसमे में ओर तू का भाव रखते है, मिलने की इच्छा करते है, विरह में रोते हैं, परमात्मा को अलग मानकर अपनी भक्ति का आधार बनाते है। ऐसे भक्त कभी भी सत्य के करीब नहीं जा सकते वो भक्ति करके भी परमात्मा से ऐसे  अलग रहते है *जैसे जल और चिकनाई परस्पर मिले हुये भी प्रथक ही रहते हैं ।*

इसलिए सत्य को जानना परम आवश्यक है।

*जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग|*
*तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग||*

ओर गहनता में कबीर जी कहते है..

*एक कहूँ तो है नहीं, दो कहूँ तो गारी|*
*है जैसा तैसा रहे, कहे कबीर बिचारी|*

*ज्ञान, प्रेम, सत्य, परमात्मा, आनंद, आत्मा ये सब एक ही हैं*
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