Monday, April 30, 2018

क्या सभी को परमात्मा मिल सकता है

* क्या सभी को परमात्मा मिल सकता है? और यदि मिल सकता है, तो फिर मिल क्यों नहीं जाता?*

 गौतम बुद्ध के पास किसी व्यक्ति ने भी यही पूछा था। उन्होंने कहा था कि जाओ और नगर में पूछकर आओ कि जीवन में कौन क्या चाहता है? वह व्यक्ति घर-घर गया और संध्या को थका-मांदा एक फेहरिस्त लेकर लौटा। कोई यश चाहता था, कोई पद चाहता था, कोई धन, वैभव, समृद्धि, पर मुक्ति का आकांक्षी तो कोई भी नहीं था! बुद्ध बोले थे कि अब बोलो, अब पूछो; परमात्मा तो प्रत्येक को मिल सकता है। वह तो है ही, पर तुम एक बार उस ओर देखो भी तो! हम तो उस ओर पीठ किये खड़े हैं।
यही उत्तर मेरा भी है। परमात्मा प्रत्येक को मिल सकता है, जैसे कि प्रत्येक बीज पौधा हो सकता है। वह हमारी संभावना है, पर संभावना को वास्तविकता में बदलना है। इतना मैं जानता हूं कि बीज को वृक्ष बनाने का यह काम कठिन नहीं है। यह बहुत ही सरल है। बीज मिटने को राजी हो जाए, तो अंकुर उसी क्षण आ जाता है। मैं मिटने को राजी हो जाऊं, तो परमात्मा उसी क्षण आ जाते है। 'मैं' बंधन है। वह गया कि आनंद है।

'मैं' के साथ मैं संसार में हूं, 'मैं' नहीं कि मैं ही आनंद हूं।

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Sunday, April 29, 2018

अंधकार को दूर करने के उपाय

एक प्राचीन लोक।कथा है- उस समय की, जबकि मनुष्य के पास प्रकाश नहीं था, अग्नि नहीं थी। रात्रि तब बहुत पीड़ा थी। लोगों ने अंधकार को दूर करने के बहुत उपाय सोचे, पर कोई भी कारगर नहीं हुआ। किसी ने कहा मंत्र पढ़ो, तो मंत्र पढ़े गये और किसी ने सुझाया कि प्रार्थना करो, तो कोरे आकाश की ओर हाथ उठाकर प्रार्थनाएं की गई। पर अंधकार न गया, सो न गया। किसी युवा चिंतक और आविष्कारक ने अंतत: कहा, ''हम अंधकार को टोकरियों में भर-भरकर गड्ढों में डाल दें। ऐसा करने से धीरे-धीरे अंधकार क्षीण होगा। और फिर उसका अंत भी आ सकता है।'' यह बात बहुत युक्तिपूर्ण मालूम हुई और लोग रात-रात भर अंधेरे को टोकरियों में भर-भरकर गड्ढों में डालते, पर जब देखते तो पाते कि वहां तो कुछ भी नहीं है! ऐसे-ऐसे लोग बहुत ऊब गये। लेकिन, अंधकार को फेंकने ने एक प्रथा का रूप ले लिया और हर व्यक्ति प्रति रात्रि कम से कम एक टोकरी अंधेरा तो जरूर ही फेंक आता था! फिर, एक युवक किसी अप्सरा के प्रेम में पड़ गया और उसका विवाह उस अप्सरा से हुआ। पहली ही रात बहू से घर के बढ़े सयानों ने अंधेरे की एक टोकरी घाटी में फेंक आने को कहा। वह अप्सरा यह सुन बहुत हंसने लगी। उसने किसी सफेद पदार्थ की बत्ती बनाई, एक मिट्टी के कटोरे में घी रखा और फिर किन्हीं दो पत्थरों को टकराया। लोग चकित देखते रहे- आग पैदा हो गई थी, दीया जल रहा था और अंधेरा दूर हो गया था! उस दिन से फिर लोगों ने अंधेरा फेंकना छोड़ दिया, क्योंकि वे दिया जलाना सीख गये थे। लेकिन जीवन के संबंध में हममें से अधिक अभी भी दीया जलाना नहीं जानते हैं। और, अंधकार से लड़ने में ही उस अवसर को गंवा देते हैं, जो कि अलौकिक प्रकाश में परिणित हो सकता है।

शुभ को पाने की आकांक्षा से भरो, तो अशुभ अपने से छूट जाते हैं। और, जो अपने को पापी मान कर विषय वासनाओं से लड़कर खुदको शुद्ध करने में लगे रहते हैं वे सारी उम्र अपने पापों की टोकरी ही ढोते रहते हैं, ओर वे उनमें ही और गहरे धंसते जाते हैं। जीवन को आत्मिक आनंद की ओर लगाओ, आनंद की ओर चलो, विषयों के विष्य में मत सोचो, फिर विषय अंधेरे के भांति समाप्त हो जाते हैं। आत्मिक ज्ञान का दीपक जलाने से विषय रूपी अंधकार अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं, आध्यात्मिक सफलता का स्वर्ण सूत्र यही है।

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Friday, April 27, 2018

छोटी -सी अनुभूति


एक आत्म ज्ञानी के व्याख्यानों में एक बूढ़ी धोबिन निरंतर देखी जाती थी। लोगों को हैरानी हुई : एक अपढ़ गरीब औरत संत की गंभीर वार्ताओं को क्या समझती होगी! किसी ने आखिर उससे पूछ ही लिया कि उसकी समझ में क्या आता है? उस बूढ़ी धोबिन ने जो उत्तर दिया, वह अद्भुत था। उसने कहा, ''मैं जो नहीं समझती, उसे तो क्या बताऊं। लेकिन, एक बात मैं खूब समझ गई हूं और पता नहीं कि दूसरे उसे समझे हैं या नहीं। मैं तो अपढ़ हूं और मेरे लिए एक ही बात काफी है। उस बात ने मेरा सारा जीवन बदल दिया है। और वह बात क्या है? वह है कि मैं भी प्रभु से दूर नहीं हूं, एक दरिद्र अज्ञानी स्त्री से भी प्रभु दूर नहीं है। प्रभु निकट है- निकट ही नहीं, स्वयं में है। यह छोटा सा सत्य मेरी दृष्टि में आ गया है और अब मैं नहीं समझती कि इससे भी बड़ा कोई और सत्य हो सकता है!'' जीवन बहुत तथ्य जानने से नहीं, किंतु सत्य की एक छोटी -सी अनुभूति से ही परिवर्तित हो जाता है। और, जो बहुत जानने में लग रहते हैं, वे अक्सर सत्य की उस छोटी-सी चिंगारी से वंचित ही रह जाते हें, जो कि परिवर्तन लाती है और जीवन में बोध के नये आयाम जिससे उद्घटित होते हैं।
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Thursday, April 26, 2018

आत्मा को कैसे पाया जाए?

आत्मा को कैसे पाया जाए?


प्रश्न-  'आत्मा को कैसे पाया जाए? ब्रह्मं-प्राप्ति कैसे हो सकती है?'


आत्मा को पाने की बात ही गलत है। वह प्राप्तव्य नहीं है। वह तो नित्य प्राप्त है। वह कोई वस्तु नहीं, जिसे लाना है। वह कोई लक्ष्य नहीं, जिसको साधना है। वह भविष्य में नहीं है कि उस तक पहुंचना है। वह है। 'है' का ही वह नाम है। वह वर्तमान है-नित्य वर्तमान। उसमें अतीत और भविष्य नहीं है। उसमें 'होना' नहीं है। वह शुद्ध नित्य अस्तित्व है।

फिर खोना कैसे हो गया है ?

या खोने के आभास और पाने की प्यास कहां आ गयी है?

मैं को समझ लें तो जो आत्मा खोई नहीं जा सकती है, उसका खोना समझना आ सकता है। 'मैं' आत्मा नहीं है। न 'स्व' आत्मा है, न 'पर' आत्मा है। यह द्वैत वैचारिक है। यह द्वैत मन में है। मन आभास सत्ता है। वह कभी वर्तमान में नहीं होता है। वह या तो अतीत में होता है, या भविष्य में। न अतीत की सत्ता है, न भविष्य की। एक स्मृति में है, एक कल्पना में है। सत्ता में दोनों नहीं हैं। 

इसअसत्ता से 'मैं' का जन्म होता है। 'मैं' विचार की उत्पत्ति है। काल भी विचार की उत्पत्ति है। विचार के कारण, 'मैं' के कारण, आत्मा आवरण में है। वह है, पर खोयी मालूम होती है। फिर यही 'मैं' यही विचार-प्रवाह इस तथाकथित खोयी आत्मा को खोजने चलता है। यह खोज असंभव है, क्योंकि इस खोज से 'मैं' और पुष्ट होता है- सशक्त होता है।

'मैं' के द्वारा आत्मा को खोजना, स्वप्न के द्वारा जागृति को खोजने जैसा है। *'मैं' के द्वारा नहीं, 'मैं' के विसर्जन से उसको पाना है।*  स्वप्न के जाते ही जागृति है, 'मैं' के जाते ही आत्मा है। आत्मा आनंद है, क्योंकि पूर्णता है। उसमें 'स्व',  या 'पर' नहीं है। वह अद्वैत है। वह कालातीत है। विचार के, मन के जाते ही जाना जाता है कि उसे कभी खोया नहीं था।

इसलिए उसे खोजना नहीं है। खोज छोड़नी है और खोजने वाले को छोड़ना है। खोज और खोजी के मिटते ही खोज पूरी हो जाती है। 'मैं' को खोकर उसे पा लिया जाता है।

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Wednesday, April 25, 2018

मृत्यु के बाद परमधाम चला जाऊंगा ?

*अगर मै पूरी जिंदगी भक्ति करूं तो क्या मृत्यु के बाद परमधाम चला जाऊंगा ?*

जो लोग सोचते है की नाम जाप, भजन, भक्ती तिर्थ, तप, ध्यान आदी से मृत्यु के बाद वो किसी आनंद के लोक या परमधाम में चले जायेंगे तो वो धोर अंधकार में हैं | उस आनंद की स्थिती को पहले ही पा कर उस पद में मृत्यु से पहले ही लय होना होगा  तभी शरीर समाप्ती के पश्चात वह स्थिती बनी रह सकती है | अन्यथा अनंनत जन्मों के लिय धोर अंधकार है..
*उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है जो उसी प्राण रूप में गतिमान है। उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो मानते हैं, अमरत्व को प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व सूर्य तपते हैं और इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने कामों में लगे रहते हैं। शरीर के नष्‍ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।'।। 2-8-1।।-तैत्तिरीयोपनिष*
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Tuesday, April 24, 2018

बैरागी होने से लाभ???

*मेरे मन में कई बार ये धारणा आती है की मै बैरागी होकर जंगल, पहाड़, वृन्दावन, या गंगा तट पर जाकर रहूं ओर निर्विघ्न अपनी साधना करूं, क्या इस मार्ग से कल्याण सम्भव है?*

तुम जहां भी रहोगे, जो भी बनके रहोगे तो ये होनापन तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा, सही मार्ग में कोई विघ्न नहीं होता, ओर जिसमें तुम्हें विघ्न नज़र आता है वो मार्ग सही नहीं है। तुम्हे अपने ओर साधना में को विघ्न नज़र आता है वो केवल इसलिए है कि तुम हो ओर साधना है। ओर जहां भी जाओगे तुम रहोगे ओर वहां का वातावरण रहेगा, तो वहां भी नई परिस्थितियां मिलेंगी, ओर अगर तुम रहोगे तो निश्चित है की विचलित भी रहोगे, फिर क्या फ़र्क है यहां में ओर वहां में। समस्या का मुख्य कारण परिस्थितियां या वातावरण नहीं है, मुख्य कारण है तुम्हारा होना या अहम। जहां भी जाओगे या तो बैरागी रहोगे या संत या गुरु या चेला या भगत या दास या तुच्छ या महान, पर रहोगे जरूर कुछ ना कुछ। बस यही मूल बंधन है, जिसको खोलने तुम जाओगे अज्ञानवश ओर बन्धन बना लोगे।
मूल तत्व है आत्मतत्व बोध जिसके बाद ये ग्रहस्त, बैरागी, संत आदि सब तो रहेगा पर वो तुम नहीं रहोगे।

शास्त्रों के अनुसार...
यदि मिट्टी और भस्म लपेटने से ही मनुष्य मुक्त हो जाता तो फिर क्या इस मिट्टी और भस्म में नित्य पड़े रहने वाला कुत्ता क्यों नहीं मुक्त हो जाता?
तिनका, पत्ता और जल का आहार करने वाले और निरंतर जंगल में ही रहने वाले मनुष्य यदि तपस्वी हो जायेँ, तो फिर क्या वे गीदड़, चूहे और हिरण आदि तपस्वी क्यों नहीं हो सकते?
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते?
ककड़-पत्थर खाने वाला कबूतर और धरती के जल को कभी न पीने वाले चातक क्या व्रती हो सकते हैं?
इसलिये हे सत्यमार्गीयों ! ये सब कर्म तो लोक को प्रसन्न करने वाले हैं, परमआनंद का कारण तो  केवल ‘परमात्मातत्त्वज्ञान’ ही है...
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प्रणाम जी

Monday, April 23, 2018

वास्तविक सूर्य

एक विद्वान था। उसने बहुत अध्ययन किया था। वेदज्ञ था और सब शास्त्रों में पारंगत। अपनी बौद्घिक उपलब्धियों का उसे बहुत अहंकार था। वह सदा ही एक जलती मशाल अपने हाथ में लेकर चलता था। रात्रि हो या दिन यह मशाल उसके साथ ही होती थी। और, जब कोई उसका कारण उससे पूछता, तो वह कहता था, ''संसार अंधकारपूर्ण है। मैं इस मशाल को लेकर चलता हूं, ताकि कुछ प्रकाश तो मनुष्य को मिल सके। उनके अंधकारपूर्ण जीवन-पथ पर इस मशाल के अतिरिक्त और कौन सा प्रकाश है?'' एक दिन एक भिक्षु ने उसके ये शब्द सुनें। सुनकर वह भिक्षु हंसने लगा और बोला, ''मेरे मित्र, अगर तुम्हारी आंखें सर्वव्यापी प्रकाश-सूर्य के प्रति अंधी हैं, तो संसार को अंधकारपूर्ण तो मत कहो। फिर, तुम्हारी यह मशाल सूर्य के गौरव में और क्या जोड़ सकेगी? और, जो सूर्य को नहीं देख पा रहे हैं, क्या तुम सोचते हो कि वे तुम्हारी इस क्षुद्र मशाल को देख सकेंगे?''
 इस समय तो एक नहीं, बहुत-सी मशालें आकाश में जली हुई दिखाई पड़ रही हैं। राह-राह पर मशालें हैं- धर्मो की, संप्रदायों की, विचारों की, वादों की। इन सब का दावा यही है कि उनके अतिरिक्त और कोई प्रकाश ही नहीं है और वे सभी मनुष्यों के अंधकारपूर्ण पथ को आलोकित करने को उत्सुक हैं। लेकिन सत्य यह है कि उनके धुएं में मनुष्य की आंखें सूर्य को भी नहीं देख पा रही हैं। इन सब मशालों को बुझादो या वैसे ही रहने दो परंतु उनके पार भी देखने का प्रयास करो, ताकि सूर्य के दर्शन हो सकें। मनुष्य निर्मित कोई मशाल नहीं, आत्मा या परमात्मा रूपी सूर्य ही वास्तविक और एकमात्र प्रकाश है।

आंखें भीतर ले जाओ और सूर्य को देखो, जो कि स्वयं में है। उस प्रकाश के अतिरिक्त और कोई प्रकाश नहीं है। उसकी ही शरण जाओ। उससे भिन्न और शरण जो पकड़ता है, वह स्वयं में बैठे परमात्मा का अपमान करता है।

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Sunday, April 22, 2018

तुम प्रेम सेवा से पाओगे पार" का अर्थ

*"तुम प्रेम सेवा से पाओगे पार" का अर्थ*

जैसा आप चाहते हो कि दूसरे हों, वैसा अपने को बनावें। उनको बदलने के लिए स्वयं को बदलना आवश्यक है। अपनी बदल से ही आप उनकी बदलाहट का प्रारंभ कर सकते हैं।

जो स्वयं जाग्रत है, वही केवल अन्य का सहायक हो सकता है। जो स्वयं निद्रित है, वह दूसरों को कैसे जगाएगा? और, जिसके भीतर स्वयं ही अंधकार का आवास है, वह दूसरों के लिए प्रकाश का स्रोत कैसे हो सकता है? निश्चय ही दूसरों की सेवा स्वयं के सृजन से ही प्रारंभ हो सकती है। पर-हित स्व-हित के पूर्व असंभव है। कोई मुझसे पूछता था, ''मैं सेवा करना चाहता हूं।'' मैंने उससे कहा, ''पहले स्वयंसाधना तब सेवा। क्योंकि, जो तुम्हारे पास नहीं है, उसे तुम किसी को कैसे दोगे? स्वयंसाधना से पाओ, तभी सेवा से बांटना हो सकता है।'' सेवा की इच्छा बहुतों में है, पर स्व-साधना और आत्म-सृजन की नहीं। यह तो वैसा ही है कि जैसे कोई बीज तो न बोना चाहे, लेकिन फसल काटना चाहे! ऐसे कुछ भी नहीं हो सकता है। किसी व्यक्ति ने बुद्ध से कहा, ''मैं सबसे प्रेम और सबकी सेवा के लिए क्या करूं?'' बुद्ध ने एक क्षण प्रगाढ़ करुणा से उसे देखा। उनकी आंखें दयार्द्र हो आई। उन्होंने एक खाली पात्र उसे दिया ओर कहा की जाओ ओर इसमें से सबको पानी पिला के तृप्त करो..वह एक क्षण तो सोचने लगा, लेकिन फिर बुध ने उसे सब समझा दिया *की जिस प्रकार खाली पात्र से कोई पानी नहीं पिला सकता उसी प्रकार जिसको स्वयं प्रेम का बोध ना हो वो भी किसी को प्रेम का मूल भाव वहीं बता सकता, ओर सेवा तो बोहोत दूर की वस्तु है*। यह भाव हमसे ही कहा गया है। सब करना स्वयं पर और स्वयं से ही प्रारंभ होता है। स्वयं के पूर्व जो दूसरों के लिए कुछ करना चाहता है, वह भूल में है। स्वयं को जो निर्मित कर लेता है, स्वयं जो स्वस्थ हो जाता है, उसका वैसा होना ही सेवा है।

सेवा की नहीं जाती। वह तो प्रेम से सहज ही निकलती है। और, प्रेम? प्रेम आनंद का स्फुरण है। अंतस में जो आनंद है, आचरण में वही प्रेम बन जाता है।

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Saturday, April 21, 2018

अंदर और बाहर का अर्थ

*अंदर की ओर मुड़ना या "पहले आप पहचानो" का अभिप्राय क्या है ?*

*अंदर और बाहर का कया अर्थ है ?*

अंदर से अभीप्राय शरीर के अंदर से नही है..
अंदर का अर्थ है,आत्मा, सवंय, आनंद, परमात्मा |

बाहर का अर्थ है, अदंर से अलग जो भी है वो बाहर है जैसे,शरीर, अंतःकरण, तीन गुण, हृदय, सत्ता, ये आनंद की सत्ता होने के कारण इसमें आनंद भाषित होता है पर है नही |

*अविद्या कया है ?*

बाहर को ही अंदर समझना अविद्या है अग्यान है..

*विद्या कया है ?*

अंदर व बाहर के भेद व अभेद को जान्ना ही विद्या या ग्यान है...
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Friday, April 20, 2018

गुरु की पूजा क्या है..

*मै अपने गुरु की फोटो सदा अपने साथ रखता हूं, उनकी फोटो की रोज पूजा करता हूं व सदा गुरु के ध्यान करता हूं, इसका मेरी आध्यात्मिक प्रगति पर क्या असर होगा ? कृपया बताएं ।*

वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो शरीर मल-मूत्र बनाने की एक मशीन ही है । इसको उत्तम-से-उत्तम भोजन या भगवान् का प्रसाद खिला दो तो वह मल बनकर निकल जाएगा तथा उत्तम-से-उत्तम पेय या गंगाजल पिला दो तो वह मूत्र बनकर निकल जाएगा । जब तक प्राण हैं, तब तक तो यह शरीर मल-मूत्र बनाने की मशीन है और प्राण निकल जाने पर यह मुर्दा है, जिसको छू लेने पर स्नान करना पड़ता है । वास्तव में यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है । इसमें जो वास्तविक तत्व (चेतन) है, उसका चित्र तो लिया ही नहीं जा सकता । चित्र लिया जाता है तो उस शरीर का, जो प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है । इसलिए चित्र लेने के बाद शरीर भी वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेते समय था । इसलिए चित्र की पूजा तो असत् (‘नहीं’)- की ही पूजा हुई । चित्र में चित्रित शरीर निष्प्राण रहता है, अतः हाड़-मांसमय अपवित्र शरीर का चित्र तो मुर्दे का भी मुर्दा हुआ ।

हम अपनी मान्यता से जिस पुरुष को महात्मा कहते हैं, वह अपने शरीर से सर्वदा सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से ही महात्मा है, न कि शरीर से सम्बन्ध रहने के कारण । शरीर को तो वे मल के समान समझते हैं । अतः महात्मा के कहे जाने वाले शरीर में मोह करना, मल का मोह करना हुआ । क्या यह उचित है ?  महात्मा कहा जाने वाला शरीर पाञ्चभौतिक शरीर होने के कारण जड़ एवम् विनाशी होता है ।
यदि महात्माओं के हाड़-मांसमय शरीरों की तथा उनके चित्रों की पूजा होने लगे तो इससे पुरुषोत्तम परमात्मा की ही पूजा में बाधा पहुँचेगी, जो के सिद्धान्तों से सर्वथा विपरीत है । महात्मा तो संसार में लोगों को परमात्मा की ओर लगाने के लिए आते हैं, न कि अपनी ओर लगाने के लिए । जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है । वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं ..

**इसलिय शरीरों का,शरीरों के चित्रो का,स्थानों का व मूर्तीयों के चित्रो का मोह आपकी आन्नयता का वध करता है ,एक मात्र पूर्ण चेतन तत्व को ही धारण करना अन्नयता है...अन्यथा आप अन्नय साधना नही कर रहे है सावधान **
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प्रणाम जी

Thursday, April 19, 2018

साधु और चोर के बीच का भेद

*आजकल साधु और चोर के बीच का भेद समझना बोहोत विकट हो गया है, जिसको साधू समझते हैं वो चोर निकलते है, इसका क्या समाधान हो ?*

वास्तव में न तो कोई चोर होता है और न कोई साधु। यह सब त्रिगुणात्मक माया के मान्यता रूपी प्रभाव से ही होता है। बिना आत्म बोध के चोर ओर साधु सब एक ही दूव्यत के प्रयायेवाची नाम है, हम भी उसी का हिस्सा हैं जब तक आत्मबोध नहीं हो जाता, इसलिए इसलिए किसी को चोर या साधु कहना दोनों ही अर्थ हीन बाते हैं।

प्रकृती सदा प्रिवर्तनशील है |इसमें हुय प्रिवर्तन को ही सत्व, रज और तम आदी गुणों के माध्यम से जीव को असत में सत्य का भ्रम होता है व इसी में त्रिगुणात्मक रस ग्रहण कर अच्छे बुरे की कल्पना करके अपनी माया का निर्धारण सवंय करता है व उसी में उलझा रहता है | अपने निर्धारण के अनुसार ही आत्मा परमात्मा व गूरू की असत व त्रिगुणात्मक व्याख्या बना लेता है  ... इसलिय इस आडम्बर में वे सभी फसे है जिनको आत्मबोध नहीं है।
संगीत की कलाओं, व्याकरण आदि सभी प्रकार की विद्याओं तथा ज्ञान की अनेक प्रकार की शाखाओं (संप्रदाय) ये सभी दूव्यत का ही हिस्सा है।
  अदूैत से रहित शुष्क ज्ञान और भौतिकवादी संगीत जीवन में शाश्वत आनन्द की प्राप्ति नहीं करा सकते हैं। अदूैत रस में डूबकर ही सत्व, रज और तम से मुक्त होना सम्भव है....
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प्रणाम जी

Wednesday, April 18, 2018

में जीवन मृत्यु से मुक्त हो जाऊं

*कृपया ऐसा कोई उपाय बताएं कि में जीवन मृत्यु से मुक्त हो जाऊं, मुझे बार बार मृत्यु का सामना ना करना पड़े ।*

मृत्यु से घबराकर हमने परमात्मा का अविष्कार कर लिया है । भय पर आधारित परमात्मा से असत्य और कुछ भी नहीं है। सारी उम्र मृत्यु के भय में अपना परमात्मा बना के उसके सहारे जीवन बिता देते हो, झूठ से बचने के लिए झूठ का सहारा लेते हो तो शत प्रतिशत तुम फसने वाले हो झूठे मृत्यु के जाल में क्योंकि अंधेरा अंधेरे का इलाज नहीं है । तुम मरोगे नहीं, यही सत्य है, यही सत्य का पहला कदम है । क्योंकि अगर तुम मर जाते तो जो तुम आज हो ये कोन है ?

समाप्त होने के बाद क्या तुम दोबारा वन गए ? नहीं, 

जो समाप्त हुआ था वो दोबारा नहीं बना, ओर जो समाप्त नहीं हुआ था वहीं आज मृत्यु से डर रहा है । जिसकी मृत्यु नहीं हुई थी, जो आज है, वह कल भी रहेगा, फिर झूठे भय में क्यों झूठ का सहारा लेकर झूठ का जाल बना कर उसमे उलझते हो । तुम नहीं मरोगे ये सत्य है, अब इसी सत्य से अपना सफर शुरू करो । सत्य को धारण करके सत्य को उपलब्ध हो जाओ । नहीं तो झूठे मृत्यु का भय दिखा कर कोई भी पाखंडी तुम्हे अपना दास बना लेगा । जैसे अनेक लोगों को बना रखा है ।

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Tuesday, April 17, 2018

सही मार्ग कोनसा है ?

*आज संसार में अनेक संप्रदाय व अनेक मत मतांतर हैं, जिनसे भर्म की स्थिति पैदा हो गई है । इन सबमें से सही मार्ग कोनसा है ? या कल्याण का एक मात्र मार्ग कोनसा है ? कृपया बताएं ।*

दूैत को त्याग कर उदूैतमय हो जाना ही सही व एक मात्र मार्ग है , इस अदूैत के कई नाम हैं जैसे- प्रेम, सत्य या सांच, शुद्ध अनन्यता, कैवल्य आदी आदी,
इसके अलावा सब संसारी ग्यान है, दूैत का है फिर चाहे पूरा वेद कंठस्त करलो पूरी वाणी को याद करलो पर दूैत से पीछा नही छूटेगा.. गीता में इस विषय पर बहोत सपष्ट कहा है...

अध्यात्मज्ञान नित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।। (गीता, १३/११)

आत्मा के आधिपत्य में निरन्तर चलना अध्यात्म का आरम्भ है। उसके संरक्षण में चलते हुए परमतत्त्व परमात्मा का प्रत्यक्ष बोध और उसके साथ मिलनेवाली जानकारी ज्ञान है। यही अध्यात्म की पराकाष्ठा है। इसके अतिरिक्त सृष्टि में जो कुछ है अज्ञान है...

*"सांचा साहेब सांचसो पाइये सांचको सांच है प्यारा"*
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प्रणाम जी

Monday, April 16, 2018

सही मार्ग

*सर्वविदित है कि आनंद ही ब्रह्म है, ओर ये भी सर्वविदित है कि बाह्य मार्ग से नहीं मिलेगा, तो शुरुआत कैसे करें ? मैं ध्यान करता हूं कृपया इसी मार्ग में मार्ग दर्शन करें ।*

ध्यान ही प्राथमिक ओर उचित मार्ग है, पर कभी भी मन की कल्पना का ध्यान ना करें, किसी भी व्यक्ति, स्थान या मंत्र का ध्यान न करें, किसी भी देवी देवता, परमात्मा, या आत्मा का रूप बना कर ध्यान न करें । मन से परमधाम न बनाएं, न आत्मा का रूप बनाएं न परमात्मा का । ये सब मन का खेल है ।

*तो क्या करें*

ध्यान में दो भाव होते हैं.. अनुभव और आनंद |
ध्यान में जो बाहर या अंदर दिख रहा है वो सब ध्यान में होने वाले अनुभव हैं..ये सब मिथ्या है..मनका खेल है..यह बाह्य विषय है..

और जो ध्यान में आनंद महसूस होता है वह आपका आन्तरिक विषय है.. यही सत्य है , यही पकड़ना है, यही ध्यान का उदेश्य है..इसी में आगे बढ़ोगे तो सवंय का ध्यान होगा यही चितवनी है..
ध्यान में मन से चित्र बना कर समझते हो कि आनंद उसी में से आ रहा है और आनंद की सही दिशा की खोज नहीं करते कभी भी ।

यह भेद ना जान पाने के कारण हम ध्यान में होने वाले अनुभव में ही आनंद को आरोपित कर लेते है और आत्मिक विषय से वंचित रह जाते हैं..
*आनंद को मित्थया में ही आरोपित करके मित्थया में ही आनंद ढूंडने में जन्म गवा देते है..*
खोज सही रखो, केवल आनंद पकडो जो तुम सदा से चाहते हो.. *पर खोज तभी समाप्त होगी जब खोजी नहीं रहेगा*
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Sunday, April 15, 2018

'मैं' की बाधा

एक साधु किसी गांव से गुजरता था। उसका एक मित्र-साधु भी उस गांव में था। उसने सोचा कि उससे मिलता चलूं। रात आधी हे रही थी, फिर भी वह मिलने गया। एक बंद खिड़की से प्रकाश को आते देख उसने उसे खटखटाया। भीतर से आवाज आई, 'कौन है?' उसने यह सोचा कि वह तो अपनी आवाज से ही पहचान लिया जावेगा, कहा, 'मैं।' फिर भीतर से कोई उत्तर नहीं आया। उसने बार-बार खिड़की पर दस्तक दी उत्तर नहीं आया। ऐसा ही लगने लगा कि जैसे कि वह घर बिलकुल निर्जन है। उसने जोर से कहा, 'मित्र तुम मेरे लिये द्वार क्यों नहीं खोल रहे हो और चुप क्यों हो?' भीतर से कह गया, 'यह कौन ना समझ है, जो स्वयं को 'मैं' कहता है, क्योंकि 'मैं' कहने का अधिकार सिवाय परमात्मा के और किसी को नहीं है।' प्रभु के द्वार पर हमारे दुआरा लगाया हुआ 'मैं' का ही ताला है। जो उसे तोड़ देते हें, वे पाते हैं कि द्वार तो सदा से ही खुले थे!

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Saturday, April 14, 2018

क्या यमराज सच में ही होता हैं ??

क्या यमराज सच में ही होता हैं ??
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एक शब्द में कहें तो दुयेत का दूसरा नाम यम है
*यमराज* यम का अर्थ है "जोडना" या "दो" अर्थात दुयत, हमारा माया के साथ योग से माया हमपर राज करने लगती है यही यम का राज है आर्थात यमराज इसके कई पार्षद है जैसे मन, चित, बुद्धि, अहंकार इन्द्रियां आदी. इन सबके वशिभूत होकर जीव यमराज से संयोग करता है या यूं कहें कि यमराज के साथ संयोग से ही उसके पार्षद जीव को पकड़ लेते है...
यमराज का वाहन भैसा बताया गया है जो काल का प्रतीक है अर्थात माया काल से चलायमान है या यूं कहें की माया याने यम का वाहन काल याने भैंसा है..जो बना है वो मिटेगा यही काल है इसी काल रूपी भैंसे की थ्योरी पर माया याने यमराज विराजमान है ...

*यमराज का रंग नीला कहा गया है* ये हमारी परकृती के साथ स्थिती का रंग है इसको आप ध्यान में बडी आसानी से देख सकते हैं.. अर्थात ध्यान में हमें कई बार जो नीला रंग दिखाई देता है वह हम पर यम याने माया का राज या हमारी माया या पृकृती के सात स्थिती को दर्शाता है अर्थात ध्यान में दिखने वाला नीला रंग ही हमारा यमराज है..
यमराज का दूसरा नाम धर्मराज भी है , अर्थात जीव की प्रकृती से संयोग की मान्यता से उसे अनेक धर्मों का पालन करना पडता है जैसे पूत्र धर्म, पिता धर्म, राज धर्म आदि आदि.. यही प्रकृती से संयोग की मान्यता से अनेक धर्मों की हमारी दासता या धर्मों की हमपर सत्ता या राज ही धर्मराज है.. प्रकृती से संयोग याने यमराज से ही हम पर अनेक धर्मों का राज होता है अर्थात यमराज का दूसरा नाम ही धर्मराज है..
सर्व धर्मान परित्यज्य माम् एकम सरणं व्रज : I 
अहम त्वाम सर्व पापेभ्यो मोक्ष्य इस्यामि माँ शुच :II (भ.गी:अ १६,श्लो६६)

यमराज को गदाधारी दर्शाने का भाव उसे बलवान दिखाने से है.. जैसे हनुमान और भीम को बलशाली व गदाधारी कहा गया है, प्रतेक बलवान को गदाधारी दर्शाया जाता है..

यमराज के गुप्तचर नाम श्रवण कहा गया है.  श्रवण का शाब्दिक अर्थ सुन्ना होता है और मूल अर्थ ग्रहण करना है अर्थात जो भी हम गरहण करते है उस से हमारी प्रकृती या माया (दुवैतवाद)के साथ स्थिती का पता चलता है..

*चित्रगुप्त* चित्रगुप्त का अर्थ है जो चित्र या दृष्य गुप्त रूप से विराजमान हैं .. ये हमारा चित है ,चित ही चित्रगुप्त है , हमारे अनंन्त जन्मो के कर्म संसकार या चित्र रूप में शुषुप्त मन याने चित में गुप्त रूप से विराजमान रहते हैं, इन्हि चित के गुप्त संग्रहो को चित्र गुप्त कहते है इसमें आपके अनंन्त जनमों का लेखा जोखा या संसकार व्याप्त है जो प्रारब्द के रूप में हमें मिलते हैं... यही हमारे कर्मों के फल के रूप है...
ये गहन्ता की पेचितगी आमजन के लिय समझपाना कठीन है इसलिय पुराणो में इसे मूर्तिमान करके कथारूप मे दर्शादिया गया..
*यमराज और नचिकेता कि कथा का सार इसी भाव से समझ आ जायगा*

* जब जीव का संयोग परमात्मा से हो जाता है तो वह दो या दूैत या यम के बन्धन से मुक्त हो सकता है*
*याने केवल अदैत के दूारा*

ध्यान रहे दूैत में स्थित रहे तो यमराज याने दुयत या माया तुम्है धसीट कर ले जायेगा..
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प्रणाम जी