*आजकल साधु और चोर के बीच का भेद समझना बोहोत विकट हो गया है, जिसको साधू समझते हैं वो चोर निकलते है, इसका क्या समाधान हो ?*
वास्तव में न तो कोई चोर होता है और न कोई साधु। यह सब त्रिगुणात्मक माया के मान्यता रूपी प्रभाव से ही होता है। बिना आत्म बोध के चोर ओर साधु सब एक ही दूव्यत के प्रयायेवाची नाम है, हम भी उसी का हिस्सा हैं जब तक आत्मबोध नहीं हो जाता, इसलिए इसलिए किसी को चोर या साधु कहना दोनों ही अर्थ हीन बाते हैं।
प्रकृती सदा प्रिवर्तनशील है |इसमें हुय प्रिवर्तन को ही सत्व, रज और तम आदी गुणों के माध्यम से जीव को असत में सत्य का भ्रम होता है व इसी में त्रिगुणात्मक रस ग्रहण कर अच्छे बुरे की कल्पना करके अपनी माया का निर्धारण सवंय करता है व उसी में उलझा रहता है | अपने निर्धारण के अनुसार ही आत्मा परमात्मा व गूरू की असत व त्रिगुणात्मक व्याख्या बना लेता है ... इसलिय इस आडम्बर में वे सभी फसे है जिनको आत्मबोध नहीं है।
संगीत की कलाओं, व्याकरण आदि सभी प्रकार की विद्याओं तथा ज्ञान की अनेक प्रकार की शाखाओं (संप्रदाय) ये सभी दूव्यत का ही हिस्सा है।
अदूैत से रहित शुष्क ज्ञान और भौतिकवादी संगीत जीवन में शाश्वत आनन्द की प्राप्ति नहीं करा सकते हैं। अदूैत रस में डूबकर ही सत्व, रज और तम से मुक्त होना सम्भव है....
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प्रणाम जी
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