एक व्यक्ति ने पूछा, 'यह परमात्मा या सत्य की तलाश कहीं भ्रम तो नहीं है? पहले में आशा से भरा था, पर फिर धीरे-धीरे निराश होता जा रहा हूं।'
मैंने कहा, 'आनंद की तलाश भ्रम ही है, क्योंकि परमात्मा को खोजने का प्रश्न ही नहीं उठता। वह सदा ही उपस्थित है। हम ओर वो इतने समीप है जितनी कि शहद के करीब मिठास,
पर फ़र्क इतना है कि उसेदेख सके, ऐसी आंखें बंद हैं, ओर जिन आंखो से वो दिखता नहीं उन आंखो को ओर शक्तिशाली बना रहे हैं, प्रति क्षण । इसलिए असली खोज उस दृष्टिं को खोलने की है।
'एकअंधा आदमी था। वह सूरज को खोजना चाहता था। पर वह खोज गलत थी। सूरज तो है ही, *आंखें खोजनी है* । आंखें पाते ही सूरज मिल जाता है। साधरणत: परमात्मा को खोजने वाला, सीधे परमात्मा को खोजने में लग जाता है। वह अपनी आंखों का विचार ही नहीं करता है। ओर अंत में परिणाम स्वरूप निराशा ही हाथ लगती है। सत्य विपरीत है। असली प्रश्न परिवर्तन का है। मैं जैसा हूं, मेरी आंखें जैसी हैं, वही मेरे ज्ञान की और दर्शन की सीमा है। मैं बदलूं, मेरी आंखें बदलें, मेरी चेतना बदले, तो जो भी अदृश्य है, वह दृश्य हो जाता है। और फिर जो अभी हम देख रहे हैं, उसकी ही गहराई में परमात्मा उपलब्ध हो जाता है। संसार में ही वह उपलब्ध हो जाता है। इसलिए मैं कहता हूं : धर्म परमात्मा को पाने का नहीं, वरन् नई दृष्टिं, नई चेतना पाने का विज्ञान है। वह तो है ही, हम उसमें ही खड़े हैं, उसमें ही जी रहे हैं। पर आंखें नहीं हैं, इसलिए सूरज दिखाई नहीं देता है। ध्यान देना सूरज को नहीं, आंखों को खोजना है।
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