सिर्फ अपने शरीर को कष्ट देने से और किसी जंगल में अकेले में कठिन तपस्या करने से हमें आत्मआनंद की प्राप्ति नहीं होगी।
हमें आत्मआनंद की प्राप्ति सिर्फ आत्मज्ञान के द्वारा प्राप्त हो सकती है। लम्बी यात्रा पर जाने से या कठिन व्रत रखने से हमें परम ज्ञान अथवा आत्मआनंद प्राप्त नहीं होगा।
चाहे हम योग की राह पर चलें या हम अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना ही बेहतर समझें, यदि हमने ये बात जान ली कि आनंद कहीं बाहर से नहीं आना, आनंद हमारे अंदर ही है, तो हमें सदैव आत्मआनंद प्राप्त होगा कयोंकी एकमात्र आत्मा व परमात्मा ही आनंद है अर्थात आप स्वयं,आनंद और बृह्म ये सब एक है...
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प्रणाम जी
Sunday, September 30, 2018
आनंद कहां है
Friday, September 28, 2018
मृत्यु क्या है
*मृत्यु कया है ?*
जीव मान्यता में यह खेल देख रहा है, और मान्यता खेल रही है .. वास्तव मे मान्यता है ही नही, यह बनाई गई है, जन्म व मृत्यु भी इसी की होती है कयोंकी ध्यान से देखो तो मृत्यु और जन्म कुछ है ही नही, केवल मान्यता है..
जिस मृत्यु से तुम इतना डरते हो वो होती ही नही है..
अर्थात मृत्यु किसी की नही होती, ध्यान से देखो मरा कौन.. कयोंकी तुम चेतन हो, कभी मर नही सकते, शरीर की भी मृत्यु नही होती, कयोंकी ये भी अमने मूल में लय होता है .. मरता नही अर्थात शून्य नही होता, रहता है सदा, चाहे किसी भी आकार मे रहे..
फिर मरता कौन है?
मृत्यु किसकी है ?
मृत्यु मान्यता की है.. मां,बाप,भाई,बहन,बेटा ये मरते है.. ये क्या हैं ? ये मन्यता है , ये जो तुमने मान रखा है केवल ये मानी हुई मान्यता की मृत्यु होती है.. इसी का भय है .. झूठ का भय है..
अपने सत्य स्वरूप में आ जाओ झूठी मान्यता नही रहेगी..
श्वेताश्वतर उपनिषदमें भी यह बात स्पष्ट की है । यथा,
द्वा सुपर्णा सयुजौ सखायौ, समाने वृक्षे परिषस्वजाते ।
तयोरेकं पिप्पलं स्वादुमत्तिः अनश्ननन्यो अभिचाकषीति ।।
अर्थात् एक वृक्षमें दो पक्षी सखाभावसे रहते हैं । उनमेंसे एक उस वृक्षके फलका आस्वादन करता है तो दूसरा मात्र देखता रहता है ..
*यामें जीव दोय भाँत के, एक खेल दूजे देखनहार|
पेहेचान ना होवे काहू को, आड़ी पड़ी माया मोह अहंकार||*
(कि: 30/12)
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Thursday, September 27, 2018
संसार से बंधन के कारण को समझिए
*बन्धन का कारण कया है??*
कारण शरीर ”प्रकृति” का नाम है। सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों के समुदाय का नाम प्रकृति है। ये सूक्ष्मतम कण हैं। उसी का नाम ‘कारण-शरीर’ है।
अब उस प्रकृति रूपी कारण शरीर से दूसरा जो शरीर उत्पन्न हुआ, उसका नाम ‘सूक्ष्म शरीर’ है। आपने शरीर पर सूती कुर्ता कपड़ा पहन रखा है। इसका कारण है धागा। और धागे का कारण है- रूई। रूई, धागा और कॉटन-कुर्ता ये तीन वस्तु हो गयीं। कुर्ता, धागा और रूई, तो ऐसे तीन शरीर हैं- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। पर इनमें से बंधन का जो महा कारण है वह है महाकारण शरीर ये है महाअग्यान इसके भी पीछे छिपी है सब बंधनो की जड़ .. परमात्मा का आपके साथ जो 'वियोग' मालुम देता है कि 'परमात्मा'के साथ हमारा 'वियोग' है-ऐसा जो अनुभव होता है, वह है महा कारण , और जिसको ये वियोग अनुभव होता है वह है सब बन्धनो की जड़ ... और यह है *शुक्षम अहम* *इसको पालिया तो समझो आधा काम हो गया*.. कयोंकी इसको पाकर ही इसे समाप्त किया जा सकेगा..
*मारा कह्या काढ़ा कह्या, और कह्या हो जुदा। एही मैं खुदी टले, तब बाकी रह्या खुदा।।*
*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा*
(विषय सपष्ट न होने पर सत्यसंगत का सहारा लें)
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प्रणाम जी
Wednesday, September 26, 2018
मोक्ष की विधि क्या है
एक युवक ने किसी साधु से पूछा था, 'मोक्ष की विधि क्या है?' उस साधु ने कहा, 'तुम्हें बांधा किसने है?' वह युवक एक क्षण रुका, फिर बोला, 'बांधा किसी ने भी नहीं है।'
तब उस साधु ने पूछा, 'फिर मुक्ति क्यों खोजते हो?'
'मुक्ति क्यों खोजते हो?' यही प्रत्येक को अपने से पूछना है। बंधन है कहां? जो है, उसके प्रति जागो। जो है, उसको बदलने की फिक्र छोड़ो। जो भविष्य में है, वह नहीं, जो वर्तमान है, वही तुम हो। और वर्तमान में कोई बंधन नहीं है। वर्तमान के प्रति जागते ही बंधन नहीं पाये जाते हैं।
कुछहोने और कुछ पाने की आकांक्षा ही बंधन है, वही तनाव है, वही दौड़ है, वही संसार है।
मोक्ष की शुरुआत अभी से करनी होती है। वह अंत नहीं, वही प्रारंभ है।
मोक्ष पाना नहीं है, वरन् दर्शन करना है कि मैं मोक्ष में ही खड़ा हूं। मैं मुक्त हूं, यह बोध शांत जाग्रत चेतना में सहज ही उपलब्ध हो जाता है। प्रत्येक मुक्त है- केवल इस सत्य के प्रति जागना मात्र है।
मैं जैसे ही दौड़ छोड़ता हूं- कुछ होने की दौड़ जैसे ही जाती है कि मैं हो आता हूं और 'हो आना' - पूरे अर्थो में हो आना ही मुक्ति है।
तथाकथित धार्मिक इस 'हो आने' को नहीं पाता है, क्योंकि वह दौड़ में है- मोक्ष पाने की, आत्मा को पाने की, ईश्वर को पाने की। और जो दौड़ में है, चाहे उस दौड़ का रूप कुछ भी क्यों न हो, वह अपने में नहीं है।
धार्मिकहोना आस्था की बात नहीं, किसी प्रयास की बात नहीं, किसी क्रिया की बात नहीं। धार्मिक होना तो अपने में होने की बात है। और यह मुक्ति एक क्षणमात्र में आ सकती है। यह सत्य के प्रति सजग होते ही, जागते ही कि बंधन दौड़ में है, आकांक्षा में है, आदर्श में है, अंधेरा गिर जाता है। और जो दिखता है, उसमें बंधन पाये ही नहीं जाते हैं।
सत्य एक क्षण में क्रांति कर देता है।
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Tuesday, September 25, 2018
सत्य
मनुष्य को सत्य होने से पूर्व माने हुए स्वयं को खोना पड़ता है। इस मूल्य को चुकाये बिना सत्य में कोई गति नहीं है। ये होना ही बाधा है। वही स्वयं सत्य पर पर्दा है। यह दृष्टिं ही अवरोध है- वह दृष्टिं जो कि 'मैं' के बिंदु से विश्व को देखती है। 'अहं-दृष्टिं' के अतिरिक्त उसे सत्य से और कोई भी पृथक नहीं किये है। मनुष्य का 'मैं' हो जाना ही, परमात्मा से उसका पतन है। 'मैं' की उपस्थिति में ही वह नीचे आता है और 'मैं' के खोते ही वह भागवत-सत्ता में ऊपर उठ आता है। 'मैं' होना नीचे होना है। 'न मैं' हो जाना ऊपर उठ जाना है।
किंतु, जो खोने जैसा दीखता है, वह वस्तुत: खोना नहीं-पाना है। स्वयं की, जो सत्ता खोनी है, वह सत्ता नहीं स्वप्न ही है और उसे खेकर जो सत्ता मिलती है, वही सत्य है।
बीज जब भूमि के भीतर स्वयं को बिलकुल खो देता है, तभी वह अंकुरित होता है और वृक्ष बनता है।
हमारे मोहल्ले में एक शराबी था, जब वह नशे में होता है तो वह जो है उसको भूल कर नली या कूड़े में गिरा रहता है ।होश आने पर पता चलता हैकी मैं कौन हूं, ओर गंदगी में हूं ।
हम भी ऐसे ही हैं, अहम के नशे में हम स्वयं कों भूलकर इस असत्य संसार के नली ओर कूड़े में मस्ती के साथ गिरे पड़े है ।अहम का नशा हटे तो सत्य ओर गंदगी का बोध हो ।
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और
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Saturday, September 22, 2018
महत्वपूर्ण
1- जिस तरह किसी दीपक को चमकने के लिए दूसरे दीपक की ज़रुरत नहीं होती है ठीक उसी तरह आत्मा को जो खुद ज्ञान का स्वरूप है उसे और क़िसी ज्ञान कि आवश्यकता नही होती है.
2- हमें आनंद तभी मिलता है जब हम आनंद कि तलाश नही कर रहे होते है.
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Friday, September 21, 2018
अहम को कैसे हटाएं पढ़िए इस पोस्ट में
*क्या विनम्र होकर, सबसे प्रेम करके या अन्य किसी प्रयास से अपने अहम को समाप्त कर सकते है?*
अहंकार के मार्ग अति सूक्ष्म हैं । ओढ़ी हुई विनम्रता उसकी सूक्ष्मतम गति है । ऐसी विनम्रता उसे ढकती कम- और प्रकट ज्यादा करती है । वस्तुत: न तो प्रेम को ओढ़कर अहम मिटाया जा सकता है और न ही विनम्रता के वस्त्रों से अहंकार की नग्नता ही ढकी जा सकती है । राख के नीचे जैसे अंगरे छिपे और सुरक्षित होते हैं और हवा का जरा-सा झोंका ही उन्हें प्रकट कर देता है ।
ऐसे ही आरोपित व्यक्तित्त्वों में यथार्थ दबा रहता है । एक धीमी-सी खरोंच ही अभिनय को तोड़कर उसे प्रत्यक्ष कर देती है । ऐसी परोक्ष बीमारियां प्रत्यक्ष बीमारियों से ज्यादा ही भयंकर और घातक होती हैं, लेकिन स्वयं को ही धोखा देने में मनुष्य का कौशल बहुत विकसित है और वह उस कौशल का इतना अधिक उपयोग करता है कि वह उसका स्वभाव बन जाता है । हजारों वर्षों से जबरदस्ती अहम को दबाने के प्रयास में इस कौशल के अतिरिक्त और कुछ भी निर्मित नहीं हुआ है । अहम को मिटाने में तो नहीं, उसे ढकने में मनुष्य जरूर ही सफल हो गया है और इस भांति तथाकथित यह अहम एक महारोग सिद्ध हुआ है ।
*तो करना क्या है*
*इसके विष्य में तुम्हे एक जबरदस्त बात बताता हूं ।*
*जब तुम बाल्टी या किसी भी अन्य पात्र से समुद्र को खाली करने का प्रयास करते हो तो समुंद्र कभी भी खाली नहीं होगा ये तो सत्य है, पर एक सत्य ओर है जिस से आप अनभिज्ञ रहते हो, वोंक्या है ? वो ये है कि आप जिस बाल्टी या पात्र से उसे खाली करने गए थे उसमें भी समुन्द आ गया है अर्थात वो भी खारा हो गया है। इसलिए जब तुम अहम को समाप्त करने का प्रयास करते हो तो अहम समाप्त नहीं होता बल्कि तुम्हारे प्रयासों में भी अहम आ जाता है, वो प्रयास है - विनम्र होना, सबसे प्रेम करना, सन्यासी होना, गुरु होना, चेला होना आदि आदि।*
तो ये समाप्त कैसे हो?
*अंधेरे को समाप्त नहीं कर सकते कभी भी, बस आप उजाला कर सकते हो। फिर अंधेरा रहेगा ही नही, अहम नहीं मिटाना बस आत्मज्ञान का उजाला करना है।*
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Thursday, September 20, 2018
परमात्मा क्या है ? समझिए इस पोस्ट में
परमात्मा क्या है?
यह प्रश्न कितनों के मन में नहीं है! कल एक युवक पूछ रहे थे। और यह बात ऐसे पूछी जाती है, जैसे कि परमात्मा कोई वस्तु है- खोजने वाले से अलग और भिन्न और जैसे उसे अन्य वस्तुओं की भांति पाया जा सकता है। परमात्मा को पाने की बात ही व्यर्थ है- और उसे समझने की भी। क्योंकि वह मेरे आरपार है। मैं उसमें हूं और ठीक से कहें तो 'मैं' हूं ही नहीं, केवल वही है।
परमात्मा 'जो है' वह नहीं है। वह सत्ता के भीतर 'कुछ' नहीं है; स्वयं सत्ता है। उसका अस्तित्व भी नहीं है, वरन अस्तित्व ही उसमें है। वह 'होने' का अस्तित्व का, अनाम का नाम है।
इससे उसे खोजा नहीं जाता है, क्योंकि मैं भी उसी में हूं। उसमें तो खोया जाता है और खोते ही उसका पाना है।
एक कथा है। एक मछली सागर का नाम सुनते-सुनते थक गयी थी। एक दिन उसने मछलियों की रानी से पूछा : 'मैं सदा से सागर का नाम सुनती आयी हूं, पर सागर है क्या? और कहां है?' रानी ने कहा, 'सागर में ही तुम्हारा जन्म है, जीवन है और जगत है। सागर ही तुम्हारी सत्ता है। सागर ही तुम में है और तुम्हारे बाहर है। सागर से तुम बनी हो और सागर में ही तुम्हारा अंत है। सागर प्रतिक्षण तुम्हें घेरे हुए है।'
परमात्मा प्रत्येक को प्रतिक्षण घेरे हुए है। पर हम मूर्छित हैं, इसलिए उसका दर्शन नहीं होता है। मूच्र्छा जगत है, संसार है। अमूच्र्छा परमात्मा है।
*पररमात्मासब्द भी झूठा है*
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Wednesday, September 19, 2018
विषय क्या है
विषय कोई क्रिया नहि है . अर्थात जिसे करना आप गलत मान्ते हो और उसे विषय वासना कि श्रेणी में रखते हो,, तो में बता दूं के संसार कि कोई भी क्रिया विषय नही है,, तो विषय कया है , विषय केवल चिंतन है, अर्थात जो भी कार्य आप करते हो, जिसे बूरे कि श्रेणी में रखा जाता है , तो वो आपके अंतःकरण को नुकसान नही पहुंचा सकता, केवल उसका चिंतन ही नुकसान दायक है ..चाहे क्रिया न करके केवल चिंतन करते हो तो भी ये उतना ही घातक है..
*तो विषय कया है, विषय केवल चिंतन है*
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प्रणाम जी
Monday, September 17, 2018
दमन मत करो
लगभग प्रवचनों का सार आत्म-दमन होता है। प्रचलित रूढि़ वादी विचार यही है। कहा जाता है कि सबसे प्रेम करना है, पर अपने से घृणा करनी है। स्वयं अपने से शत्रुता करनी है, तब कहीं आत्म-जय होती है। पर यह विचार जितना प्रचलित है, उतना ही गलत भी है। इस मार्ग से व्यक्तित्व अपने में ही उलझ के रह जाता है । और आत्म हिंसा से जीवन कुरूप कर लेता है।
मनुष्य को वासनाएं इस तरह से दमन नहीं करनी हैं, न की जा सकती हैं। यह हिंसा का मार्ग धर्म-मार्ग नहीं है।
मनुष्य को अपने से लड़ना नहीं, अपने को जानना है। न तो वासनाओं के पीछे अंधा हो कर दौड़ने वाला अपने को जान सकता है और न वासनाओं से लड़ने वाला अपने को जान सकता है। वे दोनों अंधे हैं और पहले अंधेपन की प्रतिक्रिया में दूसरे अंधेपन का जन्म हो जाता है। एक वासनाओं में अपने को नष्ट करता है, एक उनसे लड़कर अपने को नष्ट कर लेता है। वे दोनों अपने प्रति घृणा से भरे हैं। ज्ञान का प्रारंभ अपने को प्रेम करने से होता है।
मैं जो भी हूं, उसे स्वीकार करना है, उसमें संतुष्ट होना है। क्योंकि संतुष्टि से ही शांति आती है और इस स्वीकृति और शांति से ही प्रेम व प्रकाश की शुरुआत होती है, जिससे सहज सब-कुछ परिवर्तित हो जाता है- अंतकरण के इस परिवर्तन का नाम ही आध्यात्मिक जीवन है।
Sunday, September 16, 2018
परिवर्तन कहां करना है
एकपागल स्त्री थी। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसका शरीर स्थूल,नहीं है। वह अपने शरीर को दिव्य-काया मानती थी। कहती थी कि उसकी काया से और सुंदर काया पृथ्वी पर दूसरी नहीं है। एक दिन उस स्त्री को बड़े आईने के सामने लाया गया। उसने अपने शरीर को उस दर्पण में देखा और देखते ही उसके क्रोध की सीमा न रही। उसने पास रखी कुर्सी उठाकर दर्पण पर फेंकी। दर्पण टुकड़े-टुकड़े हो गया, तो उसने सुख की सांस ली। दर्पण फोड़ने का कारण पूछा तो बोली थी कि वह मेरे शरीर को भौतिक दिखा रहा है। मेरे सौंदर्य को वह विकृत कर रहा था।
समाजऔर हमारा संबंध दर्पण से ज्यादा नहीं हैं। जो भाव हममें होता है, समाज केवल उसे ही प्रतिबिंबित कर देता हैं। दर्पण तोड़ना जैसे व्यर्थ है, संबंध छोड़ना भी वैसे ही व्यर्थ है। दर्पण को नहीं अपने को बदलना है। जो जहां है, वहीं यह बदलाहट हो सकती है। यह क्रांति स्वयं से शुरू होती है। बाहर बदलाव का काम करना व्यर्थ ही समय खोना है। स्व पर सीधे ही काम शुरू कर देना है। समाज और संबंध कहीं भी बाधा नहीं हैं। बाधाएं कोई हैं, तो स्वयं में है।
Saturday, September 15, 2018
साधना ओर वासना मै भेद, पढ़े इस पोस्ट में
'मैं साधक हूं। आध्यात्मिक साधना में लगा हूं। क्रमश: गति होती जा रही है, एक दिन प्राप्ति भी हो जाने को है।'
एक साधु ने एक दिन मुझ से यह कहा था। उनके शब्दों में मुझे साधना नहीं, वासना ही लगी थी। ऐसी साधना भी बधा है। जो है, उसे पाने का अभ्यास क्या करना है! उसे पाना भी तो नहीं, यह जानना है कि वह खोया ही नहीं गया है। और उसे पाने का अभ्यास इस सत्य को छिपा देता है। उसके मूल में भी वासना है और कुछ पाने और कुछ बदलने की आकांक्षा है। मैं जो हूं, उसे बदलना है। समस्त इच्छाओं के मूल में यही द्वंद्व होता है, यही द्वैत होता है। यह द्वैत ही जगत है और दुख है।
मैं कहता हूं, 'आप जो हो, उससे जरा भी कुछ और होने की आकांक्षा यदि है, तो आप 'जो हो' उसके विपरीत जा रहे हो।' और 'जो है'- वही मार्ग है। 'जो है'- उसके प्रति जागते ही जीवन एक सहजता और सौंदर्य से भर जाता है। वास्तविक सत्य एक अभ्यासी को कभी उपलब्ध नहीं होता है। उसमें एक हिंसा, एक दमन और कुछ 'होने' की वासना के लक्षण उसके मूल बोध को नष्ट कर देते हैं।
फिर क्या करें? कुछ भी नहीं। न करना, कुछ भी न करना ध्यान है। कर्म में आत्मा नहीं है, विचार में आत्मा नहीं है। कर्म और विचार के बाहर होते ही वह आविष्कृत हो जाता है। सब छोड़ दो, सब मिट जाने दो, सब विलीन हो जाने दो। फिर जो होगा वही सब-कुछ है।
सब छोड़ने का अर्थ पलायन नहीं है, छोड़ना भी कुछ नहीं है क्योंकि तुमने कुछ पकड़ा ही नहीं है..
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Friday, September 14, 2018
परमात्मा या सत्य की तलाश कैसे करें
परमात्मा या सत्य की तलाश कैसे करें
'आनंद की तलाश भ्रम ही है, क्योंकि परमात्मा को खोजने का प्रश्न ही नहीं उठता। वह सदा ही उपस्थित है। हम ओर वो इतने समीप है जितनी कि शहद के करीब मिठास,
पर फ़र्क इतना है कि उसेदेख सके, ऐसी आंखें बंद हैं, ओर जिन आंखो से वो दिखता नहीं यूं आंखो को ओर शक्तिशाली बना रहे हैं, प्रति क्षण । इसलिए असली खोज उस दृष्टिं को खोलने की है।
'एकअंधा आदमी था। वह सूरज को खोजना चाहता था। पर वह खोज गलत थी। सूरज तो है ही, *आंखें खोजनी है* । आंखें पाते ही सूरज मिल जाता है। साधरणत: परमात्मा का खोजने वाला, सीधे परमात्मा को खोजने में लग जाता है। वह अपनी आंखों का विचार ही नहीं करता है। यह आधारभूत भूल परिणाम में निराशा लाती है। मेरा देखना विपरीत है।मैं देखता हूं कि असली प्रश्न मेरा है और मेरे परिवर्तन का है। मैं जैसा हूं, मेरी आंखें जैसी हैं, वही मेरे ज्ञान की और दर्शन की सीमा है। मैं बदलूं, मेरी आंखें बदलें, मेरी चेतना बदले, तो जो भी अदृश्य है, वह दृश्य हो जाता है। और फिर जो अभी हम देख रहे हैं, उसकी ही गहराई में परमात्मा उपलब्ध हो जाता है। संसार में ही वह उपलब्ध हो जाता है। इसलिए मैं कहता हूं : धर्म ईश्वर को पाने का नहीं, वरन् नई दृष्टिं, नई चेतना पाने का विज्ञान है। वह तो है ही, हम उसमें ही खड़े हैं, उसमें ही जी रहे हैं। पर आंखें नहीं हैं, इसलिए सूरज दिखाई नहीं देता है। ध्यान देना सूरज को नहीं, आंखों को खोजना है।
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Thursday, September 13, 2018
संसार से प्रवृति हटाकर परमात्मा की ओर कैसे करें
कल कोई कह रहे थे , ''मैं संसार की ओर ले जानेवाली प्रवृत्ति छोड़ना चाहता हूं, कोई उपाय बताओ की प्रवृत्ति सत्य की ओर हो।
सब सोचते है यही संसार से निवृत्ति है। अर्थात सत्य के प्रति प्रवृत्ति संसार के प्रति निवृत्ति है।''
यह बात दिखने में ठीक लगती है और समझ में भी आती है। बिलकुल बुद्धि और तर्क-युक्त है, *पर उतनी ही व्यर्थ भी है*।
ऐसे ही शब्दों के खेल में कितने ही लोग प्रवचन ओर सत्संग के फेर में पड़े रहते हैं। बुद्धि और तर्क- आत्मिक जीवन के संबंध में कहीं भी ले जाते मालूम नहीं होते हैं। मैं उनसे कहता हूं, ''आप शब्दों में उलझ गये हैं। 'संसार की ओर प्रवृत्ति' का कोई अर्थ नहीं है। *असल में प्रवृत्ति ही संसार है*। वह किस ओर है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। बस, उसका होना ही संसार है। वह धन की ओर हो तो, वह धर्म की ओर हो तो- उसका स्वरूप एक ही है।''
प्रवृत्ति मनुष्य को अपने से बाहर ले जाती है। वह वासना है, वह तृष्णा और दौड़ है। जब तक प्रवृति है तब तक वह 'जो है', उसका होना नहीं हो पाता है। इस 'है' का उद्घाटन ही सत्य है।
सत्य कोई वस्तु नहीं है, जिसे पाना है। वह वासना का कोई विषय नहीं है। इससे उसकी ओर प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। वह तो तब है, जब कोई प्रवृत्ति नहीं होती। तब जो होता है, उसका नाम सत्य है। इससे सत्य को पाना नहीं है, असल में पाना ओर छोड़ना से परे सत्य है ।
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Wednesday, September 12, 2018
जानिए मृत्यु को इस पोस्ट में
'मृत्यु क्या है?'
'जीवन को हम नहीं जानते हैं, इसलिए मृत्यु है। स्व-को नहीं जानना मृत्यु है, अन्यथा मृत्यु नहीं है, केवल परिवर्तन है। 'स्व' को न जानने से एक कल्पित 'स्व' हमने निर्मित किया है। यही है हमारा 'मैं' -अहंकार।'
यह है नहीं, केवल आभास है। यह झूठी इकाई ही मृत्यु में टूटती है। इसके टूटने से दुख होता है, क्योंकि इसी से हमने अपना "होना" स्थापित किया था। जीवन में ही इस भ्रांति को पहचान लेना मृत्यु से बच जाना है। जीवन को जान लो और मृत्यु समाप्त हो जाती है। जो है, वह अमृत है। उसे जानते ही नित्य, शाश्वत जीवन उपलब्ध हो जाता है।
'स्व-ज्ञान जीवन है। स्व-विस्मरण मृत्यु है।'
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Monday, September 10, 2018
जानिए गुरु तत्व क्या
सतगुरुतत्व क्या है ?
ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादि लक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वदा साक्षिरूपम्,
भावातीतं त्रिगुण रहितं सतगुरु तन्नमामि ॥
(स्कन्द्पुराणे गुरुगीतायम्)
अर्थ:= *सच्चिदानंद ब्रह्म आनन्द स्वरूप है, उसका आनंद ही प्रत्येक प्राणी में अक्रषण रूप में विद्यमान रह कर उसे आनंद की और आकर्षित करता है, यही आनंद जब आंतरिक रूप में जान लिया जाता है तो इसी को सत्गुरु य गुरुतत्व कहा जाता है।वही मूल आनंद आकर्षण सत्गुरु हैं। क्योंकि गु का अर्थ है अंधेरा या माया और रू का अर्थ है आनंद या प्रकाश,तो जो माया रूपी अंधेरे में आंतरिक आनंद रूपी प्रकाश के आकर्षण के माध्यम से हमें सत्य आनंद का बोध होता है यही माध्येम गुरूतत्वा या सतगुरु है* इसी आनंद के माध्यम तत्व को राधा या श्यामा कहा गया है।इसी कारण किसी मूलआनंदतत्वदर्शी ने कहा था राधे राधे श्याम मिला दे, राधा अर्थात उपरोक्त माध्यम व श्याम अर्थात मूल आनंद। पर अज्ञानवश लोगो ने इसे रटना शुरू कर दिया कि राधे राधे श्याम मिला दे।इस राधा तत्व से अनभिज्ञ होने के कारण लोगों ने इसे स्त्री या पुरुष बना कर देखना शुरू कर दिया।इसी के कारण राधा नाम के जाप का भ्रम पैदा हो गया।यही मूलतत्व सर्वोत्तम ज्ञान एवं परम सुख का दाता है। यह द्वंद्व अर्थात माया, निरंजन निराकार एवं साकार ब्रह्मांड से परे हैं । आकाश जैसा इसका स्वभाव है, क्योंकि ये परम शांत व अनंत्ता लिए हुए है।तत्वमसि में से असि पद ब्रह्म को कह गया है । तत पद ईश्वर से परे ब्रहं का लक्ष्य देते हैं। वह अचल रूप, सदा साक्षी स्वरूप हैं । स्वभाव अर्थात अध्यात्म अर्थात मूल अहम या अक्षरब्रह्म से भी परे हैं । तीनों गुण सत-रज-तम के स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश से परे हैं । ऐसे सतगुरु को सप्रेम नमस्कार है ।
ऋग्वेद 10.49.1
केवल एक परमात्मा ही सत्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वालों को सत्य ज्ञान का देने वाला है । वही ज्ञान की वृद्धि करने वाला और धार्मिक मनुष्यों को श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त करने वाला है । वही एकमात्र इस सारे संसार का रचयिता और नियंता है । इसलिए कभी भी उस एक परमात्मा को छोड़कर और किसी को भी धारण नहीं करनी चाहिए ..
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Sunday, September 9, 2018
"है" क्या है
हम स्वप्न देखते हैं। जागते ही स्वप्न ओर सत्य दोनों का आभास होता है। स्वप्न में मैं हम भागीदार भी थे और द्रष्टा भी । स्वप्न में जब तक थे, द्रष्टा भूल गया था, भागीदार ही रह गया था। अब जागकर देखता हूं कि द्रष्टा ही था, भागीदार नहीं था।
स्वप्न जैसा है, संसार भी वैसा ही है। द्रष्टा, चैतन्य ही सत्य का आभास है, शेष सब कल्पित है। जिसे हमने 'मैं' जाना है, वह वास्तविक नहीं है। उसे भी जो जान रहा है, वास्तविकता की शुरुआत है।
यह सबका द्रष्टा तत्व सबसे मुक्त और सबसे अतीत है। पर इसमें भी होना है, तभी तो दृष्टा है,, इसके पार जो है इसने न कुछ किया है, न कभी कुछ हुआ है। वह बस 'है'।
असत्य 'मैं', स्वप्न 'मैं' ओर दृष्टा में शांत हो जाये, तो 'जो है', वह प्रकट हो जाता है। इस 'है' को हो जाने देना मोक्ष है, कैवल्य है।
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