एकपागल स्त्री थी। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसका शरीर स्थूल,नहीं है। वह अपने शरीर को दिव्य-काया मानती थी। कहती थी कि उसकी काया से और सुंदर काया पृथ्वी पर दूसरी नहीं है। एक दिन उस स्त्री को बड़े आईने के सामने लाया गया। उसने अपने शरीर को उस दर्पण में देखा और देखते ही उसके क्रोध की सीमा न रही। उसने पास रखी कुर्सी उठाकर दर्पण पर फेंकी। दर्पण टुकड़े-टुकड़े हो गया, तो उसने सुख की सांस ली। दर्पण फोड़ने का कारण पूछा तो बोली थी कि वह मेरे शरीर को भौतिक दिखा रहा है। मेरे सौंदर्य को वह विकृत कर रहा था।
समाजऔर हमारा संबंध दर्पण से ज्यादा नहीं हैं। जो भाव हममें होता है, समाज केवल उसे ही प्रतिबिंबित कर देता हैं। दर्पण तोड़ना जैसे व्यर्थ है, संबंध छोड़ना भी वैसे ही व्यर्थ है। दर्पण को नहीं अपने को बदलना है। जो जहां है, वहीं यह बदलाहट हो सकती है। यह क्रांति स्वयं से शुरू होती है। बाहर बदलाव का काम करना व्यर्थ ही समय खोना है। स्व पर सीधे ही काम शुरू कर देना है। समाज और संबंध कहीं भी बाधा नहीं हैं। बाधाएं कोई हैं, तो स्वयं में है।
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