Tuesday, October 30, 2018

आध्यात्मिकता की शुरुआत

मनुष्य को अपने से लड़ना नहीं, अपने को जानना है। न तो वासनाओं के पीछे अंधा हो कर दौड़ने वाला अपने को जान सकता है और न वासनाओं से लड़ने वाला अपने को जान सकता है। वे दोनों अंधे हैं और पहले अंधेपन की प्रतिक्रिया में दूसरे अंधेपन का जन्म हो जाता है। एक वासनाओं में अपने को नष्ट करता है, एक उनसे लड़कर अपने को नष्ट कर लेता है। वे दोनों अपने प्रति घृणा से भरे हैं। ज्ञान का प्रारंभ अपने को प्रेम करने से होता है।

मैं जो भी हूं, उसे स्वीकार करना है, उसमें संतुष्ट होना है। क्योंकि संतुष्टि से ही शांति आती है और इस स्वीकृति और शांति से ही प्रेम व प्रकाश की शुरुआत होती है, जिससे सहज सब-कुछ परिवर्तित हो जाता है- अंतकरण के इस परिवर्तन का नाम ही आध्यात्मिक जीवन है।

Saturday, October 27, 2018

दुख हटा दो

निश्चय ही जीवन दुख में घिरा है, चारों ओर दुख है; पर जो घिरा है, वह दुख नहीं है। जब तक जो घेरे हुए है, उसे देखते रहेंगे, दुख ही मालूम होगा; पर जिस क्षण उसे देखने लगेंगे, जो घिरा हुआ है, तो उसी क्षण दुख असत्य हो जाता है।
दृष्टिं परिवर्तन की बात है। जो दृष्टिं दृष्टा को प्रकट कर देती है, वही दृष्टिं है। शेष सब अंधापन है। दृष्टा के प्रकट होते ही सब आनंद हो जाता है, क्योंकि आनंद उसका स्वरूप है। जगत फिर भी रहता है, पर दूसरा हो जाता है। आत्म-अज्ञान के कारण उसमें जो कांटे मालूम हुए थे, वे अब कांटे नहीं मालूम होते हैं।
दुख की सत्ता वास्तविक नहीं है, जागने पर जैसे स्वप्न अवास्तविक हो जाता है, वैसे ही स्व-बोध पर दुख खो जाता है।

आनंद सत्य है, क्योंकि वह स्व है।

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Thursday, October 25, 2018

आनंद की खोज क्या है

अहम के विसर्जन पर जो बच रहता है, वह आनंद है। आनंद माया के विपरीत नहीं चाहा जाता है।

वह उसका विरोधी नहीं है। आनंद है, मायाका न हो जाना। इसलिए आनंद को नहीं खोजना है, केवल अहम को जानना है। सीखा हुआ शास्त्र ज्ञान, इस ज्ञान में बाधा बन जाता है। क्योंकि सीखने सिखाने ओर ज्ञानी होजाने में अहम ही कार्य करता है, क्योंकि बंधे-बंधाये उत्तर स्वानुभूति के पूर्व बेकार के निष्कर्षो से चित्त को भर देते हैं। इन बेकार निष्कर्षो से कोई परिवर्तन नहीं होता है। स्वानुभूति ही मार्ग है। प्रत्येक व्यक्ति को आत्मिक जीवन में वयर्थ ज्ञान के बोझ को उतारकर चलना होता है।होनों के भाव को गहराई से समझना होता है ।

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Tuesday, October 23, 2018

धर्म मत सीखना

एक व्यक्ति मंदिर में जाता था, वहा के गुरु अपने शिष्यों को रोज धर्म ग्रंथो से प्रवचन देते थे, ओर वो मोन सुनता रहता था, पर एक दिन उसने वहां के गुरु को देख कर कहा 'मंदिर तो बहुत सुंदर है, पर भीतर भगवान की मूर्ति नहीं है।' गुरु ने सुना, उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। निश्चय ही वे शब्द उससे ही कहे गये थे। उसके ही सुंदर शरीर को उसने मंदिर कहा था। गुरु के क्रोध को देखकर वह युवक हंसने लगा। वह ऐसा ही था कि जैसे कोई जलती अग्नि पर और घृत डाल दे। गुरु ने उसे आश्रम से निकाल  दिया ।
फिर एक सुबह जब गुरु अपने धर्मग्रंथ का अध्ययन कर रहा था, वह युवक अनायास कहीं से आकर पास बैठ गया । वह बैठा रहा, गुरु पढ़ता रहा। तभी एक जंगली मधुमक्खी कक्ष में आकर बाहर जाने का मार्ग खोजने लगी । द्वार तो खुला ही था-वही द्वार, जिससे वह भीतर आयी थी, पर वह बिलकुल अंधी होकर बंद खिड़की से निकलने की व्यर्थ चेष्टा कर रही थी। उसकी भनभन मंदिर के सन्नाटे में गूंज रही थी। उस युवक ने खड़े होकर जोर से उस मधुमक्खी से कहा, 'ओ, नासमझ, वह द्वार नहीं, दीवार है। रुक और पीछे देख, जहां से तेरा आना हुआ है, द्वार वही है।'
मधुमक्खी ने तो नहीं, पर उस गुरु ने ये शब्द अवश्य सुने और उसे द्वार मिल गया। उसने युवक की आंखों में पहली बार देखा वह कोई साधारण नहीं है।

गुरु ने उससे कहा, 'मैं आज जान रहा हूं कि मेरा मंदिर भगवान से खाली है और मैं आज जान रहा हूं कि मैं आज तक दीवार से ही सिर मारता रहा हूं और मुझे द्वार नहीं मिला है। पर अब मैं द्वार को पाने के लिए क्या करूं? क्या करूं कि मेरा मंदिर भगवान से खाली न रहे?' उस युवक ने कहा, 'भगवान को चाहते हो, तो स्वयं से खाली हो जाओ। जो स्वयं भरा है, वही भगवान से खाली है। जो स्वयं से खाली हो जाता है, वह पाता है कि वह सदा से ही भगवान से भरा हुआ था। और इस सत्य तक द्वार पाना चाहते हो, तो वही करो, जो वह अब मधुमक्खी कर रही है।'
गुरु ने देखा मधुमक्खी अब कुछ नहीं कर रही है। वह दीवार पर बैठी है और बस बैठी है। उसने समझा, वह जागा। जैसे अंधेरे में बिजली कौंध गई हो, ऐसा उसने जाना और उसने देखा कि मधुमक्खी द्वार से बाहर जा रही है।

यह कथा मेरा पूरा संदेश है। यही मैं कह रहा हूं। भगवान को पाने को कुछ करना नहीं है, वरन सब करना छोड़कर देखना है। चित्त जब शांत होता है और देखता है, तो द्वार मिल जाता है। शांत और शून्य चित्त ही द्वार है। मधुमक्खी का द्वार भी वहीं था जहासे वो आयी थी, हमारा दुआर भी वहीं भाव है जब हम दुनिया में आए थे तो हमारा चित शांत था, वही हमारा बाहर निकले का दुआर है, परंतु हम भी वो दुआर छोड़ कर भिनभिना रहे हैं ओर दीवारों में सर मार रहे हैं ।

*धर्म को सीख कर हमने धर्म पर लड़ना सीख लिया है, जो सीखा है वही हमारे लिए श्रेष्ठ है ओर हम पूरी उम्र उसी पे भिनभिनाते रहते है । *किसी ने कृष्ण सीखा है तो किसी ने श्रीजी, किसी ने राम तो किसी ने अल्लाह, किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ, सारे अपने आप को भर रहे हैं, कोई खाली नहीं होना चाहता, ये खाली ही हमारा दुआर है।*

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Friday, October 19, 2018

साधन ओर सिद्ध वैराग्य

*वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं*

१. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य।
इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य।
इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही अपर वैराग्य है।

*सिद्ध वैराग्य यापर वैराग्य क्या है?*

तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्॥ १/१६॥
(योगदर्शन)
शब्दार्थ- पुरुषख्यातेः= पुरुष के ज्ञान से;गुणवैतृष्ण्यम्= जो प्रकृति के गुणों में तृष्णा का अभाव हो जाना है; तत्= वह;परम्= पर वैराग्य है। 
अर्थात् यह पर वैराग्य निराकांक्षा की अन्तिम अवस्था है- मान्यता के पुरुष के परम शुद्ध निर्विकार पुरुष के अन्तरतम स्वभाव को जानने के कारण समस्त इच्छाओं का विलीन हो जाना। (यहां दो पूरूषो का जिक्र है इनके विषय में जान्ना परम आव्यशक है ..श्वेताश्वतर उपनिषदमें भी यह बात स्पष्ट की है ।
द्वा सुपर्णा सयुजौ सखायौ, समाने वृक्षे परिषस्वजाते ।
तयोरेकं पिप्पलं स्वादुमत्तिः अनश्ननन्यो अभिचाकषीति ।।

अर्थात् एक वृक्षमें दो पक्षी सखाभावसे रहते हैं । उनमेंसे एक उस वृक्षके फलका आस्वादन करता है तो दूसरा मात्र देखता रहता ) *इसकी पूर्ण व्याख्या के लिय आप हमारी कर्ता भोक्ता भेद की post पढ. सकते हैं*

       वैराग्य की यह अवस्था अतिदुर्लभ है। सवंय में अन्तश्चेतना के विलीन हो जाने पर यह अपने आप ही प्रकट हो जाती है। इसीलिए इसे पर वैराग्य कहते हैं। सिद्ध महापुरुषों की यह स्वाभाविक दशा होने के कारण इसे सिद्ध वैराग्य भी कहा जाता है। यह समस्त साधनाओं का फल है, जो सिद्ध योगियों को सहज सुलभ रहता है। अन्तर्चेतना सवंय में विलीन होने के कारण विषयों के प्रति, भोगों के प्रति न गति होती है, न रुचि और न ही रुझान। यह निर्विकार भावदशा की सहज अभिव्यक्ति है। 

*पर इनदोनो ही अवस्थाओं का परमात्मा के प्रेम से कोई सम्बन्ध नही है परमात्मा प्रेम इन दोनो अवस्थाओं से परे है*
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प्रणाम जी

Tuesday, October 16, 2018

सत्य पाना?

सत्य कोई वस्तु नहीं है, जिसे पाना है। वह वासना का कोई विषय नहीं है। इसलिए उसकी ओर प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। सत्य तो तब है, जब कोई प्रवृत्ति नहीं होती। तब जो होता है, उसका नाम सत्य है। इससे सत्य को पाना नहीं है, असल में पाना ओर छोड़ना से परे सत्य है ।

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Friday, October 12, 2018

आनंद की ओर पहला कदम

विचारों से शांति आनंद की ओर पहला कदम है

सत्य की कसौटी तर्क नहीं है। सत्य की कसौटी विचार नहीं है। सत्य की कसौटी है आनंदानुभूति।  जो विचार-दर्शन है वो यहां नहीं लेकर आ सकता, ये सब विचार तो अविचार ही ज्यादा है। ज्यादातर स्त्ये मार्गी अपने अपने सत्य पर तर्क करते हैं, पर मैं उनसे कहता हूं कि जबतक ये तुम्हारे तर्क शेष हैं जब तक सत्य नही है, सत्य में प्रवेश करने पर तर्क नहीं रह जाते ।

धर्म विचार नहीं है। वह तो आनंदमय हो जाने का एक विज्ञान मात्र है। उसकी पोहोच विवाद में नहीं, प्रयोग में है। 

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Tuesday, October 9, 2018

मृत्यु के पूर्व किस मृत्यु को पा लेना है ???

परमात्मा को समर्पित करने योग्य मनुष्य के पास 'मैं' के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। शेष जो भी वह छोड़े, वह केवल छोड़ने के भ्रम में है, क्योंकि वह उसका था ही नहीं। और इस सब छोड़ने से उलटे उसका 'मैं' और प्रगाढ़ हो जाता है। 'मैं' केंद्र से यदि कोई अपना समस्त जीवन भी परमात्मा की सेवा को दे दे, तो भी वह देना नहीं है। 'मैं' को दिये बिना और कुछ भी देना, देना नहीं है।
 'मैं' एकमात्र संसार है। उसे जो छोड़ता है,वही संन्यासी है।
'मैं' संसार है। 'मैं' का अभाव संन्यास है।
'मैं' को दे देना वास्तविक धार्मिक क्रांति और परिवर्तन है। क्योंकि उसके रिक्त स्थान में ही वह आता है, जो कि मेरा 'मैं'
नहीं अपितु सबका 'मैं' है।

सच ही 'मैं' कहने का अधिकार केवल परमात्मा को ही है, जो कि समस्त सत्ता का केंद्र है। पर उसे 'मैं' कहने का कोई कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उसके लिए सब 'मैं' ही है। कोयोंकी मै वो कहता है जिसके पास  मै से अन्य कोई वस्तु हो, इसलिए परमात्मा को मैं कहने का कारण नहीं है, और जिसे कहने का कारण है, उसे कोई अधिकार नहीं है।
पर मनुष्य अपने अनाधिकार को खोकर, अधिकार को पा सकता है। वह 'मैं' होना छोड़ कर 'मैं' हो सकता है। वह अपने अभाव से सत्य को पा सकता है। 

जो 'मैं' की इस मृत्यु से नहीं गुजरता है, वह सत्य के जीवन से वंचित रह जाता है। मैं के गिरते ही वह फासला गिर जाता है, जो कि हमें स्वयं हमसे ही तोड़े हुए था। और वह व्यक्ति धन्यभागी है, जो शरीर की मृत्यु के पूर्व इस मृत्यु को पा लेता है

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Monday, October 8, 2018

दर्पण

हमारी मूल चेतना दर्पण की भांति ही है। अहम की धूल है, उस पर। "नहीं" का परदा है, उस पर। संस्कारों की परतें हैं, उस पर। पर मूल चेतना के स्वरूप में इससे कुछ भी नहीं हुआ है।
वह वही है। वह सदा वही है। परदा हो या न हो, उसमें कोई परिवर्तन नहीं है। सब परदे ऊपर हैं, इसलिए उन्हें खींच देना और अलग कर देना कठिन नहीं है। दर्पण पर से धूल झाड़ने से ज्यादा कठिन चेतना पर से धूल को झाड़ देना नहीं है।

आत्मा को पाना आसान है, क्योंकि बीच धूल के एक झीने परदे के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और परदे के हटते ही ज्ञात होता है कि आत्मा ही परमात्मा है।

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Friday, October 5, 2018

बाहर ओर अंदर का अर्थ

*अंदर और बाहर का कया अर्थ है ?*

अंदर से अभीप्राय शरीर के अंदर से नही है..
अंदर का अर्थ है,आत्मा, सवंय, आनंद, परमात्मा |

बाहर का अर्थ है, अदंर से अलग जो भी है वो बाहर है जैसे,शरीर, अंतःकरण, तीन गुण, सत्ता, ये आनंद की सत्ता होने के कारण इसमें आनंद भाषित होता है पर है नही |

अविद्या कया है ?

बाहर को ही अंदर समझना अविद्या है अग्यान है..

विद्या कया है ?

अंदर व बाहर के भेद व अभेद को जान्ना ही विद्या या ग्यान है...
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Thursday, October 4, 2018

गुरु ओर परमात्मा एक कैसे है???

गुर गोविंद तौ एक है, दूजा यहू आकार।
आपा भेट जीवत मरै, तौ पावै करतार।।
(कबीर)
आत्मा, परमात्मा व गुरू एक ही हैं, ये दो नही है, अगर कोई दूसरी वस्तु है तो वह है यह शरीर व अहं | गुरू को शरीर की परिधियो में सिमित करना अल्पग्यता है गुरू और परमात्मा को अलग मान्ना अल्पग्यता है, तो गूरू कया है?
जब हम आत्मपद या आनंद की और आकृषित होते है अर्थात सत्य मार्ग की और चलते हैं तो इसे ही अंधेरे से प्रकाश की और चलनी कहते है, एक बात और ध्यान देना की अंधेरे में केवल प्रकाश के कारण ही अंधेरे हम मार्ग खोज सकते हैं, ये प्रकाश ही आनंद है यही प्रमात्मा है, और यही गुरू है, इसको पाने के लिय शरीर और अहं भाव से बाहर आना होगा, इस आकार और अहं की परिधियो का पार करना ही माने हुऐ 'आप' की भेंट कहलाता है, इसके पश्चात ही सवंय,परमात्मा या गुरू को प्राप्त कर पाओगे..
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Tuesday, October 2, 2018

क्या दुख मिटाया जा सकता है?

क्या दुख मिटाया जा सकता है?

और सारे लोग ही धीरे-धीरे ऐसी ही प्रतिमाएं होते जा रहे हें। वे सभी दुख मिटाना चाहते हैं, पर नहीं मिटा पाते हैं, क्योंकि दुख निदान जो वो कर रहे हैं वो सत्य नहीं है।
चेतना की एक स्थिति में दुख होता है। वह उस स्थिति का स्वरूप है। उस स्थिति के भीतर दुख से छुटकारा नहीं है। कारण, वह स्थिति ही दुख है। उसमें एक दुख हटायें, तो दूसरा आ जाता है। यह श्रंखला चलती जाती है। इस दुख से छूटें, उस दुख से छूटें, पर दुख से छूटना नहीं होता है। दुख बना रहता है, केवल निमित्त बदल जाते हैं। दुख से मुक्ति पाने से नहीं, चेतना की स्थिति बदलने से ही दुख समाप्त होता है- दुख-मुक्ति होती है।
एक अंधेरी रात गौतम बुद्ध के पास एक युवक पहुंचा , दुखी, चिंतित, संताप ग्रस्त। उसने जाकर कहा , 'संसार कैसा दुख है, कैसी पीड़ा है!' गौतम बुद्ध बोले थ,'मैं जहां हूं, वहां आ जाओ, वहां दुख नहीं है, वहां संताप नहीं है।'

एक चेतना है, जहां दुख नहीं है। इस चेतना के लिए ही बुद्ध बोले थे, 'जहां मैं हूं।' मनुष्य की चेतना की दो स्थितियां हैं, अज्ञान की और ज्ञान की, पर की और स्व-बोध की। मैं जब तक 'पर' से संबंध कर रहा हूं, तब तक दुख है। यह पर-बंधन ही दुख है। 'पर' से मुक्त होकर 'स्व' को जानना और स्व में होना दुख-समाप्ति है। मैं अभी स्वयं नहीं हूं, इसमें दुख है। मैं  जब समाप्त होकर केवल "है" होता है, तब दुख मिटता है।

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