Monday, December 10, 2018

मूर्ति के आगे

एक सर्द और अंधेरी रात में एक साधु किसी मंदिर में ठहरा था। उसने सर्दी दूर करने को भगवान की एक लकड़ी की मूर्ति जला ली। आग जली देख पुजारी जाग गया। वह क्रोध में कुछ बोल  न सका। तभी उसने देखा : साधु जली राख के ढेर में कुछ खोज रहा है। उसने पूछा कि क्या कर रहे हो? साधु ने कहा, 'भगवान की देह की अस्थियां खोजता हूं।' अब पुजारी के समक्ष उस साधु का पागलपन पूरी तरह स्पष्ट हो गया था। उसने साधु से कहा, 'पागल! लकड़ी में अस्थियां कहां रखी हैं?' साधु बोला, 'तब एक मूर्ति और लाने की कृपा करो, रात बहुत सर्द है और बहुत लंबी भी।'
पागल साधु मैं ही हूं।

मैं चाहता हूं कि हम मूर्तियों परिधि से मुक्त हो सकें, ताकि जो असीमित है, उसके दर्शन संभव हों। रूप पर जो रुका है, वह महा रूप पर नहीं पहुंच पाता है। आकार जिसकी दृष्टिं में है, वह असीम के सागर में कैसे कूदेगा? वह जो दूसरे की पूजा में है, वह अपने पर आ सके, यह कैसे संभव है? मूर्त को अग्नि दो, ताकि असीम अमूर्त ही अनुभूति में शेष रहे और आकार की बदलियों को विसर्जित होने दो, ताकि शुद्ध सत्य का आकाश उपलब्ध हो सके। रूप को बहने दो, ताकि नौका असीम सागर में पहुंचे। जो सीमा के तट से अपनी नौका छोड़ देता है, वह अवश्य ही असीम को पहुंचता और असीम हो जाता है।

Sateangwithparveen.blogspot.com

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