Tuesday, June 18, 2019

सत्य का भय से कोई संबंध नहीं है

आम तौर पर मनुष्य भय से ही धार्मिकता की ओर मुड़ता है जैसे चौरासी लाख योनियों का भय, यम का भय, जीवन मरण का भय या किसी अनिष्ट का भय । इसी कारण वह परमात्मा के नजदीक जाने का प्रयास करता है । अगर शरुआत यहां से होती है तो कोई बात नहीं, यह पहला कदम हो सकता है परन्तु अगर अंत भी यही हो तो अज्ञानता है । क्योंकि भय में दो वस्तुएं सदैव रहती हैं, एक तो आप जो भयभीत हो ओर दूसरा वो जो तुम्हारा सहारा है(परमात्मा) एवम् इसमें में ओर तू है, ओर जहां मैं ओर तू है वहां प्रेम नहीं है वहां प्रेम का अभिनय है । यह सत्य नहीं है यह असत्य है ।

सत्य का भय से कोई संबंध नहीं है। सत्य तो अभय से उत्पन्न होता है।

प्रेम भी भय के साथ असंभव है। भय प्रेम कैसे पैदा कर सकता है? उससे तो केवल प्रेम का अभिनय ही पैदा हो सकता है। ओर अभिनय के पीछे अप्रेम के अतिरिक्त और क्या होगा? प्रेम का भय से पैदा होना एक असंभावना है।

वह सत्य जो भय पर आधारित हो वह सत्य नहीं मिथ्या है।  धर्म या प्रेम आरोपित नहीं किया जाता है। उसे तो जगाना होता है।

सत्य भय पर नहीं खड़ा होता है। वह सत्य के लिए आधार नहीं विरोध ही है। उसकी आधारशिला तो असंभव है।

धर्म और प्रेम के फूल अभय की भूमि में ही लगते हैं और भय में जो लगा लिए जाते हैं, वे फूल नहीं कागज के धोखे हैं।

सत्य अनुभूति अभय में ही उपलब्ध होती है। या कि ठीक हो, यदि कहें कि अभय-चेतना ही सत्य अनुभूति है। जिस क्षण समस्त भय-ग्रंथियां चित्त से विसर्जित हो जाती हैं, ओर चित भी मूल में लय हो जाता है उस क्षण जो होता है, वही सत्य है।

Saturday, May 4, 2019

Satsang from YouTube

https://youtu.be/jMoKJ5v0wDg

Friday, April 26, 2019

उसे कैसे पाएं, इस माया से निकल कर???

जीवन में दुख ही दुख है, जहां देखूं माया ही नजर आती है, फिर परमात्मा जोंदिखता नहीं है उसे कैसे पाएं, इस माया से निकल कर???

जैसे अंधेरे में कोई रस्सी साँप दिखती है। कुछ उसे देखकर भागते हैं, कुछ लड़ने की तैयारी करते हैं। दोनों ही भूल में हैं, क्योंकि दोनों ही उसे स्वीकार कर लेते हैं। कोई निकट जाता है और पाता है कि साँप है ही नहीं। ऐसे ही माया है जिसे तुमने सांप मान लिया है कोई इस से लड़ता है तो कोई इस से दूर भागता है, जो इसको समझना चाहता है उसे कुछ करना नहीं होता, केवल निकट भर जाना होता है। ओर ये सब स्वयं से ही प्रारम्भ होता है ।

मनुष्य को अपने निकट भर जाना है। मनुष्य में जो भी है, सबसे उसे परिचित होना है। किसी से लड़ना नहीं है और मैं कहता हूँ कि बिना लड़े ही विजय घर आ जाती है।

स्व-चित्त से ही स्व-जागरण है, यही जीवन विजय का सूत्र है।

Thursday, February 28, 2019

धार्मिकता क्या है

मैं भगवान से डरता नहीं हूँ। भय परमात्मा तक नहीं ले जाता है

मैं श्रद्धालु भी नहीं हूँ। श्रद्धा मात्र अंधी होती है। और अंधापन परम सत्य तक कैसे ले जा सकता है?

मैं किसी धर्म का अनुयायी भी नहीं हूँ, क्योंकि धर्म को मतों या संप्रदाय में बाटना संभव नहीं है।

  किसी ने पूछा, 'फिर क्या आप नास्तिक हैं?'

मै न नास्तिक हूँ, न आस्तिक ही। वे भेद बाहरी और बौद्धिक हैं। मूल सत्ता से उनका कोई संबंध नहीं है। सत्ता 'है' और 'न है' में विभक्त नहीं है। भेद मन का है, इसलिए नास्तिकता और आस्तिकता दोनों मानसिक हैं। आत्मा तक वे नहीं पहुंच पाती हैं।

'जो है' वह मान्यता और नकारना के अतीत है। या फिर वे दोनों एक हैं और उनमें कोई भेद-रेखा नहीं है। बुद्धि से स्वीकार की गई किसी भी धारण की वहाँ कोई गति नहीं है।

वस्तुत: आस्तिक को आस्तिकता छोड़नी होती है और नास्तिक को नास्तिकता, तब कहीं वे सत्य में प्रवेश कर पाते हैं। वे दोनों ही बुद्धि के बनाए हैं। सत्य कैसा है, यह निर्णय नहीं करना होता है; वरन अपने को खोलते ही स्वतंत्र होते ही वह जैसा है, उसका आभास हो जाता है।

यह स्मरण रखें कि सत्य का निर्णय नहीं, दर्शन करना होता है। जो सब बौद्धिक निर्णय छोड़ देता है, जो सब तार्किक धारणाएं छोड़ देता है, जो समस्त मानसिक आग्रह और अनुमान छोड़ देता है, वह उस निर्दोष चित्त-स्थिति में सत्य के प्रति अपने के खोल रहा है, जैसे फूल प्रकाश के प्रति अपने को खोलते हैं।

इस खोलने में दर्शन की घटना संभव होती है।

इसलिए, जो न आस्तिक है न नास्तिक है, उसे मैं धार्मिक कहता हूँ। धार्मिकता भेद से अभेद में छलांग है।

विचार जहाँ नहीं, निर्विचार है; विकल्प जहाँ नहीं, निर्विकल्प है; शब्द जहाँ नहीं, शून्य है- वहाँ धर्म में प्रवेश है।

Saturday, February 23, 2019

सत्य का निष्कर्ष (सही मार्ग कोनसा है)

 एक साधु थे। उन्होंने बहुत यात्रा की थी। शायद ही कोई ऐसा तीर्थ था, जहाँ वे नहीं हो आये थे। परमात्मा को पाने के वे मार्ग खोज रहे थे। ऐसा भी नहीं था कि उन मार्गो पर वे चले नहीं थे। यथाशक्ति प्रयास भी किया था। पर हाथ आया था, केवल चलना ही। पहुंचना नहीं हुआ था। पर अभी मार्ग से ऊबे नहीं थे और नये की तलाश जारी थी।

जो मैं स्वयं हूँ, उसे पाने का कोई मार्ग नहीं है। मार्ग 'पर' को और 'दूर' को पाने के लिए होते हैं। जो निकट है; निकट ही नहीं, जो मैं ही हूँ- वह मार्ग से नहीं मिलता है। मार्ग के योग्य वहाँ अंतराल ही नहीं है।

फिर पाना उसे होता है, जिसे खोया हो। परमात्मा को क्या खोया जा सकता है?

जो खोया जा सके वह स्वरूप नहीं हो सकता है। वह केवल विस्मृत है।

इसलिए कहीं जाना नहीं है। केवल स्मरण करना है। कुछ करना नहीं केवल जानना है।

और जानना ही पहुंचना है। जानना है कि यह मैं कौन हूँ? ओर यह ज्ञान ही परमात्मा की प्राप्ति है।

एक दिन जब सारे प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं और कोई भी मार्ग कहीं ले जाता प्रतीत नहीं होता है, तब दिखता है कि जो भी मैं कर सकता हूँ, वह सत्य तक नहीं ले जाएगा। कोई क्रिया 'मैं' के रहस्य को नहीं खोलेगी, क्योंकि क्रिया मात्र बाहर ले जाती है।

कोई क्रिया सत्य तक नहीं ले लाती है। जहाँ क्रिया का अभाव है, वहाँ सत्य प्रकट होता है।

कोई क्रिया उसे नहीं देगी, क्योंकि वह क्रियाओं के भी पूर्व है।

कोई मार्ग 'वहां' के लिए नहीं है, क्योंकि वह तो 'यहां' है।

Tuesday, February 19, 2019

झूठी सुरक्षा में मत छीपो

तुमने कितनी अंधी श्रद्धा, धारणा, और कल्पनाओं में अपने को छिपा लिया है। और इन मिथ्या सुरक्षाओं में तुम अपने को सुरक्षित समझ रहे हो। यह सुरक्षा नहीं, आत्मवंचना है।
मैं तुम्हारी इस निद्रा को तोड़ना चाहता हूं। स्वप्न नहीं, केवल सत्य ही एकमात्र सुरक्षा है।
और तुम यदि स्वप्नों को छोड़ने का साहस करो तो सत्य को पाने के अधिकारी हो जाते हो। कितना सस्ता सौदा है! सत्य को पाने के लिए और कुछ नहीं केवल स्वप्न ही छोड़ने पड़ते हैं।
विचारों की, स्वप्नों की, कल्पना-चित्रों की मूच्र्छा को तोड़ना है। *उससे, जो कि दिख रहा है, उस पर जागना है, जो कि देख रहा है।*
'वह द्रष्टा ही सत्य की ओर ले जाता है, उसे पा लो, साक्षी प्रकट होजाएगा ऐसा हुआ तो समझो कि जीवन पा लिया है।

Monday, February 11, 2019

ज्ञान की प्यास का निवारण

ज्ञान के लिए प्यास है। कितनी प्यास है? प्रत्येक में देखता हूं। कुछ भीतर प्रज्ज्वलित है, जो शांत होना चाहता है और मनुष्य कितनी दिशाओं में खोजता है। शायद अनंत जन्मों से उसकी यह खोज चली आ रही है। पर हर चरण पर निराशा के अतिरिक्त और कुछ भी हाथ नहीं आता है। कोई रास्ता पहुंचता हुआ नहीं दिखता है। क्या रास्ते कहीं भी नहीं ले जाते हैं?

बुद्धि चुप हो तो अनुभूति बोलती है। विचार मौन हों तो विवेक जाग्रत होता है।

'समाधान शून्य से आता है,' इसी सत्य को जानते ही एक नये आयाम पर जीवन का उद्घाटन प्रारंभ हो जाता है। चित्त की इसी स्थिति का नाम समाधि है।

स्वयं से पूछें और चुप हो जाएं- बिलकुल चुप और समाधान को आने दें, उसे फलने दें। चित्त की इस निस्तरंग स्थिति में दर्शन होता है, उसका-जो है, जो मैं हूं।

स्वयं को जाने बिना ज्ञान की प्यास नहीं मिटती है।

सब मार्ग छोड़कर स्वयं पर पहुंचना होता है। चित्त जब किसी मार्ग पर नहीं है, तब स्वयं में है और स्वयं को जानना ज्ञान है। शेष सब जानकारी है, क्योंकि परोक्ष है। विज्ञान ज्ञान नहीं है। वह सत्य को नहीं, केवल उपयोगिता को जानना है। सत्य केवल अपरोक्ष ही जाना जा सकता है और ऐसी सत्ता केवल स्वयं की ही है, जो कि अपरोक्ष जानी जा सकती है।

चित्त जिस क्षण खोज की व्यर्थता को जानकर चुप और थिर रह जाता है, उसी क्षण अनंत के द्वार खुल जाते हैं।

दिशा-शून्य चेतना आनंद में विराजमान हो जाती है और ज्ञान की प्यास का अंत केवल स्वयं में ही है।