मैं भगवान से डरता नहीं हूँ। भय परमात्मा तक नहीं ले जाता है
मैं श्रद्धालु भी नहीं हूँ। श्रद्धा मात्र अंधी होती है। और अंधापन परम सत्य तक कैसे ले जा सकता है?
मैं किसी धर्म का अनुयायी भी नहीं हूँ, क्योंकि धर्म को मतों या संप्रदाय में बाटना संभव नहीं है।
किसी ने पूछा, 'फिर क्या आप नास्तिक हैं?'
मै न नास्तिक हूँ, न आस्तिक ही। वे भेद बाहरी और बौद्धिक हैं। मूल सत्ता से उनका कोई संबंध नहीं है। सत्ता 'है' और 'न है' में विभक्त नहीं है। भेद मन का है, इसलिए नास्तिकता और आस्तिकता दोनों मानसिक हैं। आत्मा तक वे नहीं पहुंच पाती हैं।
'जो है' वह मान्यता और नकारना के अतीत है। या फिर वे दोनों एक हैं और उनमें कोई भेद-रेखा नहीं है। बुद्धि से स्वीकार की गई किसी भी धारण की वहाँ कोई गति नहीं है।
वस्तुत: आस्तिक को आस्तिकता छोड़नी होती है और नास्तिक को नास्तिकता, तब कहीं वे सत्य में प्रवेश कर पाते हैं। वे दोनों ही बुद्धि के बनाए हैं। सत्य कैसा है, यह निर्णय नहीं करना होता है; वरन अपने को खोलते ही स्वतंत्र होते ही वह जैसा है, उसका आभास हो जाता है।
यह स्मरण रखें कि सत्य का निर्णय नहीं, दर्शन करना होता है। जो सब बौद्धिक निर्णय छोड़ देता है, जो सब तार्किक धारणाएं छोड़ देता है, जो समस्त मानसिक आग्रह और अनुमान छोड़ देता है, वह उस निर्दोष चित्त-स्थिति में सत्य के प्रति अपने के खोल रहा है, जैसे फूल प्रकाश के प्रति अपने को खोलते हैं।
इस खोलने में दर्शन की घटना संभव होती है।
इसलिए, जो न आस्तिक है न नास्तिक है, उसे मैं धार्मिक कहता हूँ। धार्मिकता भेद से अभेद में छलांग है।
विचार जहाँ नहीं, निर्विचार है; विकल्प जहाँ नहीं, निर्विकल्प है; शब्द जहाँ नहीं, शून्य है- वहाँ धर्म में प्रवेश है।
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