ब्रज रास दोऊ अखण्ड, कर चेतन बुधि फिरे मन।
ए ब्रह्माण्ड तीसरा, जहां महम्मद आये रोसन।।
(श्री बीतक)
अक्षर ब्रह्म की जागृत बुद्धि के स्वरूप केवल ब्रह्म में होने वाली यह लीला उनके चित्त स्वरूप सबलिक के महाकारण में अखण्ड हो गयी। इसी प्रकार ब्रज लीला भी सबलिक ब्रह्म के कारण में अखण्ड हो गयी। रास लीला के पश्चात् सखियों के मन (सुरता) वहाँ से वापस परमधाम आ गये। पुनः यह कालमाया का जागनी ब्रह्माण्ड बना, जिसमें मुहम्मद (सल्ल.) ने आकर अखण्ड ज्ञान का प्रकाश किया।
भावार्थ-
इस चौपाई के दूसरे चरण में कथित ‘फिरे मन’ का तात्पर्य है, ‘सखियों की सुरता का ब्रज-रास से वापस अपने परमधाम में आ जाना।’
ब्रज से रास में सखियों के पहुँचते ही इस ब्रह्माण्ड का प्रलय हो गया। एक रंचक न राखी चौदे लोक की, महाप्रले कह्यो ऐसो अंत’ कि. 13/8 से यही निष्कर्ष निकलता है।
महारास की लीला में 12000 नूरमयी तनों में एक-एक ब्रह्मसृष्टि तथा दो-दो ईश्वरी सृष्टि (कुमारिका) विद्यमान थीं। ईश्वरी सृष्टि के जीव ब्रजलीला में अखण्ड हो गये थे। पूर्व में प्राप्त वरदान के कारण इस नये ब्रह्माण्ड में उनकी 24000 सुरतायें आयीं जिन्हें प्रतिबिम्ब की सखियां कहा गया।
इसी प्रकार सबलिक के महाकारण में होने वाली महारास का प्रतिबिम्ब सबलिक के स्थूल (अव्याकृत के महाकारण) में पड़ा, जिससे मुग्ध होकर वेदों ने उस लीला में स्वयं को शामिल करने की प्रार्थना की।
इस प्रार्थना के स्वीकार होने पर वेदों ने 12000 सखियों का रूप धारण कर इस नये ब्रह्माण्ड में लीला का सुख लिया। इस प्रकार पूर्व ब्रह्माण्ड की तरह ही 36000 सखियां हो गयी। प्रगटवाणी के शब्दों में-
ए तीसरा इण्ड नया भया जो अब, अछर की सूरत का सब।
याही सूरत की सखियां भई, प्रतिबिम्ब वेद ऋचा जो कहीं।। प्र0हि0 37/53
इस नये ब्रह्माण्ड के श्रीकृष्ण जी में न तो अक्षरब्रह्म की आत्मा थी और न अक्षरातीत का जोश-आवेश। केवल रास बिहारी की शक्ति ने नये ब्रह्माण्ड के श्रीकृष्ण जी में विराजमान होकर एक रात्रि की रास लीला की। इसके पश्चात् सात दिन गोकुल में तथा चार दिन तक मथुरा में इसी शक्ति ने लीला की। जब कंस को मारकर श्रीकृष्ण जी ने ग्वाले का वेश उतार दिया तथा राजसी वस्त्र धारण किया तो रास बिहारी की शक्ति भी श्रीकृष्ण जी के तन को छोड़कर ब्रज मण्डल में विद्यमान राधा जी के तन में स्थित हो गयी।
प्रणाम जी
ए ब्रह्माण्ड तीसरा, जहां महम्मद आये रोसन।।
(श्री बीतक)
अक्षर ब्रह्म की जागृत बुद्धि के स्वरूप केवल ब्रह्म में होने वाली यह लीला उनके चित्त स्वरूप सबलिक के महाकारण में अखण्ड हो गयी। इसी प्रकार ब्रज लीला भी सबलिक ब्रह्म के कारण में अखण्ड हो गयी। रास लीला के पश्चात् सखियों के मन (सुरता) वहाँ से वापस परमधाम आ गये। पुनः यह कालमाया का जागनी ब्रह्माण्ड बना, जिसमें मुहम्मद (सल्ल.) ने आकर अखण्ड ज्ञान का प्रकाश किया।
भावार्थ-
इस चौपाई के दूसरे चरण में कथित ‘फिरे मन’ का तात्पर्य है, ‘सखियों की सुरता का ब्रज-रास से वापस अपने परमधाम में आ जाना।’
ब्रज से रास में सखियों के पहुँचते ही इस ब्रह्माण्ड का प्रलय हो गया। एक रंचक न राखी चौदे लोक की, महाप्रले कह्यो ऐसो अंत’ कि. 13/8 से यही निष्कर्ष निकलता है।
महारास की लीला में 12000 नूरमयी तनों में एक-एक ब्रह्मसृष्टि तथा दो-दो ईश्वरी सृष्टि (कुमारिका) विद्यमान थीं। ईश्वरी सृष्टि के जीव ब्रजलीला में अखण्ड हो गये थे। पूर्व में प्राप्त वरदान के कारण इस नये ब्रह्माण्ड में उनकी 24000 सुरतायें आयीं जिन्हें प्रतिबिम्ब की सखियां कहा गया।
इसी प्रकार सबलिक के महाकारण में होने वाली महारास का प्रतिबिम्ब सबलिक के स्थूल (अव्याकृत के महाकारण) में पड़ा, जिससे मुग्ध होकर वेदों ने उस लीला में स्वयं को शामिल करने की प्रार्थना की।
इस प्रार्थना के स्वीकार होने पर वेदों ने 12000 सखियों का रूप धारण कर इस नये ब्रह्माण्ड में लीला का सुख लिया। इस प्रकार पूर्व ब्रह्माण्ड की तरह ही 36000 सखियां हो गयी। प्रगटवाणी के शब्दों में-
ए तीसरा इण्ड नया भया जो अब, अछर की सूरत का सब।
याही सूरत की सखियां भई, प्रतिबिम्ब वेद ऋचा जो कहीं।। प्र0हि0 37/53
इस नये ब्रह्माण्ड के श्रीकृष्ण जी में न तो अक्षरब्रह्म की आत्मा थी और न अक्षरातीत का जोश-आवेश। केवल रास बिहारी की शक्ति ने नये ब्रह्माण्ड के श्रीकृष्ण जी में विराजमान होकर एक रात्रि की रास लीला की। इसके पश्चात् सात दिन गोकुल में तथा चार दिन तक मथुरा में इसी शक्ति ने लीला की। जब कंस को मारकर श्रीकृष्ण जी ने ग्वाले का वेश उतार दिया तथा राजसी वस्त्र धारण किया तो रास बिहारी की शक्ति भी श्रीकृष्ण जी के तन को छोड़कर ब्रज मण्डल में विद्यमान राधा जी के तन में स्थित हो गयी।
प्रणाम जी
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