सरोवर के किनारे अपने आश्रम में तप करते-करते
मार्कण्डेय ऋषि को नारायण के दर्शन हुए । ऋषि ने
माया देखने की इच्छा प्रकट की । अतः नारायण ने
उनके ऊपर अज्ञान रूपी नींद का आवरण डाला ।
मार्कण्डेय ऋषि ने देखा कि प्रलय के जल में एक
बालक बह रहा है । उनकी सुरता(ध्यान) उसमें चली गयी ।
वहां अनेक योनियों में उन्होंने अनेक तन धारण
करते हुए सांसारिक क्रिया कलापों में बहुत दुःख
भोगा तथा माया में तल्लीन हो गये । तभी साधु भेष में नारायण ने उनसे भेंट की और उनको
प्रबोधित किया कि वे तो मार्कण्डेय ऋषि हैं ।
अज्ञान रूपी नींद के हटते ही उन्होंने पाया कि वे
उसी सरोवर के किनारे बैठे हैं तथा नारायण उनके
सामने विराजमान हैं । अर्थात् अभी एक क्षण भी
व्यतीत नहीं हुआ था ।
जिस प्रकार मार्कण्डेय ऋषि ने माया देखने की इच्छा की थी, उसी प्रकार अनादि परमधाम में ब्रह्मआत्माओं ने अक्षरातीत परब्रह्म से माया देखने की इच्छा की थी । उनकी इच्छा पूरी करने के लिए सच्चिदानन्द परब्रह्म ने अपनी आत्माओं को वहां बैठे-बैठे दृष्टि (सुरता) मात्र से यह मायावी खेल दिखाया है । परमधाम की आत्मायें इस मायावी जगत में अपने प्राणवल्लभ अक्षरातीत को भूल गयी हैं । उनको जागृत करने के लिए स्वयं परब्रह्म इस कलयुग मे पधारे है।
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