अछर अछररातीत कहावहि, सो भी कहियत इत सब्द ।
सब्दातित क्यों पाबही, ए जो दुनिया हद ॥
कि. १०७/७
आज सब परमात्मा के नाम पे झगड़ रहे हैं सब अपने अपने नाम बना उसी की पूजा कर रहे है दूसरा नाम आते ही उसको अग्यान का रूप मानते है ,ये हाल सबका है सबके लिए वही केवल परमात्मा है जो उन्होंने अपने गुरु से सीखा है उसके अलावा कुछ भी न सुनने को तैयार है न मानने को कोई राम को परमात्मा मानता है कोई कृष्ण को कोई अल्लाह को कोई नारायण को कोई निराकार को आदि आदि और अग्यान के कारण ही प्रमात्मा जो की अन्नत है उस असीम को भी समप्रदाय के बन्धन मे समझते है और अपने सम्प्रदाय को श्रेषट मान्ते हैं ..
""हद तो तब हो जाती है जब अपने आप को एक ही सम्परदाय के मान्ने वाले लोग भी आपस में उसके नाम पर लडते हैं""..
पर ये नाम तो यहीं के है हम जैसे ही है हमारी बुद्धि केवल इन्हे ही ग्रहण करती है इसलिए मूल तत्व से दूर रह जाती है नामों में ही उलझी रहती है ..क्योंकि बुद्धि जीव के विषय ग्रहण करती है और जीव की हद केवल निराकार या साकार तक ही है यहीं से शब्द उतपन्न होते है जिसको बुद्धि ग्रहण करती है ..परमात्मा जिस भी शरीर से हमे ज्ञान देने आये हमने उस शरीर को ही परमात्मा मान लिया जबकि सार तत्व हमसे दूर ही रहा जिसकारण ज्ञान का प्रकाश नही हो पाया और अज्ञानता वष उसके नाम पर ही आपस में लड़ने लगे ..सबने अपने अलग परमात्मा बना लिए ..कई लोग तो नाम जप कर ही पार उतरने की सोच रहे है जबकि वाणी कहती है ..
""अछर अछररातीत कहावहि, सो भी कहियत इत सब्द ।
सब्दातित क्यों पाबही, ए जो दुनिया हद ""
इसलिए सब्दो में न उलझ कर मूल तत्व की खोज करनी चाहिए ..
अकृत्वा दृश्यविलमज्ञात्वा तत्त्वमात्मनः।
बाह्य शब्दै: कुतो मुक्तिरुक्तिमात्रफलैर्नृणाम्।।
(विवेक चूड़ामणि—६५)
विना दृश्य प्रपंच का विलय किये और बिना ‘आत्मतत्त्वम्’ को जाने, केवल बाह्य शब्दों से जिनका फल केवल उच्चारण मात्र ही है, मनुष्यों की मुक्ति कैसे हो सकती है..
प्रणाम जी
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