भी बेवरा वासना जीव का , याके जुदे जुदे हैं ठाम ।
जीव का घर है नींद में , वासना घर श्री धाम ।।
आत्मा और जीव में यह भी अन्तर है कि इनके मूल घर अलग-अलग हैं । जीव का मूल घर नींद (निराकार) में है तथा आत्मा का मूल घर परब्रह्म का अनादि एवं अखण्ड परमधाम है ।आत्मा और जीव में यह भी अन्तर है कि झूठा जीव स्वप्न से उत्पन्न होने के कारण नींद (निराकार) को पार नहीं कर पाता । जबकि आत्मायें निराकार एवं अक्षरधाम को भी पार करके अपने मूल घर अखण्ड परमधाम में पहुँच जाती हैं ।
श्रुति के कथनानुसार नारायण ही जीवों के साक्षात् परब्रह्म हैं और जीव उनका प्रतिभास रूप हैं। जीव स्वतन्त्र नही हैं, अपितु पराधीन हैं । वे मोह, अविद्या और अहंकार से ही बने हैं और जन्म-मरण एवं सुख-दुःख (कर्मफल भोग) के चक्र में ही फँसे रहते हैं । जीव माता के गर्भ में प्रवेश करता है । मनुष्य शरीर के अतिरिक्त जीव अनेक योनियों में भी शरीर (जीवन) धारण करता है । नारायण का स्वप्न टूटते ही अर्थात् महाप्रलय होते ही जीव उनमें समा जाते हैं ।
आत्मा अनादि और अखण्ड है । वह कभी गर्भ में नहीं आती, अपितु जन्म के पश्चात् ही शरीर में प्रवेश करती है । आत्मा कभी भी मनुष्य तन के अतिरिक्त किसी अन्य योनि में शरीर धारण नहीं करती । परब्रह्म का स्वरूप होने से वह प्रेम व आनन्द में मग्न रहती हैं । वे एक क्षण के लिए भी उनसे अलग नहीं हो सकती |
प्रणाम जी
जीव का घर है नींद में , वासना घर श्री धाम ।।
आत्मा और जीव में यह भी अन्तर है कि इनके मूल घर अलग-अलग हैं । जीव का मूल घर नींद (निराकार) में है तथा आत्मा का मूल घर परब्रह्म का अनादि एवं अखण्ड परमधाम है ।आत्मा और जीव में यह भी अन्तर है कि झूठा जीव स्वप्न से उत्पन्न होने के कारण नींद (निराकार) को पार नहीं कर पाता । जबकि आत्मायें निराकार एवं अक्षरधाम को भी पार करके अपने मूल घर अखण्ड परमधाम में पहुँच जाती हैं ।
श्रुति के कथनानुसार नारायण ही जीवों के साक्षात् परब्रह्म हैं और जीव उनका प्रतिभास रूप हैं। जीव स्वतन्त्र नही हैं, अपितु पराधीन हैं । वे मोह, अविद्या और अहंकार से ही बने हैं और जन्म-मरण एवं सुख-दुःख (कर्मफल भोग) के चक्र में ही फँसे रहते हैं । जीव माता के गर्भ में प्रवेश करता है । मनुष्य शरीर के अतिरिक्त जीव अनेक योनियों में भी शरीर (जीवन) धारण करता है । नारायण का स्वप्न टूटते ही अर्थात् महाप्रलय होते ही जीव उनमें समा जाते हैं ।
आत्मा अनादि और अखण्ड है । वह कभी गर्भ में नहीं आती, अपितु जन्म के पश्चात् ही शरीर में प्रवेश करती है । आत्मा कभी भी मनुष्य तन के अतिरिक्त किसी अन्य योनि में शरीर धारण नहीं करती । परब्रह्म का स्वरूप होने से वह प्रेम व आनन्द में मग्न रहती हैं । वे एक क्षण के लिए भी उनसे अलग नहीं हो सकती |
प्रणाम जी
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