Wednesday, December 28, 2016

ग्यान और अग्यान ..

कभी भूलकर भी मत कहना की इस या उस संत ने बृह्म को प्राप्त किया है. बृह्म को प्राप्त वो कर सकता है जो बृह्म से बडा हो , जो प्राप्त हो सके वो बृह्म नही है. बृह्म तो सदा से ,अनादी काल से तुम में ही है.. फिर कया प्राप्त करना चाहते हो . कया ये घोर अग्यान नही है कि तुम उसे प्राप्त करना चाहते हो जो तुम में ही है.. बस तुम उसके तुममें होने के बोध में नही हो .. वो तुममें है सदा से ,निरंतर , इस बोध में बोधित रहना ही ग्यान है, योग है, प्रेम है, अदूैत भाव है, शुद्ध अन्यता है, अखंड आनंद है,

इस विषय के समानान्तर ही ओशो के विचार है..
जो कहते हैं : हमें परमात्मा का दर्शन हुआ है, वे गलत ही बात कहते हैं।

दर्शन तो पराए का हो सकता है, स्वयं का कैसे दर्शन होगा!

स्वयं के दर्शन का कोई उपाय नहीं है।

आत्म—दर्शन शब्द भी गलत है।

आत्म—अनुभूति होती है, दर्शन नहीं होता।

दर्शन का तो मतलब है दो हो गए—द्रष्टा और दृश्य।
वहां तो एक ही है, वहां कोई द्रष्टा नहीं, कोई दृश्य नहीं।

एक पुलक होती है; एक भाव—दशा होती है।

जिसको बुद्ध संवेग कहते हैं।
एक संवेग होता है। तुम जान लेते हो, बिना जाने।
पहचान लेते हो, बिना पहचाने।
सामने कोई दिखायी नहीं पड़ता।

असल में तो
जब सामने कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता,

जब सब दृश्य खो जाते हैं,
|| ओशो ||

..इसी बोध के बिषय में वेद कहता है..

"" प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मै जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है (यजुर्वेद ३१/१८) """

अर्थात उसे पाना नही है वो तुममें है ये जान्ना है..पाया हूआ है सदा से ,बस उस पाई हुई स्थिती को जानलो बस मिल गया आनंद, वेद भी बार बार यही कह रहा है..की

""उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ )""
*अर्थात पाना नही है, वो तुममें ही है ये जान्ना है..*
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प्रणाम जी

Tuesday, December 27, 2016

*निस्काम होना कया है?*

निष्काम भक्ति का अर्थ है जिसमें कोई भी कामना ना हो.. इसको समझना थोडा कठिन हो सकता है..कयोंकी हमें जो बताया या रटवाया गया है वो केवल साकाम ही है , इसलिय निष्काम भाव हमारे लिय नया विषय है जिसको पचा पाना थोडा कठिन हो सकता है.. आइये निष्काम भाव को जान्ने का प्रयास करते हैं.. अगर एक लाइन में समझें तो..

*साकाम याने जो हमसे अलग है अर्थात जो हमारे पास नही है उसकि कामना साकाम है..*
*और जो हमसे अलग नही है जो हमारा है उसकी कामना नही होती.. उसके प्रती हम निस्काम रहते है..*
पर केवल इतने से समझ में आने वाला नही है इसलिय इसे एक उदाहरण से समझें ---

*साकाम का अर्थ है केवल परमात्मा को चाहना याने अन्नय भाव!!!*
*जिसे आप निस्काम समझते हो वो साकाम है*
*तो निस्काम कया है*
कया दूध में सफेदी कि कामना है??
कया फूल में सुगंध कि कामना है ??
कया पानी मे प्यास कि कामना है ??
कया पृथ्वी में मिट्टी कि कामना है ??
कया पेड़ मे लकडी कि कामना है ??

उत्तर है नही नही नही

ध्यान दो सवंय से अलग विषय कि कामना होती है .
और सवंय के विषय मे हमारी निरंतर स्थिती रहती है .. ये निष्काम है
जैसे दूध में सफेदी स्थित है याने वो कामना रहीत है वो दूध कि स्थिती है , वो निष्काम ही है सदा से है सदा रहेगी इसमें कामना नही है..

जैसे आपका पांव या हाथ है..कया आप उसकि कामना करते हो ? नही कयोंकि ये आपमें स्थित है ये आपकि स्थिती है.. पांव या हाथ कि कामना वो करता है जिसके पाव या हाथ नही हैं..

*ध्यान देना*

हम आत्मा परामात्मा मे निरंतर स्थित है और परमात्मा आत्मा में स्थित है ये अदूैत भाव आत्मा और परमात्मा का निरंतर संबंध है यही आनंद है ..
जब आत्मा और परमात्मा एकरस, एकदिलि, या अदूैत है तो कामना किसकी .. ये तो आत्मा कि स्थिती है ... इसी भाव में आना निष्काम भक्ती है .
जबतक तुम परमात्मा को खुदसे अलग मानते हो तो तुम्हारी ये मान्यता ही साकाम भक्ति है ..इसलिय उसको पाने कि कामना करते हो, यही कामना ही तो साकाम भक्ती है..परमात्मा को पाने की कामना का आरोप लेना ही साकामता है ...
और जो सवंय मे स्थित है उसके लिय कामना नही होती ये निष्कामता है..इसमें कोई आरोप नही है, बस आप परमात्मा में स्थित हो और परमात्मा आपमें स्थित है ..यही आपकी याने आत्मा की स्थिती है बताओ इसमें कामना कया है..ये भाव ही निष्काम है ..हमें इसी स्थिती मे आना है , तो फिर  निष्काम है ..यही हमारा याने आत्मा का स्वभाव है बस हमें अपने स्वभाव में आना है...

इसी विषय पर श्री प्राणनाथ जी ने कहा है .
*अर्ष तुमहारा मेरा दिल है* और ऐसी अनेकों चौपाइयां है ..इस भाव से ढूंडोगे तो मिल जायेंगी

इसी विषय पर कबीर जी ने भी कहा है ..
*जल में रहकर मीन प्यासी, देख देख आवत मोहे हासी*

*पुर्ण विषय के लिय संगत आव्यश्यक है*
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प्रणाम जी

Monday, December 26, 2016

*ये मिथ्या है इसमें मत उल्झो...*

चारो वणोॅके नर - नारियोंको चौदह विध्याकी शिक्षा भी माया ही देती हैं . तथापि सबके ह्यदयमें मोह और निद्रा का आवरण डालकर यही माया उनको नचाती रहती हैं .

*चौदह विद्या है:-*
चार वेद ( ऋगवेद , यजुसवेॅद , सामवेद , अथवॅवेद )

छः वेदांग ( शिक्षा , कल्प , व्याकरण ,निरूत्क , ज्योतिष ,  छन्दशास्त्र ) और मिमांसा , न्याय ,धमॅशास्त्र एवं पूराण .

अथवा निम्न चौदह कलाओंको भी चौदह विध्या माना गया है .
नृत्य , संगीत , पढना , सीना , घर सजाना , भाषा सिखना , शस्त्र बनाना , औषधि बनाना ,
चित्रकारी , कढाई , बुनाई , खेती करना , पुष्प सजाना , श्रृंगार करना

परन्तु लोग इन सबमें सवंय का आनंद ढूंड़ने का प्रयास करते हैं..

आज के समय में सबसे ज्यादा भ्रम में डालने वाला संगीत है, जिसमे मिलने वाले सवंय के आनंद को न समझ पाने के कारण लोग उसमें आनंद जानकर भ्रमित व बाह्यमुखि हुये रहते है..
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Tuesday, December 13, 2016

सुप्रभात जी

कालमाया के ब्रह्माण्ड में द्वैत की लीला है अर्थात् जीव (नारायण, त्रिदेव, देवी-देवता, मनुष्य, अन्य चराचर प्राणी) तथा प्रकृति (माया) की लीला है । इसमें जन्म-मरण , सुख-दुःख का चक्र चलता रहता है । स्थूल व शुक्ष्म अहंकार रूपी कड़ी जब तक नहीं छूटती, तब तक संसार झूठा होते हुए भी सच्चा लगता है और उसे कोई छोड़ना नहीं चाहता । जब तक जीव का स्थूल व शुक्ष्म अहंकार नष्ट नहीं होगा तब तक आवागमन का चक्र समाप्त नहीं हो सकता । अतः नारायण से लेकर जीवों तक यह सारी सृष्टि मोह  रूप है । ब्रह्मज्ञान,तारतम,अदूैत या प्रेम का मार्ग पकड़कर ही इस स्थूल व शुक्ष्म रूपी भवसागर को पार किया जा सकता है ।
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प्रणाम जी

Friday, December 9, 2016

खोल आंखें रूह नूर की, क्यों नूर न देखे बेर बेर।
क्यों न आवे बीच नूर के, ज्यों नूर लेवे तोहे घेर।।
(श्री प्राणनाथ वाणी)
हे मेरी आत्मा ! अब तू अपनी अदूैत रूपी मनोहर आंखों को खोल, तू अपने हृदय में अखंडअदूैत आनंद रुपि परमधाम की इस नूरमयी शोभा को बार-बार क्यों नहीं देख रही है ? तू इस दूैत के मायावी जगत को छोड़कर इस अदूैत नूरी धाम में क्यों नहीं आ जाती, जहाँ तेरे चारों ओर नूर ही नूर(आनंद) घिरा (फैला) हुआ है ?
भावार्थ-
परात्म का स्वरूप अखंड आनंद से नूरमयी है। यद्यपि इस संसार में अखंड आनंद नहीं आ सकता, क्योंकि इस *'अर्स की एक कंकरी, उड़ावे चौदे तबक।।‘ श्रृ. 21/39* ।
आत्मा प्रतिबिम्ब है परात्म की, इसलिये आत्मा के नेत्रों को अति सुन्दर (नूरमयी) कहा गया है। इस चौपाई में  सब को अपने अदूैत रूपी आत्मिक नेत्रों को खोलने का निर्देश दिया है।

प्रणाम जी

Thursday, December 8, 2016

बाहर मत ढूंडो

अरस कहिये दिल तिन का, जित है हक सहूर|
इलम इसक दोऊ हक के, दोऊ हक रोसनी नूर||

उन्ही आत्माओं का दिल वस्तुतः परमधाम कहा गया है, जहाँ पर हर पल परमात्मा का से योग, उन्ही का प्रेम रहता है| वस्तुतः ज्ञान और प्रेम, दोनों ही श्री परमात्मा के तेजोमय प्रकाश स्वरुप की अमूल्य निधियाँ हैं| इसलिय जब परमात्मा को हम हृदय मे अनुभव करने लगते हैं तो ग्यान और प्रेम स्वतः ही उत्पन्न होने लगता है..

बृहच्च तद् दिव्यमचिन्त्यरूपं सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति ।
दूरात् सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यन्त्विहैव निहितं गुहायाम् ॥७॥
(मुण्डक)

बृह्म सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है बाहर ढूंडने वालो के लिय वो दूर से भी दूर है पर जो हृदय मे धारते हैं उनके लिय वो अन्दर ही घुलमिलकर रहता है..

न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मण वा ।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ॥८॥

(मुण्डकोपनिषद् )

परमात्मा को न तो इन आंखों से देखा जा सकता है, न वचनों को सुनने से और न ही अन्य इंद्रियों के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति संभव है। तपस्या एवं कर्मो से भी परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती।  जब उनको अंतर हृदय मे धारण करते हैं तब ज्ञान मय होते है तभी जीव के अंतर में अन्य किसी प्रकार की चाह नही रह जाती तभी जीव ब्रह्म का ध्यान करते हुए परमात्मा का दर्शन करता है। satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी

Thursday, December 1, 2016

*मैं सवंय कौन हूं??*
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इस संसार आडम्बर में मैं कौन हूँ जो बोलता हूँ?? देह और यह जगत् तो मैं नहीं, यह तो असत्य उपजा है और जड़रूप पवन से स्फुरणरूप होता है सो मैं कैसे होऊँ?

यह देह भी मैं नहीं क्योंकि यह तो क्षण-क्षण में काल से लीन होता है और जड़ रूप है।

श्रवणरूपी जड़ भी मैं नहीं, क्योंकि जो शब्द सुनते हैं वह शून्य से उपजा है

त्वचा इन्द्रिय भी मैं नहीं इसका क्षण-क्षण विनाश स्वभाव है।

 प्राप्त हुआ अथवा न हुआ, यह इष्ट है, यह अनिष्ट है, इन्द्रियाँ आप जड़ हैं पर इनके जानने वाला चैतन्य तत्त्व है और चैतन्य के प्रमाद से ये विषय उपलब्धहोते हैं । इससे न मैं त्वचा इन्द्रिय हूँ, और न स्पर्श विषय हूँ, यह जड़ात्मक है

यह जो चच्चलरूपी तुच्छ जिह्वा इन्द्रिय है और जिसके अग्र में अल्प जल अणु स्थित है वही रस ग्रहण करता है, वह रस भी जीवसत्ता करके लब्धरूप होता है वो आप जड़ है,
इससे यह जड़रूप जिह्वा और रस मैं नहीं

ये जो विनाशरूप नेत्र दृश्य के दर्शन में लीन हैं सो मैं नहीं और न मैं इनका विषयरूप हूँ, ये जड़ हैं । यह जो नासिका पृथ्वी का अंश है सो केवल जीव के आधार है यह आप जड़ है पर इसका जाननेवाला चैतन्य है, सो न मैं नासिका हूँ, न गन्ध हूँ, मैं अहं मम से और मन के मनन से रहित शान्तरूप हूँ और ये पञ्च इन्द्रियाँ मेरे में नहीं

*मैं शुद्ध चैतन्यरूप कलना कलंक से और चित्त से रहित चिन्मात्र  निःसंकल्प निर्मल शान्तरूप हूँ ।* अब मुझको अपना स्वरूप स्मरण आता है । *प्रकाशकरूप चैतन्य अनुभव अद्वैत मेरे अनुभव से स्थित है*।
मेरी एक और *मैं* सवंय प्रकृती के साथ स्थित था जिस कारण मेरा मन अन्नत प्रयास के बाद भी अदूैैत परमात्मा में नही लग रहा था.. सदा से मैं सवंय प्रकाशकरूप चैतन्य  अद्वैत परमात्मा में स्थित हूं , अब में इस बोध से बोधित होकर *बुद्ध* हो गया हूतो मन आदी भी अब यहीं है..

इसलिय सवंयम की खोज करने से मूल तत्व का मार्ग मिलेगा..
*पेहेले आप पेहेचानो रे साधो, पेहेले आप पेहेचानो ।बिना आप चीन्हें पार ब्रह्मको, कौन कहे मैं जानो।।*
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प्रणाम जी