Friday, December 9, 2016

खोल आंखें रूह नूर की, क्यों नूर न देखे बेर बेर।
क्यों न आवे बीच नूर के, ज्यों नूर लेवे तोहे घेर।।
(श्री प्राणनाथ वाणी)
हे मेरी आत्मा ! अब तू अपनी अदूैत रूपी मनोहर आंखों को खोल, तू अपने हृदय में अखंडअदूैत आनंद रुपि परमधाम की इस नूरमयी शोभा को बार-बार क्यों नहीं देख रही है ? तू इस दूैत के मायावी जगत को छोड़कर इस अदूैत नूरी धाम में क्यों नहीं आ जाती, जहाँ तेरे चारों ओर नूर ही नूर(आनंद) घिरा (फैला) हुआ है ?
भावार्थ-
परात्म का स्वरूप अखंड आनंद से नूरमयी है। यद्यपि इस संसार में अखंड आनंद नहीं आ सकता, क्योंकि इस *'अर्स की एक कंकरी, उड़ावे चौदे तबक।।‘ श्रृ. 21/39* ।
आत्मा प्रतिबिम्ब है परात्म की, इसलिये आत्मा के नेत्रों को अति सुन्दर (नूरमयी) कहा गया है। इस चौपाई में  सब को अपने अदूैत रूपी आत्मिक नेत्रों को खोलने का निर्देश दिया है।

प्रणाम जी

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