*प्रश्न- परमात्मा से प्रेम बढ़ाने का कया उपाय है ? कृपया समाधान करें |*
उत्तर- प्रेम में घटना-बढ़ना, कम या ज्यादा नही होता | जिसे तुम बढ़ाने की बात कर रहे हो वो प्रेम नही है ये सौदा है व्यापार है, इसमें एक भाव छिपा रहता है की मैं आपसे प्रेम करूंगा तो तुम मुझे अपने पास बुला लोगे या मुझे पार उतार दोगे, ये व्यपार कर रहे हो| प्रेम की बात में मैं और तूं काहां से आ गया ? जाहां मैं और तू है वो प्रेम नही है.. ध्यान देना जब मैं नही और तू नही जब प्रेम है | तो प्रेम कया है ?? और कैसे होता है ?
परमात्मा से भूलकर भी प्रेम करने का प्रयास मत करना वरना परमात्मा से बहोत दूर हो जाओगे ..
कयोंकि ऐसा करोगे तो तुम परमात्मा के लिय रोओगे, उस से मिलने कि प्रार्थना करोगे, और ये सारे प्रयास तुम्हे परमात्मा से अलग कर देंगे..
कयोंकि परमात्मा इन सबसे नही मिलेंगे बल्कि प्रेम से मिलेंगे.?????? ये कया , प्रेम नही करना और प्रेम से मिलेंगे ??? जी हां , ऐसा इसलिय कयोंकि हम जिसे प्रेम समझते आये हैं वो प्रेम नही है , ये तो परमात्मा से अलगाव है, ये प्रेम नही कर रहे अपितु परमात्मा को अपने से दूर मान्ने का अभ्यास कर रहे हो.. ये प्रेम नही अल्गाव है,तो प्रेम कया है?? प्रेम रस है, प्रेम एक रूपता है , प्रेम में और तू नही है , प्रेम केवल "है" है ,
जैसे फूल में सूगंध है, ये प्रेम है.
दूध में सफेदी है, ये प्रेम है.
पृथ्वी में मिट्टि है, ये प्रेम है.
अग्नी में उष्मा है, ये प्रेम है.
ये "है" कभी अलग नही होता ,ऐसे ही आत्मा में परमात्मा है और परमात्मा में आत्मा है , ये होना नही है , ये सदा से है ,यहि प्रेम है.
ये जो आत्मा और परमात्मा को अलग मानते हो यही सारी बिमारी की जड़ है.. इनकी एकरूपता ही प्रेम है..
अब सोचो अगर दूध की सफेदी दूध से मिलना चाहे उसके लिय रेय तो ये इसलिय है कयोंकी उसने खुद को दूध से अलग होने कि मान्यता कर रख्खी है.. अगर वो ये मान्यता सदा रख्खे तो वो दूध मे होते हुये भी दूध से अल्गाव भाव में रहेगी.. और वो अपनी ये झूठी मान्यता हटा दे तो फिर प्रेम है
, ऐसा नही है कि ये प्रेम अभी हुआ है ,ये तो सदा से है बस झूठी मान्यता के कारण हमें आभास नही हो रहा ,, इसलिय तुम्हारे बहोत प्रयास के बाद भी तुम निरंतर परमात्मा में नही लग पाते कयोंकि जिस अवस्था में तुम निरंतर परमात्मा में हो सदा से , तुमने उससे उलट मान्यता कर रखी है कि मैं परमात्मा से अलग हूं फिर कैसे निरंतर होगे..जैसे अग्नी में उष्मा है निरंतर , यही एकरसता प्रेम है.. जबतक आपकी उपस्थिती रहेगी प्रेम को नही समझपाओगे.. ये अहं समाप्त होगा तभी प्रेम दिखेगा जिसमे करना नही होता कयोंकी करने में तुम रहते हो.. करना प्रेम नही है होना प्रेम है और ये होना करना नही होता ये तो है यदा से इसलिय करने का प्रयास करोगे तो अहं आ जायेगा फिर प्रेमी हो जाओगे और प्रेम से दूर हो जाओगे..
*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।*
(श्री प्राणनाथ वाणी)
*जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।*
(कबीर)
*एक आशिक अपनी प्रेमिका के घर पहुँच दरवाजा खटखटाता है प्रेमिका नें पूछा कौन है प्रेमी नें जवाब दिया मैं हूँ प्रेमिका नें बगैर दरवाजा खोले कहा अच्छा अभी तक ""मैं""जिन्दा है तो यहाँ दो आदमी की जगह नहीं जब मैं खत्म हो जाऐ तब आना*
...मूल सत्य तो इस से भी गहन है..
Www.facebook.com/kevalshudhsatye
प्रणाम जी
उत्तर- प्रेम में घटना-बढ़ना, कम या ज्यादा नही होता | जिसे तुम बढ़ाने की बात कर रहे हो वो प्रेम नही है ये सौदा है व्यापार है, इसमें एक भाव छिपा रहता है की मैं आपसे प्रेम करूंगा तो तुम मुझे अपने पास बुला लोगे या मुझे पार उतार दोगे, ये व्यपार कर रहे हो| प्रेम की बात में मैं और तूं काहां से आ गया ? जाहां मैं और तू है वो प्रेम नही है.. ध्यान देना जब मैं नही और तू नही जब प्रेम है | तो प्रेम कया है ?? और कैसे होता है ?
परमात्मा से भूलकर भी प्रेम करने का प्रयास मत करना वरना परमात्मा से बहोत दूर हो जाओगे ..
कयोंकि ऐसा करोगे तो तुम परमात्मा के लिय रोओगे, उस से मिलने कि प्रार्थना करोगे, और ये सारे प्रयास तुम्हे परमात्मा से अलग कर देंगे..
कयोंकि परमात्मा इन सबसे नही मिलेंगे बल्कि प्रेम से मिलेंगे.?????? ये कया , प्रेम नही करना और प्रेम से मिलेंगे ??? जी हां , ऐसा इसलिय कयोंकि हम जिसे प्रेम समझते आये हैं वो प्रेम नही है , ये तो परमात्मा से अलगाव है, ये प्रेम नही कर रहे अपितु परमात्मा को अपने से दूर मान्ने का अभ्यास कर रहे हो.. ये प्रेम नही अल्गाव है,तो प्रेम कया है?? प्रेम रस है, प्रेम एक रूपता है , प्रेम में और तू नही है , प्रेम केवल "है" है ,
जैसे फूल में सूगंध है, ये प्रेम है.
दूध में सफेदी है, ये प्रेम है.
पृथ्वी में मिट्टि है, ये प्रेम है.
अग्नी में उष्मा है, ये प्रेम है.
ये "है" कभी अलग नही होता ,ऐसे ही आत्मा में परमात्मा है और परमात्मा में आत्मा है , ये होना नही है , ये सदा से है ,यहि प्रेम है.
ये जो आत्मा और परमात्मा को अलग मानते हो यही सारी बिमारी की जड़ है.. इनकी एकरूपता ही प्रेम है..
अब सोचो अगर दूध की सफेदी दूध से मिलना चाहे उसके लिय रेय तो ये इसलिय है कयोंकी उसने खुद को दूध से अलग होने कि मान्यता कर रख्खी है.. अगर वो ये मान्यता सदा रख्खे तो वो दूध मे होते हुये भी दूध से अल्गाव भाव में रहेगी.. और वो अपनी ये झूठी मान्यता हटा दे तो फिर प्रेम है
, ऐसा नही है कि ये प्रेम अभी हुआ है ,ये तो सदा से है बस झूठी मान्यता के कारण हमें आभास नही हो रहा ,, इसलिय तुम्हारे बहोत प्रयास के बाद भी तुम निरंतर परमात्मा में नही लग पाते कयोंकि जिस अवस्था में तुम निरंतर परमात्मा में हो सदा से , तुमने उससे उलट मान्यता कर रखी है कि मैं परमात्मा से अलग हूं फिर कैसे निरंतर होगे..जैसे अग्नी में उष्मा है निरंतर , यही एकरसता प्रेम है.. जबतक आपकी उपस्थिती रहेगी प्रेम को नही समझपाओगे.. ये अहं समाप्त होगा तभी प्रेम दिखेगा जिसमे करना नही होता कयोंकी करने में तुम रहते हो.. करना प्रेम नही है होना प्रेम है और ये होना करना नही होता ये तो है यदा से इसलिय करने का प्रयास करोगे तो अहं आ जायेगा फिर प्रेमी हो जाओगे और प्रेम से दूर हो जाओगे..
*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।*
(श्री प्राणनाथ वाणी)
*जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।*
(कबीर)
*एक आशिक अपनी प्रेमिका के घर पहुँच दरवाजा खटखटाता है प्रेमिका नें पूछा कौन है प्रेमी नें जवाब दिया मैं हूँ प्रेमिका नें बगैर दरवाजा खोले कहा अच्छा अभी तक ""मैं""जिन्दा है तो यहाँ दो आदमी की जगह नहीं जब मैं खत्म हो जाऐ तब आना*
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प्रणाम जी
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