Thursday, February 8, 2018

 जो सत्य को पाना चाहता है, वह जानले कि उसे सत्य की कोई कल्पना, कोई धारण स्वीकार नहीं करनी है। उस स्वीकार पर ही साधना का आत्मघात हो जाता है।
सत्य को पाने के लिए चित्त के द्वारा दिये गये सारे प्रलोभनों को छोड़ने का साहस चाहिए। चित्त द्वारा प्रदत्त कोई भी विकल्प स्वीकार नहीं करना है। तभी वह निर्विकल्प अवस्था आती है, जो स्वयं के सामने स्वयं को प्रत्यक्ष कर देती है। उसके पूर्व बहुत-कुछ आता है जो कि सत्य नहीं है। और उसमें जो उलझता है, वह और कुछ भी जान ले, स्वयं को नहीं जानता है। स्वयं को कभी भी जिज्ञासु की भांति नहीं जाना जाता है। इसलिए, जब तक कुछ भी जानने वाला शेष है, तब तक जानना कि साक्षात 'पर' का है, 'स्व' का नहीं। जानने वाला जब अशेष है, तब जो शेष रह जाता है, वही ज्ञान है, वही स्व है, वही सत्य है।
*'साधना के मार्ग में यदि स्वयं भगवान भी मिलें, तो उन्हें राह से दूर कर देना*।'
मैं यही कहता हूं। ज्ञान की धारा में जब कोई जानने वाला नहीं है, और दर्शन को, देखने को जब कुछ शेष नहीं है, तभी वह मिलता और जाना जाता है, जो कि सत्य है।
एक सद्गुरु ने भी एक दिन यही कहा था। उसके एक शिष्य ने सुना। उसने अपनी कुटिया पर लौट सारी मूर्तियां तोड़ डालीं और सारे ग्रंथ जला डाले। और जाकर अपने गुरु से कहा कि मैं वह सब नष्ट कर आया हूं, जो कि सत्य के आगमन में बाधक हैं। उसका गुरु उसकी बात सुन बहुत हंसने लगा था और उसने कहा था, 'पागल, उन ग्रंथों को जला, जो तेरे भीतर हैं और उन मूर्तियों को तोड़, जो तेरे चित्त की अतिथि बन गयी हैं।'

 पूजागृहों को उजाड़ने से क्या होगा, जब तक कि यह सर्जक मान्यता जीवित है, जो कि प्रतिक्षण नये पूजागृह बना लेता है..

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