Saturday, June 30, 2018

मैं परमात्मा को नहीं मानता

एक युवक ने कहा, 'मैं परमात्मा को नहीं मानता हूं, मैं स्वतंत्र हूं।' मै कहता हूं यह स्वतंत्रता नहीं पागलपन है।
क्यों है, यह पागलपन? क्योंकि अपने को अस्वीकार किए बिना परमात्मा को अस्वीकार करना असंभव है।
एक कहानी है : किसी के घर पर एक छोटा बच्चा था। वह खेलते खेलते बढ़ते-बढ़ते, आज्ञा मानते-मानते थक गया था। उसका मन परतंत्रता से ऊब गया था और फिर एक दिन उसने भी स्वतंत्र होना चाहा । वह जोर से चिल्लाया  कि सारा आकाश सुन ले, 'मैं अब बढ़ूंगा नहीं!'
'मैं अब बढ़ूंगा नहीं!'
यह विद्रोह निश्चय ही मौलिक था, क्योंकि स्वभाव के प्रति ही था। उसके पिता ने कहा, 'न बढ़ो, बढ़ने की आवश्यकता ही क्या है?' वह खुश हुआ, विद्रोह सफल हुआ था। वह न बढ़ने के श्रम में लग गया। पर बढ़ना न रुका, न रुका। वह बढ़ने में लगा रहा और बढ़ता गया और उसका पिता ये  पहले से जनता था ।

यही स्थिति है। परमात्मा या आनंद हमारा स्वभाव है। वह हमारा आंतरिक नियम है। उससे दूर नहीं जाया जा सकता है। वह हुए बिना कोई मार्ग नहीं है। कितना ही अस्वीकार करें, कितना ही स्वतंत्र होना चाहें उससे, पर उससे मुक्ति नहीं है, क्योंकि वह हमारा स्व है। वस्तुत: वह ही है और हम कल्पना हैं। इसलिए कहता हूं : उससे नहीं, उसमें, स्वयं में ही मुक्ति है।

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Thursday, June 28, 2018

धर्म विज्ञान है

एक विद्वान हैं और खूब पढ़ा-लिखा है। बहुत तर्क उन्होंने इकटं्ठे किये हैं। मैंने वह सब शांत हो सुने। और फिर सिर्फ एक ही बात पूछी है कि क्या इन सारे विचारों से शांति और आनंद उन्हें मिला है?
इस पर वे थोड़ा सकुचा गये हैं और उत्तर नहीं खोज पाए हैं।
सत्य की कसौटी तर्क नहीं है। सत्य की कसौटी विचार नहीं है। सत्य की कसौटी है आनंदानुभूति।  जो विचार-दर्शन है वो यहां नहीं लेकर आ सकता, ये सब विचार तो अविचार ही ज्यादा है। इससे, मैंने उनसे कहा, 'मैं आपकी बातों का विरोध नहीं करता हूं। बस, आपसे ही- अपने आपसे यह प्रश्न पूछने की विनय करता हूं।'

धर्म विचार नहीं है। वह तो आनंदमय हो जाने का एक विज्ञान मात्र है। उसकी पोहोच विवाद में नहीं, प्रयोग में है। 

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Tuesday, June 26, 2018

भय क्या है

भय क्या है,

क्या मृत्यु का भय है

"नहीं"

यह मृत्यु का भय नहीं है? मृत्यु तो अज्ञात है। वह तो अपरिचित है। उसका भय कैसे होगा? जो ज्ञात ही नहीं है, उससे संबंध भी क्या हो सकता है?

वस्तुत: जिसे हम मृत्यु का भय कहते हैं, वह मृत्यु का न होकर, जिसे हम जीवन जीवन जानते हैं, उसके खोने का डर है। जो ज्ञात है, उसके खोने का भय है। जो ज्ञात है, उससे हमारा संबंध है। वह हमारा होना बन गया है। वही हमारी सत्त बन गयी है। मेरा शरीर, मेरी संपत्ति, मेरी प्रतिष्ठ, मेरे संबंध, मेरे
संस्कार, मेरे विश्वास, मेरे विचार-यही मेरे 'मैं' के प्राण बन गये हैं। यही 'मैं' हो गया है। मृत्यु इस 'मैं' को छीन लेगी। यही भय है।
इस सबको इकट्ठा किया जाता है, भय से बचने, सुरक्षा पाने को और होता उलटा है- इसे खोने की आशंका ही भय बन जाती है। मनुष्य साधारणत: जो भी करता है, वह सब जिसके लिए किया जाता है, उसके विपरीत चलता है।

आज्ञान से आनंद के लिए उठाये गये सब कदम दुख में ले जाते हैं। अभय के लिए किया गया कार्य और भय में ले जाता है।

 
जो 'स्व' की प्राप्ति मालूम होती है, वह 'स्व' नहीं है। यदि इस सत्य के प्रति जागना हो जाये- यदि मैं यह जान सकूं कि जिसे मैंने 'मैं' जाना है, वह 'मैं' नहीं हूं और इस क्षण भी मेरे तादात्म्य से मैं भिन्न और पृथक हूं, तो भय विसर्जित हो जाता है। मृत्यु में जो "मैं" नहीं है, वही खोता है।

इस सत्य को जानने के लिए कोई क्रिया, कोई उपाय नहीं करना है। केवल उन-उन तथ्यों को जानना है, उन-उन तथ्यों के प्रति जागना है, जिन्हें मैं समझता हूं कि 'मैं' हूं- जिनसे मेरा संबंध है। जागरण संबंध तोड़ देता है। जागरण 'स्व' और 'पर' को पृथक कर देता है। 'स्व' और 'पर' का नहीं जानना ही भय है और उनका पृथक बोध भय-मुक्ति है-अभय है।

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Monday, June 25, 2018

मंदिर में भगवान???

एक व्यक्ति मंदिर में जाता था, वहा के गुरु अपने शिष्यों को रोज धर्म ग्रंथो से प्रवचन देते थे, ओर वो मोन सुनता रहता था, पर एक दिन उसने वहां के गुरु को देख कर कहा 'मंदिर तो बहुत सुंदर है, पर भीतर भगवान की मूर्ति नहीं है।' गुरु ने सुना, उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। निश्चय ही वे शब्द उससे ही कहे गये थे। उसके ही सुंदर शरीर को उसने मंदिर कहा था। गुरु के क्रोध को देखकर वह युवक हंसने लगा। वह ऐसा ही था कि जैसे कोई जलती अग्नि पर और घृत डाल दे। गुरु ने उसे आश्रम से निकाल  दिया ।
फिर एक सुबह जब गुरु अपने धर्मग्रंथ का अध्ययन कर रहा था, वह युवक अनायास कहीं से आकर पास बैठ गया । वह बैठा रहा, गुरु पढ़ता रहा। तभी एक जंगली मधुमक्खी कक्ष में आकर बाहर जाने का मार्ग खोजने लगी । द्वार तो खुला ही था-वही द्वार, जिससे वह भीतर आयी थी, पर वह बिलकुल अंधी होकर बंद खिड़की से निकलने की व्यर्थ चेष्टा कर रही थी। उसकी भनभन मंदिर के सन्नाटे में गूंज रही थी। उस युवक ने खड़े होकर जोर से उस मधुमक्खी से कहा, 'ओ, नासमझ, वह द्वार नहीं, दीवार है। रुक और पीछे देख, जहां से तेरा आना हुआ है, द्वार वही है।'
मधुमक्खी ने तो नहीं, पर उस गुरु ने ये शब्द अवश्य सुने और उसे द्वार मिल गया। उसने युवक की आंखों में पहली बार देखा वह कोई साधारण नहीं है।

गुरु ने उससे कहा, 'मैं आज जान रहा हूं कि मेरा मंदिर भगवान से खाली है और मैं आज जान रहा हूं कि मैं आज तक दीवार से ही सिर मारता रहा हूं और मुझे द्वार नहीं मिला है। पर अब मैं द्वार को पाने के लिए क्या करूं? क्या करूं कि मेरा मंदिर भगवान से खाली न रहे?' उस युवक ने कहा, 'भगवान को चाहते हो, तो स्वयं से खाली हो जाओ। जो स्वयं भरा है, वही भगवान से खाली है। जो स्वयं से खाली हो जाता है, वह पाता है कि वह सदा से ही भगवान से भरा हुआ था। और इस सत्य तक द्वार पाना चाहते हो, तो वही करो, जो वह अब मधुमक्खी कर रही है।'
गुरु ने देखा मधुमक्खी अब कुछ नहीं कर रही है। वह दीवार पर बैठी है और बस बैठी है। उसने समझा, वह जागा। जैसे अंधेरे में बिजली कौंध गई हो, ऐसा उसने जाना और उसने देखा कि मधुमक्खी द्वार से बाहर जा रही है।

यह कथा मेरा पूरा संदेश है। यही मैं कह रहा हूं। भगवान को पाने को कुछ करना नहीं है, वरन सब करना छोड़कर देखना है। चित्त जब शांत होता है और देखता है, तो द्वार मिल जाता है। शांत और शून्य चित्त ही द्वार है। मधुमक्खी का द्वार भी वहीं था जहासे वो आयी थी, हमारा दुआर भी वहीं भाव है जब हम दुनिया में आए थे तो हमारा चित शांत था, वही हमारा बाहर निकले का दुआर है, परंतु हम भी वो दुआर छोड़ कर भिनभिना रहे हैं ओर दीवारों में सर मार रहे हैं ।

धर्म को सीख कर हमने धर्म पर लड़ना सीख लिया है, जो सीखा है वही हमारे लिए श्रेष्ठ है ओर हम पूरी उम्र उसी पे भिनभिनाते रहते है । *किसी ने कृष्ण सीखा है तो किसी ने श्रीजी, किसी ने राम तो किसी ने अल्लाह, किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ, सारे अपने आप को भर रहे हैं, कोई खाली नहीं होना चाहता, ये खाली ही हमारा दुआर है। 

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Sunday, June 24, 2018

"अमृत"

'मृत्यु क्या है?'
 'जीवन को हम नहीं जानते हैं, इसलिए मृत्यु है। स्व-को नहीं जानना मृत्यु है, अन्यथा मृत्यु नहीं है, केवल परिवर्तन है। 'स्व' को न जानने से एक कल्पित 'स्व' हमने निर्मित किया है। यही है हमारा 'मैं' -अहंकार।'
यह है नहीं, केवल आभास है। यह झूठी इकाई ही मृत्यु में टूटती है। इसके टूटने से दुख होता है, क्योंकि इसी से हमने अपना "होना" स्थापित किया था। जीवन में ही इस भ्रांति को पहचान लेना मृत्यु से बच जाना है। जीवन को जान लो और मृत्यु समाप्त हो जाती है। जो है, वह अमृत है। उसे जानते ही नित्य, शाश्वत जीवन उपलब्ध हो जाता है।

'स्व-ज्ञान जीवन है। स्व-विस्मरण मृत्यु है।'

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Friday, June 22, 2018

 सत्य का द्वार 

एक सत्संगी हैं। धर्म में उनकी बोहोत रुचि है। धर्म ग्रंथों के अध्ययन में जीवन लगाया है। कितने उद्धरण और कितने सूत्र उन्हें याद हैं। कोई भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है। वे एक चलते-फिरते विश्वकोश हैं, ऐसी ही उनकी ख्याति है। कई बार मैंने उनके विचार सुने हैं और मौन रहा हूं। एक बार उन्होंने मुझसे पूछा कि मेरे संबंध में क्या ख्याल है? मैंने जो सत्य था, वही कहा। कहा कि परमात्मा के संबंध में विचार इकट्ठा करने में उन्होंने परमात्मा को गंवा दिया है। वे निश्चित ही चौंक गये मालूम हुए थे। फिर बाद में आये भी। उसी संबंध में पूछने आये थे। आकर कहा कि अध्ययन और मनन से ही तो सत्य को पाया जा सकता है। और तो कोई मार्ग भी नहीं है!
मैं ऐसे सब लोगों से एक ही प्रश्न पूछता हूं। वही उनसे भी पूछा था कि अध्ययन क्या है और उससे आपके भीतर क्या हो जाता है? क्या कोई नई दृष्टिं का आयाम पैदा हो जाता है? क्या चेतना किसी नये स्तर पर पहुंच जाती है? क्या सत्ता में कोई क्रांति हो जाती है? क्या आप जो हैं, उससे भिन्न और अन्यथा हो जाते हैं? या कि आप वही रहते हैं और केवल कुछ विचार और सूचनाएं आपकी स्मृति का अंग बन जाती हैं? अध्ययन से केवल स्मृति प्रशिक्षित होती है और मन की सतही परत पर विचार की धूल जम जाती है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं होता है, न हो सकता है।  उससे कोई परिवर्तन नहीं होता है। चेतना वही की वही रहती है। अनुभूति के आयाम वही के वही रहते हैं। सत्य के संबंध में कुछ जानना और सत्य को जानना दोनों बिलकुल भिन्न बातें हें। 'सत्य के संबंध में जानना' बुद्धि का विषय है, सत्य को जानना चेतना का है।
सत्य को जानने के लिए चेतना की परिपूर्ण जागृति, उसकी अमूच्र्छा आवश्यक है। स्मृति-प्रशिक्षण और तथाकथित ज्ञान से यह नहीं हो सकता है।
जो स्वयं नहीं जाना गया है, वह ज्ञान नहीं है।
सत्य के, अज्ञात सत्य के संबंध में जो बौद्धिक जानकारी है, वह ज्ञान का आभास है। वह मिथ्या है और सत्य-ज्ञान में मार्ग में बाधा है। असलियत में जो अज्ञात है, उसे जानने का ज्ञात से कोई मार्ग नहीं है। वह तो बिलकुल नया है। वह तो ऐसा है, जो पूर्व कभी जाना नहीं गया है। स्मृति केवल उसे ही दे सकती है- उसकी ही कल्पना भी उससे आ सकती है- जो कि पहले भी जाना गया है। वह ज्ञात की ही पुनरावृती है।

लेकिन जो नवीन है-एकदम अभिनव, अज्ञात और पूर्व-अपरिचित- उसके आने के लिए तो स्मृति को हटाना होगा। स्मृति को, समस्त ज्ञात विचारों को हटाना होगा ताकि नये का जन्म हो सके; ताकि 'जो है' वह वैसे ही जाना जा सके जैसा कि है। मनुष्य समस्त धारणाएं और पूर्वाग्रह उसके आने के लिए हटाने आवश्यक हैं। विचार, स्मृति और धारणा-शून्य अवस्था ही अमूच्र्छा है, जागृति है। इसके आने पर ही केंद्र पर परिवर्तन होता है और सत्य का द्वार खुलता है। इसके पूर्व सब भटकन है और जीवन-भ्रम है।

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Wednesday, June 20, 2018

प्रवृत्ति ??????

कल कोई कह रहे थे , ''मैं संसार की ओर ले जानेवाली प्रवृत्ति छोड़ चुका हूं, अब तो प्रवृत्ति सत्य की ओर है।

 

सब कहते है यही संसार से निवृत्ति है। अर्थात सत्य के प्रति प्रवृत्ति संसार के प्रति निवृत्ति है।''

यह बात दिखने में ठीक लगती है और समझ में भी आती है। बिलकुल बुद्धि और तर्क-युक्त है, *पर उतनी ही व्यर्थ भी है*।

ऐसे ही शब्दों के खेल में कितने ही लोग प्रवचन ओर सत्संग के फेर में पड़े रहते हैं। बुद्धि और तर्क- आत्मिक जीवन के संबंध में कहीं भी ले जाते मालूम नहीं होते हैं। मैं  उनसे कहता हूं, ''आप शब्दों में उलझ गये हैं। 'संसार की ओर प्रवृत्ति' का कोई अर्थ नहीं है। *असल में प्रवृत्ति ही संसार है*। वह किस ओर है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। बस, उसका होना ही संसार है। वह धन की ओर हो तो, वह धर्म की ओर हो तो- उसका स्वरूप एक ही है।''

प्रवृत्ति मनुष्य को अपने से बाहर ले जाती है। वह वासना है,  वह तृष्णा और दौड़ है। जब तक प्रवृति है तब तक वह 'जो है', उसका होना नहीं हो पाता है। इस 'है' का उद्घाटन ही सत्य है।

सत्य कोई वस्तु नहीं है, जिसे पाना है। वह वासना का कोई विषय नहीं है। इससे उसकी ओर प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। वह तो तब है, जब कोई प्रवृत्ति नहीं होती। तब जो होता है, उसका नाम सत्य है। इससे सत्य को पाना नहीं है, असल में पाना ओर छोड़ना से परे सत्य है ।

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Tuesday, June 19, 2018

आध्यात्मिक जीवन क्या है

लगभग प्रवचनों का सार आत्म-दमन होता है। प्रचलित रूढि़  वादी विचार यही है। कहा जाता है कि सबसे प्रेम करना है, पर अपने से घृणा करनी है। स्वयं अपने से शत्रुता करनी है, तब कहीं आत्म-जय होती है। पर यह विचार जितना प्रचलित है, उतना ही गलत भी है। इस मार्ग से व्यक्तित्व अपने में ही उलझ के रह जाता है । और आत्म हिंसा से जीवन कुरूप कर लेता है।
मनुष्य को वासनाएं इस तरह से दमन नहीं करनी हैं, न की जा सकती हैं। यह हिंसा का मार्ग धर्म-मार्ग नहीं है। 
मनुष्य को अपने से लड़ना नहीं, अपने को जानना है। न तो वासनाओं के पीछे अंधा हो कर दौड़ने वाला अपने को जान सकता है और न वासनाओं से लड़ने वाला अपने को जान सकता है। वे दोनों अंधे हैं और पहले अंधेपन की प्रतिक्रिया में दूसरे अंधेपन का जन्म हो जाता है। एक वासनाओं में अपने को नष्ट करता है, एक उनसे लड़कर अपने को नष्ट कर लेता है। वे दोनों अपने प्रति घृणा से भरे हैं। ज्ञान का प्रारंभ अपने को प्रेम करने से होता है।

मैं जो भी हूं, उसे स्वीकार करना है, उसमें संतुष्ट होना है। क्योंकि संतुष्टि से ही शांति आती है और इस स्वीकृति और शांति से ही प्रेम व प्रकाश की शुरुआत होती है, जिससे सहज सब-कुछ परिवर्तित हो जाता है- अंतकरण के इस परिवर्तन का नाम ही आध्यात्मिक जीवन है।

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Monday, June 18, 2018

सत्य क्या है

सत्य पर जो बात कह रहे हैं, वे अध्ययनशील हैं। विभिन्न दर्शनों से परिचित हैं। कितने मत हैं और कितने विचार हैं, उन्हें सब ज्ञान मालूम होते हैं। बुद्धि उनकी भरी हुई है- सत्य से तो नहीं, सत्य के संबंध में औरों ने जो कहा है, उससे। जैसे औरों ने जो कहा है, क्या उस आधार से भी सत्य जाना जा सकता है! सत्य जैसे कोई मत है- विचार है और कोई बौद्धिक तार्किक निष्कर्ष है! विवाद उनका गहरा होता जा रहा है और अब कोई भी किसी की सुनने की स्थिति में नहीं है। प्रत्येक बोल रहा है, पर कोई भी सुन नहीं रहा है।

*कई मुझसे सत्य जानना चाहते हैं, पर सत्य वो है जो में बोल नहीं पाता ओर जो में बोलता हूं वो सत्य नहीं होता*

मुझे तो दिखता है कि जहां तक मत है, वहां तक सत्य नहीं है। विचार की जहां सीमा समाप्ति है, सत्य का वहां प्रारंभ है।
एक साधु था, बोधिधर्म। वह चीन गया था। कुछ वर्ष वहां रहा, फिर घर लौटना चाहा और अपने शिष्यों को इकट्ठा किया। वह जानना चाहता था कि सत्य में उनकी शिष्यों की कितनी गती हुई है।
उसके उत्तर में एक ने कहा, 'मेरे मत से सत्य स्वीकार-अस्वीकार के अतीत है- न कहा जा सकता है कि है, न कहा जा सकता है कि नहीं है, क्योंकि ऐसा ही उसका स्वरूप है।'
साधू बोला, 'तेरे पास मेरी चमड़ी है।'
दूसरे ने कहा, 'मेरी दृष्टिं में सत्य अंतर्दृष्टि है। उसे एक बार पा लिया, फिर खोना नहीं है।'
बोधिधर्म बोला, 'तेरे पास मेरा मांस है।'
तीसरे ने कहा, 'मैं मानता हूं कि पंच महाभूत शून्य हैं और पंच स्कंध भी अवास्तविक हैं। यह शून्यता ही सत्य है।'
बोधिधर्म ने कहा, 'तेरे पास मेरी हड्डियां हैं।'
और अंतत: वह उठा जो जानता था। उसने गुरु के चरणों में सिर रख दिया और मौन रहा। वह चुप था और उसकी आंखें शून्य थी।
बोधिधर्म ने कहा, 'तेरे पास मेरी आत्मा है।'
और यही कहानी सत्य के विषय में मेरा उत्तर है।
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Friday, June 15, 2018

परमात्मा या सत्य की तलाश भ्रम है

एक व्यक्ति ने पूछा, 'यह परमात्मा या सत्य की तलाश कहीं भ्रम तो नहीं है? पहले में आशा से भरा था, पर फिर धीरे-धीरे निराश होता जा रहा हूं।'

मैंने कहा, 'आनंद की तलाश भ्रम ही है, क्योंकि परमात्मा को खोजने का प्रश्न ही नहीं उठता। वह सदा ही उपस्थित है। हम ओर वो इतने समीप है जितनी कि शहद के करीब मिठास,
पर फ़र्क इतना है कि उसेदेख सके, ऐसी आंखें बंद हैं, ओर जिन आंखो से वो दिखता नहीं उन आंखो को ओर शक्तिशाली बना रहे हैं, प्रति क्षण । इसलिए असली खोज उस दृष्टिं को खोलने की है।
'एकअंधा आदमी था। वह सूरज को खोजना चाहता था। पर वह खोज गलत थी। सूरज तो है ही, *आंखें खोजनी है* । आंखें पाते ही सूरज मिल जाता है। साधरणत: परमात्मा को खोजने वाला, सीधे परमात्मा को खोजने में लग जाता है। वह अपनी आंखों का विचार ही नहीं करता है। ओर अंत में परिणाम स्वरूप निराशा ही हाथ लगती है। सत्य विपरीत है। असली प्रश्न परिवर्तन का है। मैं जैसा हूं, मेरी आंखें जैसी हैं, वही मेरे ज्ञान की और दर्शन की सीमा है। मैं बदलूं, मेरी आंखें बदलें, मेरी चेतना बदले, तो जो भी अदृश्य है, वह दृश्य हो जाता है। और फिर जो अभी हम देख रहे हैं, उसकी ही गहराई में परमात्मा उपलब्ध हो जाता है। संसार में ही वह उपलब्ध हो जाता है। इसलिए मैं कहता हूं : धर्म परमात्मा को पाने का नहीं, वरन् नई दृष्टिं, नई चेतना पाने का विज्ञान है। वह तो है ही, हम उसमें ही खड़े हैं, उसमें ही जी रहे हैं। पर आंखें नहीं हैं, इसलिए सूरज दिखाई नहीं देता है। ध्यान देना सूरज को नहीं, आंखों को खोजना है।
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Thursday, June 14, 2018

विकार त्याग????

सभी संतों के प्रवचन में एक ही बात कही जाती है की विकार त्याग दो । हर सत्संग में क्रोध छोड़ने को, वासनाएं छोड़ने को कहा जाता है। ओर हर मनुष्य अपने सारे जीवन काल में केवल यही प्रयत्न करता रहता है, जैसे ये सब बातें छोडी जा सकती हों! किसी ने चाहा और छोड़ दिया! पढ़-सुन कर ऐसा ही प्रतीत होता है। उनके उपदेशों को सुनकर ज्ञात होता है कि अज्ञान कितना घना है। मनुष्य के मन के संबंध में हम कितना कम जानते हैं।

एक बच्चे से एक दिन मैंने कहा कि तुम अपनी बीमारी को छोड़ क्यों नहीं देते हो? वह बीमार बच्चा हंसने लगा और बोला कि क्या बीमारी छोड़ना मेरे हाथ में है।
प्रत्येक व्यक्ति बीमारी और विकार को छोड़ना चाहता है, पर विकार की जड़ों तक जाना आवश्यक है; वे जिस अहम के गर्त से आते हैं, वहां तक जाना आवश्यक है- केवल चेतन-मन के संकल्प से उनसे मुक्ति नहीं पायी जा सकती है।

एक कहानी है- एक ग्रामीण शहर के किसी होटल में ठहरा था। रात्रि उसने अपने कमरे में प्रकाश को बुझाने की बहुत कोशिश की पर असफल ही रहा। उसने प्रकाश को फूंक कर बुझाना चाहा, बहुत भांति फूंका, पर प्रकाश था कि जलता ही गया। उसने सुबह इसकी शिकायत की। शिकायत के उत्तर में उसे ज्ञात हुआ कि वह प्रकाश दिये का नहीं था, जो फूंकने से बुझ जाता- वह प्रकाश तो विद्युत का था।

और मैं कहता हूं कि मनुष्य के विकारों को भी फूंककर बुझाने की विधि गलत है। वे मिट्टी के दिये नहीं हैं; विद्युत के दिये हैं। उन्हें बुझाने की विधि अहम में छिपी है। चेतन के सब संकल्प फूंकने की भांति व्यर्थ हैं। केवल अहम में योग्य माध्यम से उतरकर ही उनकी जड़े तोड़ी जा सकती हैं।

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Wednesday, June 13, 2018

तेरा मेरा सत्य

सत्य एक ही है, सबके लिए केवल वो एक ही सत्य है, इसमें कोई तेरा मेरा सत्य नहीं है। बस उस तक पहुंचने के द्वार अनेक हो सकते हैं। पर, जो द्वार के मोह में पड़ जाता है, वह द्वार पर ही ठहर जाता है। और सत्य के द्वार उसके लिए कभी नहीं खुलते हैं।
सत्य सब जगह है। जो भी है, सभी सत्य है। उसकी अभिव्यक्तियां अनंत हैं। वह सौंदर्य की भांति है। सौंदर्य कितने रूपों में प्रकट होता है,लेकिन इससे क्या वह भिन्न-भिन्न हो जाता है! जो रात्रि तारों में झलकता है और जो फूलों में सुगंध बनकर झरता है और जो आंखों से प्रेम में प्रकट होता है- वह क्या अलग-अलग है? रूप अलग हों, पर जो उनमें स्थापित होता है, वह तो एक ही है।

*किंतु जो रूप पर रुक जाता है, वह आत्मा को नहीं जान पाता और वो सुंदर पर ठहर जाता है*,सौंदर्य तक नहीं पहुंच पाता ।

ऐसे ही, जो शब्द में बंध जाते हैं, वे सत्य से वंचित रह जाते हैं।

जो जानते हैं, वे राह के अवरोधों को सीढि़यां बना लेते हैं और जो नहीं जानते, उनके लिए सीढि़यां भी अवरोध बन जाती हैं।

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Tuesday, June 12, 2018

"केवल सत्य"

हम स्वप्न देखते हैं। जागते ही स्वप्न ओर सत्य दोनों का आभास होता है। स्वप्न में मैं हम भागीदार भी थे और द्रष्टा भी । स्वप्न में जब तक थे, द्रष्टा भूल गया था, भागीदार ही रह गया था। अब जागकर देखता हूं कि द्रष्टा ही था, भागीदार नहीं था।
स्वप्न जैसा है, संसार भी वैसा ही है। द्रष्टा, चैतन्य ही सत्य का आभास है, शेष सब कल्पित है। जिसे हमने 'मैं' जाना है, वह वास्तविक नहीं है। उसे भी जो जान रहा है, वास्तविकता की शुरुआत है।
यह सबका द्रष्टा तत्व सबसे मुक्त और सबसे अतीत है। पर इसमें भी होना है, तभी तो दृष्टा है,, इसके पार जो है इसने न कुछ किया है, न कभी कुछ हुआ है। वह बस 'है'।

असत्य 'मैं', स्वप्न 'मैं' ओर दृष्टा में शांत हो जाये, तो 'जो है', वह प्रकट हो जाता है। इस 'है' को हो जाने देना मोक्ष है, कैवल्य है।

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Sunday, June 10, 2018

मन परमात्मा में नहीं लगता ???

*मन के दूारा परमात्मा को नही पाया जा लकता*
एक उदाहरण से समझें .. पहले आप (अहम)हो फिर आपका मन है, इसको इस प्रकार समझो की आपका शरीर और उसके हाथ पांव, जैसे शरीर के उप अंग उसके हाथ पांव होते हैं वैसे ही अहम के उप अंग में मन चित बुद्धि आदि हैं .. अब अगर आप सोची की आप तो मजदूरी करो ओर आपका हाथ या पांव घर पर विश्राम कर के आनंदित रहे तो क्या ये सम्भव है ? कयोंकी आपके हाथ पांव आपसे आलग होकर कार्य कैसे करेंगे बताओ कर सकते हैं कया ठीक वैसे ही हम कर रहे हैं हम खुद अहम रूप में प्रकृती के साथ आपनी स्थिती बनाऐ हुये हैं और कह रहे है हमारा मन परमात्मा मे लग जाय ,अरे मन आपका ही है ये वहीं रहेगा जाहां आप हो जैसे आपके हाथ पांव वही है जहा आप हो वैसे ही मन भी है , ये मन परमात्मा में कैसे लगेगा जब इसका कोइ खुदका अस्तितव ही नही है..क्योंकि मै अहम हूं तो मन है, इसमें मन का क्या दोष ? जबतक आप हो तो बाल(मन) उगेंगे ही इनको रोकना या समाप्त करना है तो खुद को समाप्त करदो खुद(अहम) नहीं रहोगे तो बाल उगेंगे ही नहीं..नही ये मन वहीं रहेगा जहां अहम हो । अहम सत्ता का घोतक है ओर परमात्मा आनंद है । सत्ता के लय के पश्चात आनंद है । *आनंद है, आनंद आएगा ऐसा नहीं है* आप अहम नहीं हो तो आप अनाद हो, ओर आप अहम हो तो आप सत्ता हो । अहम के नहीं होने में आनंद है, ओर अहम के होने में माया है सत्ता है, मन आदि सब है,  अब सोचो कितनी मर्खता कर रहे हो कि अहम के होने बाद की स्थिति याने मन को अहम के नहीं होने की स्थिति(आनंद) में लगाना चाहते हो, ये वैसा ही है जैसे आप चाहते हो कि आपकी मृत्यु के बाद की स्थिति में आपका हाथ पहले ही पहुंच जाए । खुद रह कर मनको परमात्मा मे लगाने में अनेक जीवन व्यर्थ गवां दिय ..और कह रहे हो की मन परमात्मा में नही लगता ...इसलिय 80 हजार साल समाधी के बाद भी मन वही आया जाहां विशवामित्र की सवंय की स्थिती थी, इसलिय इतनी तपस्या के बाद भी मन नही लगा परमात्मा में .... अरे 80 हजार नही करोडों वर्ष लगादो फिर भी कया होगा ..इसमें मनकी कया गलती इसलिय मन को नही लगाना है अहम समाप्त करना है । *बस यही बात गांठ बांधलो ओर सही दिशा में लग जाओ*

अब उपनिषदों का यह कथन हमारी समझ में आजायेगा और वेद भी कहता यही कहता है..

उपनिषदों का कथन है कि वह ब्रह्म मन तथा वाणी से परे है, अतः उसे इन्द्रियों, मन, वाणी तथा बुद्धि के साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता ।*
( कठो. २/६/)

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प्रणाम जी

Friday, June 8, 2018

दुख मिटाना चाहते हैं????

एक माता जी ने आते ही पूछा था कि 'क्या दुख मिटाया जा सकता है?' मैं उन्हें देखता हूं, वे दुख की प्रतिमा मालूम होती हैं।

और सारे लोग ही धीरे-धीरे ऐसी ही प्रतिमाएं होते जा रहे हें। वे सभी दुख मिटाना चाहते हैं, पर नहीं मिटा पाते हैं, क्योंकि दुख निदान जो वो कर रहे हैं वो सत्य नहीं है।
चेतना की एक स्थिति में दुख होता है। वह उस स्थिति का स्वरूप है। उस स्थिति के भीतर दुख से छुटकारा नहीं है। कारण, वह स्थिति ही दुख है। उसमें एक दुख हटायें, तो दूसरा आ जाता है। यह श्रंखला चलती जाती है। इस दुख से छूटें, उस दुख से छूटें, पर दुख से छूटना नहीं होता है। दुख बना रहता है, केवल निमित्त बदल जाते हैं। दुख से मुक्ति पाने से नहीं, चेतना की स्थिति बदलने से ही दुख समाप्त होता है- दुख-मुक्ति होती है।
एक अंधेरी रात गौतम बुद्ध के पास एक युवक पहुंचा , दुखी, चिंतित, संताप ग्रस्त। उसने जाकर कहा , 'संसार कैसा दुख है, कैसी पीड़ा है!' गौतम बुद्ध बोले थ,'मैं जहां हूं, वहां आ जाओ, वहां दुख नहीं है, वहां संताप नहीं है।'

एक चेतना है, जहां दुख नहीं है। इस चेतना के लिए ही बुद्ध बोले थे, 'जहां मैं हूं।' मनुष्य की चेतना की दो स्थितियां हैं, अज्ञान की और ज्ञान की, पर की और स्व-बोध की। मैं जब तक 'पर' से संबंध कर रहा हूं, तब तक दुख है। यह पर-बंधन ही दुख है। 'पर' से मुक्त होकर 'स्व' को जानना और स्व में होना दुख-समाप्ति है। मैं अभी स्वयं नहीं हूं, इसमें दुख है। मैं  जब समाप्त होकर केवल "है" होता है, तब दुख मिटता है।

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