Friday, August 31, 2018

सत्य क्या है

सत्य पर जो बात कह रहे हैं, वे अध्ययनशील हैं। विभिन्न दर्शनों से परिचित हैं। कितने मत हैं और कितने विचार हैं, उन्हें सब ज्ञान मालूम होते हैं। बुद्धि उनकी भरी हुई है- सत्य से तो नहीं, सत्य के संबंध में औरों ने जो कहा है, उससे। जैसे औरों ने जो कहा है, क्या उस आधार से भी सत्य जाना जा सकता है! सत्य जैसे कोई मत है- विचार है और कोई बौद्धिक तार्किक निष्कर्ष है! विवाद उनका गहरा होता जा रहा है और अब कोई भी किसी की सुनने की स्थिति में नहीं है। प्रत्येक बोल रहा है, पर कोई भी सुन नहीं रहा है।

*कई मुझसे सत्य जानना चाहते हैं, पर सत्य वो है जो में बोल नहीं पाता ओर जो में बोलता हूं वो सत्य नहीं होता*

 

मुझे तो दिखता है कि जहां तक मत है, वहां तक सत्य नहीं है। विचार की जहां सीमा समाप्ति है, सत्य का वहां प्रारंभ है।

एक साधु था, बोधिधर्म। वह चीन गया था। कुछ वर्ष वहां रहा, फिर घर लौटना चाहा और अपने शिष्यों को इकट्ठा किया। वह जानना चाहता था कि सत्य में उनकी शिष्यों की कितनी गती हुई है।

उसके उत्तर में एक ने कहा, 'मेरे मत से सत्य स्वीकार-अस्वीकार के अतीत है- न कहा जा सकता है कि है, न कहा जा सकता है कि नहीं है, क्योंकि ऐसा ही उसका स्वरूप है।'
साधू बोला, 'तेरे पास मेरी चमड़ी है।'
दूसरे ने कहा, 'मेरी दृष्टिं में सत्य अंतर्दृष्टि है। उसे एक बार पा लिया, फिर खोना नहीं है।'
बोधिधर्म बोला, 'तेरे पास मेरा मांस है।'
तीसरे ने कहा, 'मैं मानता हूं कि पंच महाभूत शून्य हैं और पंच स्कंध भी अवास्तविक हैं। यह शून्यता ही सत्य है।'
बोधिधर्म ने कहा, 'तेरे पास मेरी हड्डियां हैं।'
और अंतत: वह उठा जो जानता था। उसने गुरु के चरणों में सिर रख दिया और मौन रहा। वह चुप था और उसकी आंखें शून्य थी।
बोधिधर्म ने कहा, 'तेरे पास मेरी आत्मा है।'

और यही कहानी सत्य के विषय में मेरा उत्तर है।

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Thursday, August 30, 2018

मृत्यु के बाद मोक्ष???

जो लोग सोचते है की नाम जाप, भजन, भक्ती तिर्थ, तप, ध्यान आदी से मृत्यु के बाद वो किसी आनंद के लोक या परमधाम में चले जायेंगे तो वो धोर अंधकार में हैं | उस आनंद की स्थिती को पहले ही पा कर उस पद में मृत्यु से पहले ही लय होना होगा  तभी शरीर समाप्ती के पश्चात वह स्थिती बनी रह सकती है | अन्यथा अनंनत जन्मों के लिय धोर अंधकार है..
*उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है जो उसी प्राण रूप में गतिमान है। उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो मानते हैं, अमरत्व को प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व सूर्य तपते हैं और इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने कामों में लगे रहते हैं। शरीर के नष्‍ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।'।। 2-8-1।।-तैत्तिरीयोपनिष*
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Wednesday, August 29, 2018

साधना

साधना कया है..
जो दृष्मान है वो तो सब साध्य है उसको कया साधना..
साधना तो वो है जो साध्य नही है .. तुम्हे सवंय अर्थात आत्मा या परमात्मा के अलावा और हर वस्तु का अनुभव है, धन, परिवार, साधन, मन व अंतःकरण आदि को तो तुम सदा से साध रहे हो, इनका तुम्हे सदा से अनुभव है..बस अनुभव नही है ते केवल सवंय का,इसी को साधना है बस यही सच्ची साधना है..कयोंकी तुम्हारे अलावा कुछ सच है ही नही.. सवंय को साधना ही सच्ची साधना है..
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Tuesday, August 28, 2018

आत्म पद का बोध

जब तक आत्मपद का बोध नहीं होता और भोगों में मन लिप्त है तबतक संसार समुद्र में बहे जावोगे और दुःख का अन्त न आवेगा । जैसे आकाश में धूलि दिखती है परन्तु आकाश को धूलि का सम्बन्ध कुछ नहीं और जैसे जल में कमल दिखता है परन्तु जल से स्पर्श नहीं करता, सदा निर्लेप रहता है, वैसे ही अग्यान में आत्मा देह से मिश्रित दिखती है परन्तु देह से आत्मा का कुछ स्पर्श नहीं, सदा विलक्षण रहता है जैसे सुवर्ण कीच और मल से अलेप रहता है । देह जड़ है आत्मा उससे भिन्न है अग्यान में ही सुख दुःख का अभिमान आत्मा में दिखता है वह भ्रममात्र असत्यरूप है । जैसे आकाश में दूसरा चन्द्रमा और नीलता असत्यरूप है वैसे ही आत्मा में सुख दुःखादि असत्यरूप हैं । सुख दुःख जीव के देह को होता है, सबसे अतीत आत्मा में सुख दुःख का अभाव है । यह अज्ञान ही कल्पित है, देह के नाश हुए आत्मा का नाश नहीं होता, इससे सुख दुःख भी आत्मा में कोई नहीं, सर्वात्मामय शान्तरूप है । यह जो विस्तृत रूप जगत् दृष्टि आता है वह मायामय है, इसलिय आत्म स्वरूप में स्थापित होकर सभी प्रकार के दुखों से निवर्त होकर परम आनंद को पराप्त करो....
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प्रणाम जी

Monday, August 27, 2018

विकार त्याग का रहस्य

सभी संतों के प्रवचन में एक ही बात कही जाती है की विकार त्याग दो । हर सत्संग में क्रोध छोड़ने को, वासनाएं छोड़ने को कहा जाता है। ओर हर मनुष्य अपने सारे जीवन काल में केवल यही प्रयत्न करता रहता है, जैसे ये सब बातें छोडी जा सकती हों! किसी ने चाहा और छोड़ दिया! पढ़-सुन कर ऐसा ही प्रतीत होता है। उनके उपदेशों को सुनकर ज्ञात होता है कि अज्ञान कितना घना है। मनुष्य के मन के संबंध में हम कितना कम जानते हैं।

एक बच्चे से एक दिन मैंने कहा कि तुम अपनी बीमारी को छोड़ क्यों नहीं देते हो? वह बीमार बच्चा हंसने लगा और बोला कि क्या बीमारी छोड़ना मेरे हाथ में है।
प्रत्येक व्यक्ति बीमारी और विकार को छोड़ना चाहता है, पर विकार की जड़ों तक जाना आवश्यक है; वे जिस अहम के गर्त से आते हैं, वहां तक जाना आवश्यक है- केवल चेतन-मन के संकल्प से उनसे मुक्ति नहीं पायी जा सकती है।

एक कहानी है- एक ग्रामीण शहर के किसी होटल में ठहरा था। रात्रि उसने अपने कमरे में प्रकाश को बुझाने की बहुत कोशिश की पर असफल ही रहा। उसने प्रकाश को फूंक कर बुझाना चाहा, बहुत भांति फूंका, पर प्रकाश था कि जलता ही गया। उसने सुबह इसकी शिकायत की। शिकायत के उत्तर में उसे ज्ञात हुआ कि वह प्रकाश दिये का नहीं था, जो फूंकने से बुझ जाता- वह प्रकाश तो विद्युत का था।

और मैं कहता हूं कि मनुष्य के विकारों को भी फूंककर बुझाने की विधि गलत है। वे मिट्टी के दिये नहीं हैं; विद्युत के दिये हैं। उन्हें बुझाने की विधि अहम में छिपी है। चेतन के सब संकल्प फूंकने की भांति व्यर्थ हैं। केवल अहम में योग्य माध्यम से उतरकर ही उनकी जड़े तोड़ी जा सकती हैं।

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Sunday, August 26, 2018

सही मार्ग क्या है

दूैत को त्याग कर उदूैतमय हो जाना ही सही व एक मात्र मार्ग है , इस अदूैत के कई नाम हैं जैसे- प्रेम, सत्य या सांच, शुद्ध अनन्यता, कैवल्य आदी आदी,
इसके अलावा सब संसारी ग्यान है, दूैत का है फिर चाहे पूरा वेद कंठस्त करलो पूरी वाणी को याद करलो पर दूैत से पीछा नही छूटेगा.. गीता में इस विषय पर बहोत सपष्ट कहा है...

अध्यात्मज्ञान नित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।। (गीता, १३/११)

आत्मा के आधिपत्य में निरन्तर चलना अध्यात्म का आरम्भ है। उसके संरक्षण में चलते हुए परमतत्त्व परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन और दर्शन के साथ मिलनेवाली जानकारी ज्ञान है। यही अध्यात्म की पराकाष्ठा है। इसके अतिरिक्त सृष्टि में जो कुछ है अज्ञान है...

*"सांचा साहेब सांचसो पाइये सांचको सांच है प्यारा"*
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प्रणाम जी

Friday, August 24, 2018

पाप करने से कैसे बचें

*पाप करने से कैसे बचें*

मैं पाप नही करूंगा, यही सोच तुम्हे पापी बना देती है .."मैं पाप नही करूंगा" भाव के पीछे जो बोलने वाला है वही तो पापी है, कौन है वो ?
वो अहं है, यही पापी है होने में रहता है, यही वैरागी होने में, ग्यानी होने में, धर्मी होने में, गूरू होने में, शिष्य होने में, भक्त होने में , परमात्मा से प्रेम करके प्रेमी होने में, सब में यही रहता है | यही जड़ है पापी होने की या पाप करने की | अगर पाप से बचना चाहते हो तो पापी को समाप्त करो.. अहं को समाप्त करो, जब पाप करने वाला ही नही रहेगा तो पाप कौन करेगा...
*अहं का अर्थ अहंकार से नही है, अहं जड़ है अहंकार पत्ते के समान है*
*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।*
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Thursday, August 23, 2018

तीर्थ


‘जनाः यैः तरन्ति तानि तीर्थानि’ अर्थात् मनुष्य जिस माध्यम भवसागर से पार हो, वही तीर्थ है। *प्रेम* ही वास्तविक तीर्थ है। निरर्थक इधर उधर भटकते रहना तथा नदियों के जल में डुबकी लगाकर जड़ पदार्थों की परिक्रमा करना तीर्थ नहीं है।
आजन्म मरणान्तं च गंगादि तटनीस्थिता:।
मण्डूक मत्स्य प्रमुखा योगिनस्ते भवन्ति किम्।।
(गरुड़ पुराण १६/६८)
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते.

*सच्चा तीर्थ वह है, जिसमें अपने दूैत रूप के अलावा अदूैत स्वरूप का भी बोध हो व आत्मा व परमात्मा के एकत्व भाव का भान हो*। इसमें कर्मों का कोई भी बन्धन नहीं लगता और वास्तविक तीर्थ यात्रा का लाभ मिलता है। अर्थात तिर्थ तन से नही होता यह आत्मिक विषय है ..तन को कष्ट देने से परमात्मा नही मिलते...

तावत्तपो व्रतं तीर्थं जप होमार्चनादिकम्।
वेदशास्त्रागम कथा यावत्तत्त्वं न विन्दति।।
(गरुड़ पुराण १६/९८)
तब तक ही तप, व्रत, तीर्थाटन, जप, होम और देवपूजा आदि हैं तथा तब तक ही वेदशास्त्र और आगमों की कथा है जब तक कि परमतत्त्व का बोध प्राप्त नहीं होता;  परमतत्त्व का बोध प्राप्त होने पर इनसबका कुछ भी अर्थ नहीं रह जाता है...
इसलिय तिर्थ आदी मे भटकने की अपेक्षा परमतत्व की खोज करो जो कहीं बाहर नही है हमारे आत्महृदय में ही है...
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प्रणाम जी

Tuesday, August 21, 2018

तत्वज्ञान का सार



1.तत्त्वज्ञान का सहज उपाय

हमारा स्वरूप आनंदस्वरूप है और उसमें अहम् नहीं है—यह बात यदि समझ में आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है ! इसमें समय लगने की बात नहीं है। समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है। जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे—

*संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।*
(मानस, बाल. 58/4)

दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ’। इसमें ‘मैं’ प्रकृति का अंश है और ‘हूँ’ परमात्मा का अंश है। ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है। ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है। ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है। ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है। ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है। ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है। ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया—यही मान्यता (जड़ में चेतन की मान्यता) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है। *यही अहं है* ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही आत्मबोध है मूलतत्त्वबोध है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि ‘मैं’ को साथ मिलाने से ही ‘हूँ’ कहा जाता है। अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा। वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है। इसमें अहं नही है यह निर्विकार है, इसमें अस्तित्व नही है..

एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि ‘मैं बेटा हूँ’, बेटे के सामने कहता है कि ‘मैं बाप हूँ’, दादा के सामने कहता है कि ‘मैं पोता हूँ’, पोता के सामने कहता है कि ‘मैं दादा हूँ’, बहन के सामने कहता है कि ‘मैं भाई हूँ’, पत्नी से के सामने कहता है कि ‘मैं पति हूं’, भानजे के सामने कहता है कि ‘मैं मामा हूँ’, मामा के सामने कहता है कि ‘मैं भानजा हूँ’ आदि-आदि। तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, मामा, भानजा आदि तो अलग-अलग हैं, पर ‘हूँ’ सबमें एक है। ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला। वह ‘मैं’ बाप के सामने बेटा हो जाता, बेटे के सामने बाप हो जाता है अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है। अगर उससे पूछें कि ‘तू कौन है’ तो उसको खुद का पता नहीं है ! यदि ‘मैं’ की खोज करें तो ‘मैं’ मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी। कारण कि वास्तव में सत्ता ‘है’ की ही है, ‘मैं’ की सत्ता है ही नहीं।

बेटे की अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है—इस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयं के नाम नहीं हैं। स्वयं का नाम तो निरपेक्ष ‘है’ है। वह ‘है’ ‘मैं’ को जाननेवाला है। ‘मैं’ जाननेवाला नहीं है और जो जाननेवाला है, वह ‘मैं’ नहीं है। ‘मैं’ ज्ञेय (जानने में आनेवाला) है और ‘है’ ज्ञाता (जाननेवाला) है। ‘मैं’ एकदेशीय है और उसको जानने वाला ‘है’ सर्वदेशीय है। ‘मैं’ से सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैं’ की सत्ता नहीं है। सत्ता ‘है’ की ही है। परिवर्तन ‘मैं’ में होता है, ‘है’ में नहीं। ‘हूँ’ भी वास्तव में ‘है’ का ही अंश है। परमात्मा से अलग मान्यता से ही वह अंश है। अगरअगर परमात्मा से अलग नही हो का बोध हो जाये तो वह अंश (‘हूँ’) नहीं है,  ‘है’ (स्वरूप है) ‘मैं’ अहंता और ‘मेरा बाप, मेरा बेटा’ आदि ममता है। अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है—
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।
(गीता 2/71)
यही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है। इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थिति का अनुभव होने पर शरीर का कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीर को मैं—मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता।

मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर है—इस प्रकार वस्तुओं में तो फर्क है, पर ‘है’ में कोई फर्क नहीं है। ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँ—इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है। अनेक शरीरों में, अनेक अवस्थाओं में चिन्मय सत्ता एक है। बालक, जवान और वृद्ध—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओं में सत्ता एक है। कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि—ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है। अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता। ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध—इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवाले में कोई फर्क नहीं पड़ता।

*एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।*
(गीता) 2/72)
'हे पार्थ ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई सम्मोहित नहीं होता। इस स्थिति में यदि अन्तकाल में भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त,आनंद) ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।’


यदि जाननेवाला भी बदल जाय तो इन पाँचों की गणना कौन करेगा ? एक मार्मिक बात है कि सबके परिवर्तन का ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तन का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। सबका एकरूपता से ज्ञान होता है, पर अपने स्वरूप का एकरूपता यासमरूपता से ज्ञान कभी किसी को नहीं होता सबके अभाव का ज्ञान होता है, पर अपने अभाव का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। तात्पर्य है कि ‘है’ (आनंदस्वरूप) में हमारी स्थित स्वतः है करनी नहीं है। भूल यह होती है कि हम ‘संसार है’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप कर लेते हैं। ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप करने से ही ‘नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है और ‘है’ की तरफ दृष्टि नहीं जाती। वास्तव में ‘है में संसार’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करना चाहिये। ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करने से ‘नहीं’ नहीं रहेगा और ‘है’ रह जायगा।
*गीता कहती हैं।*

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
(गीता 2। 16)

‘असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात् असत्का अभाव ही विद्यमान है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है।’

एक ही देश काल वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदि में अपनी जो सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व, मान्यता) को लेकर ही दीखती है। जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपने को एक देश, काल आदि में देखता है। अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदि में दिखनेवाली सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत नहीदिखनेवाली सत्तामात्र रहती है।

वास्तव में अहम है नहीं, प्रत्युत केवल उसकी मान्यता है। सांसारिक पदार्थों की जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है। सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है। इसलिये परमतत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है।

अतः परमतत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है। इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं। अहम् ज्ञानी में होता है, ज्ञान में नहीं। अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है।  उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है। कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश है, अतः स्वयं से ही स्वयं का ज्ञान होता है। वास्तव में ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है। अज्ञान मिटाने को ही परमतत्त्वज्ञान का होना कह देते हैं।
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Monday, August 20, 2018

आत्मा को कैसे पाएं

प्रश्न-  'आत्मा को कैसे पाया जाए? ब्रह्मं-प्राप्ति कैसे हो सकती है?'

आत्मा को पाने की बात ही गलत है। वह प्राप्तव्य नहीं है। वह तो नित्य प्राप्त है। वह कोई वस्तु नहीं, जिसे लाना है। वह कोई लक्ष्य नहीं, जिसको साधना है। वह भविष्य में नहीं है कि उस तक पहुंचना है। वह है। 'है' का ही वह नाम है। वह वर्तमान है-नित्य वर्तमान। उसमें अतीत और भविष्य नहीं है। उसमें 'होना' नहीं है। वह शुद्ध नित्य अस्तित्व है।

फिर खोना कैसे हो गया है ?

या खोने के आभास और पाने की प्यास कहां आ गयी है?

मैं को समझ लें तो जो आत्मा खोई नहीं जा सकती है, उसका खोना समझना आ सकता है। 'मैं' आत्मा नहीं है। न 'स्व' आत्मा है, न 'पर' आत्मा है। यह द्वैत वैचारिक है। यह द्वैत मन में है। मन आभास सत्ता है। वह कभी वर्तमान में नहीं होता है। वह या तो अतीत में होता है, या भविष्य में। न अतीत की सत्ता है, न भविष्य की। एक स्मृति में है, एक कल्पना में है। सत्ता में दोनों नहीं हैं। 

इसअसत्ता से 'मैं' का जन्म होता है। 'मैं' विचार की उत्पत्ति है। काल भी विचार की उत्पत्ति है। विचार के कारण, 'मैं' के कारण, आत्मा आवरण में है। वह है, पर खोयी मालूम होती है। फिर यही 'मैं' यही विचार-प्रवाह इस तथाकथित खोयी आत्मा को खोजने चलता है। यह खोज असंभव है, क्योंकि इस खोज से 'मैं' और पुष्ट होता है- सशक्त होता है।

'मैं' के द्वारा आत्मा को खोजना, स्वप्न के द्वारा जागृति को खोजने जैसा है। *'मैं' के द्वारा नहीं, 'मैं' के विसर्जन से उसको पाना है।*  स्वप्न के जाते ही जागृति है, 'मैं' के जाते ही आत्मा है। आत्मा आनंद है, क्योंकि पूर्णता है। उसमें 'स्व',  या 'पर' नहीं है। वह अद्वैत है। वह कालातीत है। विचार के, मन के जाते ही जाना जाता है कि उसे कभी खोया नहीं था।

इसलिए उसे खोजना नहीं है। खोज छोड़नी है और खोजने वाले को छोड़ना है। खोज और खोजी के मिटते ही खोज पूरी हो जाती है। 'मैं' को खोकर उसे पा लिया जाता है।

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Sunday, August 19, 2018

परमात्मा का गुणगान ???

ध्यान दो ...

परमात्मा का गुणगान...
बचपन से सुन्ता आया हूं कि परमात्मा का गुणगान करने से परमात्मा खुश होते हैं..
पर परमात्मा गिणातीत हैं अर्थात परमात्मा तक गुण नही पहुंच सकते फिर वो गुणगान करने से कैसै खुश होंगे..
सबसे अहम बात की परमात्मा को खुश करना पडे कया ऐसा हो सकता है..?? अर्थात परमात्मा तो सवंय आनंद है तो कया आनंद को भी खुश करना पडता है.?? नही ..
अनादि काल से परमात्मा प्राप्ति के साधन सुन्ते आये हैं और उनपर चले भी हैं पर परिणाम शून्य कयोंकि केवल ऊपरी साधन अपनाये हैं कभी मूल पर ध्यान नही गया ना ही किसी ने बताया .. अगर बतााया भी तो निरंतर संगत नही हो पाने के कारण विषय स्पष्ट नही हो पाया..
तो स्पष्ट है कि परमात्मा का गुणगान या अन्य सुने हुये साधन (नाम जाप,रूप ध्यान, पारायण, परिकरमा, गुरू के शरीर का ध्यान..आदी अन्य साधन जो अबतक सुने है)उसको पाने का माध्यम नही है , कुछ और है , तो वो कया है??

केवल तीन विषय ग्रहण करने पर हमारे लिय परमात्मा का साक्षातकार सुगम हो जाता है वो है..
1.कर्ता-भोक्ता
2.मन से परमात्मा नही मिलेंगे
3.प्रेम कया है..
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प्रणाम जी

Saturday, August 18, 2018

प्रेम से प्राप्ति

क्या मैं रोज़ थोड़ा थोड़ा प्रेम बढ़ा कर परमात्मा को पा सकता हूं ???

क्या तुम रोज छोटे छोटे पानी के गढढे बना कर समुन्द्र का निर्माण कर पाओगे ? तुम प्रेम का अर्थ ही नहीं समझे हो। प्रेम खुद ही परमात्मा है। प्रेम अथाह है । अथाह को छोटे छोटे टुकड़ों में कैसे बांट सकते हो। हम गलती ये कर रहे हैं कि हमें जो बौद्ध होना है उसको अपने अनुसार बना लेते हैं। अर्थात हम प्रेम बढ़ा कर परमात्मा को पाना चाहते हैं, जबकी परमात्मा स्वयं प्रेम ही है, तो तुम जिसे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हो वो प्रेम नहीं है, ये मोह है, एक गुण है, ये वही वस्तु है जो तुम संसार मे सबसे करते हो, ये भी तुम इतना नहीं कर पाओगे जितना तुम संसार में करते हो। फिर क्यों खुदको धोखा दे रहे हो।

जिस दिन प्रेम का बोध होगा उस दिन कुछ पाना नहीं रह जायेगा। ध्यान रहे प्रेम को ही पाना है, प्रेम से पाने जैसे कुछ नहीं है। प्रेम क्या है? इस विषय पर हमारी पहले एक पोस्ट आ चुकी है वो आप satsangwithparveen.bolgspot.com पर जाकर पढ़ सकते हैं। या fb पर www.facebook.com/kevalshudhsatye

Thursday, August 16, 2018

उपहार ओर समर्पण का भेद

*उपहार और समर्पण में भेद*

सुप्रभात जी
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*जब हर पल परमात्मा में स्थित रहने लगो तब समझना जीवन सफल होने लगा है..
आप कहोगे कहना आसान है पर बहोत अभ्यास के बाद भी नही हो पाता.. मैं कहता हूं बहोत आसान है , आप उठकर पानी का गलास लेते हो इस से भी आसान,
*कैसे?*
बस तुम ये जो मेरा परमात्मा में लगाते हो,मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा चित,  ये मेरा छोडकर जो मेरा कहने वाला है उसको परमात्मा में स्थित करलो, मेरा कहने वाला सवंय परमात्मा में आ गया तो उसने जो भी मेरा मान रखा है वो सब अपने आप आजएगा ..जैसे किसी राजा के समर्पण से उसके मन्त्री, सैनापती और सैना का समर्पण अपने आप हो जाता है ...वरना अगर सिर्फ मन्त्री या सैनापती को मारोगे या पकड़ने का प्रयास करते रहे तो वो राजा और नये बना लेगा..
अब सवंय कोन है और परमात्मा में कैसे लगे ये पता है तो ठीक है वरना किसी के माध्यम जान लो पर ध्यान रहे जिस माध्यम से जानो वो सवंय परमात्मा में स्थित हो ये परम शर्त है...और ध्यान रहे माध्यम से समझकर परमात्मा में स्थित होना है , माध्यम में नही ... यही समर्पण है ..

एक बात और समझना बहोत ध्यान से कि हम समर्पण और उपहार (gift)मे भेद न जान्ने के कारण परमात्मा में समर्पण ना करके उन्हे उपहार देने का प्रयास करते रहते है , ध्यान देना इसका भी केवल प्रयास करते हैं दे नही पाते , कयोंकी संवय को परमात्मा मे लगाना या उन्हे देना समर्पण है, और सवंय का कुछ परमात्मा को देना उपहार कहलायगा, ..
आप अपना मन उन्हेदेकर समर्पण सोच रहेहोना तो ध्यान से सुनो ये समर्पण नही उपहार देने का प्रयास कर रहे हो.. समर्पण होता है खुदको देना...अरे संसारी ग्यान से ही समझलो एकलव्य ने द्रोंण को अंगुठा दे दिया तो समर्पण कहलाया या गुरू दक्षिणा, ध्यानदेना *दक्षिणा* कहलाया समर्पण नही.. यही हम किये जा रहे है अपना अर्थात मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा चित ये तो आपका है आप नही हो, आपका दोगे तो उपहार होगा और सवंय को देना या लगाना समर्पण होगा...एक और संसारीक उदाहरण- कि जैसे पत्नी पती को कोइ भी अपनी वस्तु दे तो ये उपहार है, और खुद को देने से समर्पण हो जाता है..ध्यान रहे परमात्मा तुम्हारे उपहार का भूखा नही है, संसारीक बोल बोलूं तो उपहार देने का परयास करके तुम उसका अपमान कर रहे हो...

ये है अध्यात्म का A, और हम समझतो हैं की गुरू से नाम ले लिया तो हमारी शुरूआत हो गयी हमें A आ गया...
*ध्यान दो*
यह केवल आरंभिक स्थिति है, केवल A है, मूल सत्य तो कुछ ओर है...
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प्रणाम जी