Tuesday, August 28, 2018

आत्म पद का बोध

जब तक आत्मपद का बोध नहीं होता और भोगों में मन लिप्त है तबतक संसार समुद्र में बहे जावोगे और दुःख का अन्त न आवेगा । जैसे आकाश में धूलि दिखती है परन्तु आकाश को धूलि का सम्बन्ध कुछ नहीं और जैसे जल में कमल दिखता है परन्तु जल से स्पर्श नहीं करता, सदा निर्लेप रहता है, वैसे ही अग्यान में आत्मा देह से मिश्रित दिखती है परन्तु देह से आत्मा का कुछ स्पर्श नहीं, सदा विलक्षण रहता है जैसे सुवर्ण कीच और मल से अलेप रहता है । देह जड़ है आत्मा उससे भिन्न है अग्यान में ही सुख दुःख का अभिमान आत्मा में दिखता है वह भ्रममात्र असत्यरूप है । जैसे आकाश में दूसरा चन्द्रमा और नीलता असत्यरूप है वैसे ही आत्मा में सुख दुःखादि असत्यरूप हैं । सुख दुःख जीव के देह को होता है, सबसे अतीत आत्मा में सुख दुःख का अभाव है । यह अज्ञान ही कल्पित है, देह के नाश हुए आत्मा का नाश नहीं होता, इससे सुख दुःख भी आत्मा में कोई नहीं, सर्वात्मामय शान्तरूप है । यह जो विस्तृत रूप जगत् दृष्टि आता है वह मायामय है, इसलिय आत्म स्वरूप में स्थापित होकर सभी प्रकार के दुखों से निवर्त होकर परम आनंद को पराप्त करो....
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी

No comments:

Post a Comment