हम सारी उमर साधना के नाम पर मन को साधने मे वर्थ चली जाती हैं
पर सत्य तो मन के पार है । मन को छोड़ो तब द्वार मिलता है। सत्य मन में या मन से प्राप्त नहीं होता है। वह अ-मन की स्थिति में उपलब्ध होता है।
एक साधु साधना में था। वह अपने गुरु-आश्रम के एक एकांत झोपड़े में रहता और लगातार मन को साधने का अभ्यास करता। जो उससे मिलने भी जाते, उनकी ओर भी वह कभी कोई ध्यान नहीं देता था।
उसका गुरु एक दिन उसके झोपड़े पर गया। मात्सु ने उसकी ओर भी कोई ध्यान नहीं दिया। पर उसका गुरु दिन भर वहीं बैठा रहा और एक ईट पत्थर पर घिसता रहा। साधु से अंतत: नहीं रहा गया और उसने पूछा, आप क्या कर रहे हैं? गुरु ने कहा, 'इस ईट का दर्पण बनाना है।' साधु ने कहा- ईट का दर्पण! पागल हुए हैं- जीवन भर घिसने पर भी नहीं बनेगी। यह सुन गुरु हंसने लगा और उसने साधु से पूछा, 'तब तुम क्या कर रहे हो? ईट दर्पण नहीं बनेगी, तो क्या मन दर्पण बन सकता है? ईट भी दर्पण नहीं बनेगी, मन भी दर्पण नहीं बनेगा। मन ही तो धूल है, जिसने दर्पण को ढंका है। उसे छोड़ो और अलग करो, तब सत्य प्राप्त होता है।'
विचार संग्रह मन है और विचार बाहर से आये धूलिकण हैं। उन्हें अलग करना है। उनके हटने पर जो शेष रह जाता है, वह निर्दोष चैतन्य सदा से ही निर्दोष है। निर्विचार में, इस अ-मन की स्थिति में, उस सनातन सत्य के दर्शन होते हैं, साधना का साध्य वही है।
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