Monday, October 8, 2018

दर्पण

हमारी मूल चेतना दर्पण की भांति ही है। अहम की धूल है, उस पर। "नहीं" का परदा है, उस पर। संस्कारों की परतें हैं, उस पर। पर मूल चेतना के स्वरूप में इससे कुछ भी नहीं हुआ है।
वह वही है। वह सदा वही है। परदा हो या न हो, उसमें कोई परिवर्तन नहीं है। सब परदे ऊपर हैं, इसलिए उन्हें खींच देना और अलग कर देना कठिन नहीं है। दर्पण पर से धूल झाड़ने से ज्यादा कठिन चेतना पर से धूल को झाड़ देना नहीं है।

आत्मा को पाना आसान है, क्योंकि बीच धूल के एक झीने परदे के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और परदे के हटते ही ज्ञात होता है कि आत्मा ही परमात्मा है।

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