नवधा भक्ति के सभी साधन ब्रह्म का साक्षात्कार कराने में सक्षम नही हैं, क्योंकि ये शरीर, इन्द्रियों तथा मन, बुद्धि के धरातल पर किये जाते हैं । इस प्रकार की भक्ति केवल साकार रूप तक ही सीमित रहती है ..
प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे हम नवधा भक्ति कहते हैं।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
रे हूं नाहीं व्रत दया संझा अगिन कुंड , ना हूं जीव जगन ।
तंत्र न मंत्र भेख न पंथ , ना हूं तीरथ तरपन ।।
(किरन्तन ११/२ )
परमात्मा कहते हैं ..भिन्न-भिन्न प्रकार के व्रतों के पालन, प्राणियों पर दया, संध्या-हवन, जीव के द्वारा आत्मबोध होने से जो लोग ब्रह्म-प्राप्ति मानते हैं, मैं उनमें नहीं हूँ । विभिन्न प्रकार के तन्त्रों तथा मन्त्रों की साधना करने, अनेक प्रकार की वेशभूषा तथा सम्प्रदाय धारण करने, तीर्थों में वास करने एवं तर्पण आदि क्रियाओं से परब्रह्म प्राप्ति की आशा रखने वालों में मै नहीं हूँ ।
रे हूं नाहीं नवधा में मुक्त में भी नाहीं , न हूं आवा गवन ।
वेद कतेब हिसाब में नाहीं , न माहें बाहेर न सुनं ।।
( कि. ११/६ )
परमात्मा कहते हैं ..जो लोग नवधा भक्ति में पारंगत हो जाने , चारों प्रकार की मुक्तियों को पाने तथा सृष्टि कल्याणार्थ मोक्ष से पुनः तन धारण करने को सर्वोपरि पद मानते हैं , मै उनमें नहीं हूँ । परमात्मा तो चारो वेदों तथा कतेब ग्रन्थों ( तौरेत, इंजील, जंबूर और कुरआन ) में वर्णित तथ्यों की सीमा , पिण्ड , ब्रह्माण्ड और शून्य-निराकार से भी परे है ...
आरती, पूजा, अर्चना, भोग, प्रार्थना, परिक्रमा, नाम जप, आदि कर्मकाण्ड इस मार्ग का प्रमुख अंश हैं । दुर्भाग्यवश बहुत से सुन्दरसाथ भी इसी मार्ग को अपने जीवन की इति समझ कर संतुष्ट हो गए हैं, जबकि अक्षरातीत के साक्षात्कार का लक्ष्य इससे बहुत दूर है ।
उपनिषदों का कथन है कि वह ब्रह्म मन तथा वाणी से परे है, अतः उसे इन्द्रियों, मन, वाणी तथा बुद्धि के साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता । कठोपनिषद् ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि जब पाँचों इन्द्रियाँ मन सहित अपने कारण में लय हो जाते हैं तथा बुद्धि भी किसी प्रकार की क्रिया से रहित हो जाती है, तो उसे ही परमगति कहते हैं ।
( कठो. २/६/)
प्रणाम जी
प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे हम नवधा भक्ति कहते हैं।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
रे हूं नाहीं व्रत दया संझा अगिन कुंड , ना हूं जीव जगन ।
तंत्र न मंत्र भेख न पंथ , ना हूं तीरथ तरपन ।।
(किरन्तन ११/२ )
परमात्मा कहते हैं ..भिन्न-भिन्न प्रकार के व्रतों के पालन, प्राणियों पर दया, संध्या-हवन, जीव के द्वारा आत्मबोध होने से जो लोग ब्रह्म-प्राप्ति मानते हैं, मैं उनमें नहीं हूँ । विभिन्न प्रकार के तन्त्रों तथा मन्त्रों की साधना करने, अनेक प्रकार की वेशभूषा तथा सम्प्रदाय धारण करने, तीर्थों में वास करने एवं तर्पण आदि क्रियाओं से परब्रह्म प्राप्ति की आशा रखने वालों में मै नहीं हूँ ।
रे हूं नाहीं नवधा में मुक्त में भी नाहीं , न हूं आवा गवन ।
वेद कतेब हिसाब में नाहीं , न माहें बाहेर न सुनं ।।
( कि. ११/६ )
परमात्मा कहते हैं ..जो लोग नवधा भक्ति में पारंगत हो जाने , चारों प्रकार की मुक्तियों को पाने तथा सृष्टि कल्याणार्थ मोक्ष से पुनः तन धारण करने को सर्वोपरि पद मानते हैं , मै उनमें नहीं हूँ । परमात्मा तो चारो वेदों तथा कतेब ग्रन्थों ( तौरेत, इंजील, जंबूर और कुरआन ) में वर्णित तथ्यों की सीमा , पिण्ड , ब्रह्माण्ड और शून्य-निराकार से भी परे है ...
आरती, पूजा, अर्चना, भोग, प्रार्थना, परिक्रमा, नाम जप, आदि कर्मकाण्ड इस मार्ग का प्रमुख अंश हैं । दुर्भाग्यवश बहुत से सुन्दरसाथ भी इसी मार्ग को अपने जीवन की इति समझ कर संतुष्ट हो गए हैं, जबकि अक्षरातीत के साक्षात्कार का लक्ष्य इससे बहुत दूर है ।
उपनिषदों का कथन है कि वह ब्रह्म मन तथा वाणी से परे है, अतः उसे इन्द्रियों, मन, वाणी तथा बुद्धि के साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता । कठोपनिषद् ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि जब पाँचों इन्द्रियाँ मन सहित अपने कारण में लय हो जाते हैं तथा बुद्धि भी किसी प्रकार की क्रिया से रहित हो जाती है, तो उसे ही परमगति कहते हैं ।
( कठो. २/६/)
प्रणाम जी
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