Sunday, April 10, 2016


प्रश्न-- संसकार कया है ? इनसे निवर्त्ती या छुटकारा कैसे हो???

 संस्कारों के प्रवाह में प्रवाहित होकर अपने निजस्वरूप को नहीं समझ पा रहे हो । इसीलिए तुम्हारी इच्छाओं में अनौचित्य बढ़ता चला जा रहा है । इन इच्छाओं का सुधार आवश्यक है । इच्छाओं के परिष्कार से प्रेरित क्रिया ही हमेंमार्ग पर आगे ले जा सकती है । इच्छाओं के विकार का कारण है हमारा संस्कार । अब हम एक सूक्ष्म बात आपको बतलाते हैं ।
संस्कार और वासनाओं का आपस में कार्य कारण सम्बन्ध है । जिस प्रकार बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज । जब हम किसी पदार्थ को देखते हैं तो उसका संस्कार पड़ता है , वह संस्कार वासना रूप बन जाता है । समझ आने पर पुनः संस्कार रूप से जागृत होकर वासना बनकर हमें प्रवृत्त कराता है। इस प्रकार वासना और संस्कार का चक्कर चल रहा है । इसको हम कहां और किस प्रकार काटें ?
कहते हैं कि सबसे पहले मनुष्य को शरीर मिलता है । क्यों मिलता है ? प्राचीन कर्मोँ का फल भोग करने के लिये। प्राचीनकाल में हमारे अन्दर ऐसे संस्कार और वासनायें सन्निहित थीं जो अपूर्ण रहीं और हम उन्हें भोग नहीं सके । उनके भोगने के लिये हमको – आपको शरीर मिला । अब पुनः शरीर मिलने से हमारे सामने प्रिय और अप्रिय पदार्थ आ जाते हैं । प्रिय के प्रति राग हो जाता है और अप्रिय के प्रति द्वेष । इससे हमारे अन्दर फिर नई कामनायें पैदा होने लगती है । इस प्रकार शरीर से कामना , कामना से शरीर ; संस्कार से वासना , वासना से संस्कार इस बीज और वृक्ष के प्रवाह में हम फँस गये हैं । इसको हम कैसे काटेंगे ?
Satsangwithparveen.blogspot.com)
इसको हम इच्छाशक्ति से काट सकते हैं । अगर हम इच्छा का परिष्कार कर लेते हैं तो वासना के प्रवृत्त कराने की चेष्टा होने पर भी हम प्रवृत्त नहीं हो पायेंगे । अब सोचिये , हम इच्छा का परिष्कार कैसे कर सकते हैं । इच्छा पहले बिगड़ी संस्कारों के द्वारा । हमने जिन पदार्थोँ का अनुभव किया उनकी छाप हम पर पड़ी ; जिनका अनुभव किया वे गलत थे अतः गलत छाप पड़ने से हमारी इच्छा में गलती आई और हमारी प्रवृत्ति भी गलत होने लगी । अब इस चक्र को बदलना है। इच्छा का परिष्कार करना है । इच्छा तब शुद्ध होगी जब हम हमारे संस्कार शुद्ध होंगे । हमारे संस्कार कब शुद्ध होंगे ? जब हम ऐसे वातावरण के साथ सम्बन्धित होंगे जिसका हमारे ऊपर अच्छा प्रभाव पड़े । इसी को शास्त्रों में ” सत्संग ” कहा है । ” हितोपदेश ” में कहते हैं कि ”
संगः सर्वात्मना त्याज्यः सचेत्त्यक्तुं न शक्यते । स सद्भि सह कर्तव्यः सन्तः संगस्य भेषजम् ” ।

अर्थात् यदि तुम सर्वथा संस्कार – रहित हो जाते हो तब तुम अपने मालिक बन जाते हो, तुम पूर्ण बन जाते हो । जब तक तुम्हारे अन्तःकरण में संस्कार हैं वे तुम्हारे ऊपर नियन्त्रण करते हैं , तुम्हारी प्रवृत्ति कराते हैं । इसलिये यदि तुम सर्वथा निस्संग बन जाओ , सारे संगो को छोड़ दो तो बड़ा अच्छा है । यदि तुम कहो कि हमारे इतने संस्कार हैं सबको कैसे छोड़ दें ? पाँच मिनट को भी ध्यान करने बैठते हैं तो संस्कार न जाने चित्त को कहां से कहां प्रवृत्त करा कर ले जाते हैं , अतः संस्कारों को इतनी जल्दी छोड़ना सम्भव नहीं है , तो हमारे अतिधन्य शास्त्रकार कहते हैं कि संस्कारों को एकत्रित कर दो । यदि तुम्हारे अन्दर सत्पुरुषों का संस्कार पड़ गया तो प्राचीन संस्कार हटते चले जायेंगे । तो उन संस्कारों को जिनको आत्मा-परमात्मा के एकत्व का बोध हो, जिसने परमतत्व को धारण किया हो, जो आडम्बर रहित केवल शुद्ध सत्य में विचरण करता हो और जो शुभ आशुभ,सही गलत आदी से पार पा चुका हो ऐसे सत्पुरुषों के साथ करने लगो जिस से तुम अच्छे व बुरे दोनो संसकारो से रहित होकर अपने मूल स्वरूप को पालगे। इसी का नाम ” सत्संग ” है ...for more satsang click on..
Satsangwithparveen.blogspot.com

प्रणाम जी

No comments:

Post a Comment