Saturday, January 21, 2017

सवंय का संग ही सतसंग है.. तुम सवंय ही सत्य हो आनंद हो.. इसके अलावा कोई सत्यसंग नही है..अगर बाहर सतसंग ढ़ंड़ते हो तो तुम सतसंगी नही हो..

इसी प्रकार सतगुरू भी सवंय में ही है.. अगर कहीं बाहर ढ़ंड़ते हो तो तुम सतगुरू से विमुख हो..
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Saturday, January 14, 2017

महत्पूर्ण प्रश्नोत्तरी..

*महत्पूर्ण प्रश्नोत्तरी...*

प्रश्न - अहं कया है ?
उत्तर - आपके अदूेत सत्य आनंद स्वरूप से अन्य जो अपना अस्तितव मान रखा है,, जिसमें परमात्मा से अलगाव महसूस हो रहा है ये अहं है |

प्रश्न - कया मन के लय होने से अहं का लय है ?
उत्तर - नही , अहं मन का जनक है, अहं से ही मन बन्ता व मिटता रहता है, मन से अंह को नियन्त्रित करना संभव नही है |

प्रश्न - अहं और अहंकार एक है या अहंकार अहं से अलग है ?
उत्तर - अहंकार अहं से अलग है , अहं मन, चित, बूद्धि व अहंकार के माध्यम से कार्य करता है , मन, चित, बूद्धि व अहंकार, अहं के हृदय के रूप में कार्य करते है, अहं इस वृक्ष का मूल है | अहं के किसी मान्यता विषेश में स्थित होने पर उस स्थिती में होने वाली बलिस्ठ गहन्ता अहंकार है |

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कलका विषय *"विकार भेद"*

Tuesday, January 10, 2017

मन कया है

मन कया है
क्रिया और कर्ता के बीच की स्थिती मन है.. कर्ता जब भक्ती की क्रिया करता है तो भी मन ही उत्पन्न होता है मन ही खेलता है, मन ही शून्य होकर सुख मे भर्मित करता है..

कर्ता याने अहं के समाप्त हुये बिना मन से छुटकारा संभव नही है..
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Thursday, January 5, 2017

मृत्यु कया है

*मृत्यु कया है ?*

जीव मान्यता में यह खेल देख रहा है, और मान्यता खेल रही है .. वास्तव मे मान्यता है ही नही, यह बनाई गई है, जन्म व मृत्यु भी इसी की होती है कयोंकी ध्यान से देखो तो मृत्यु और जन्म कुछ है ही नही, केवल मान्यता है..

जिस मृत्यु से तुम इतना डरते हो वो होती ही नही है..
अर्थात मृत्यु किसी की नही होती, ध्यान से देखो मरा कौन.. कयोंकी तुम चेतन हो, कभी मर नही सकते, शरीर की भी मृत्यु नही होती, कयोंकी ये भी अमने मूल में लय होता है .. मरता नही अर्थात शून्य नही होता, रहता है सदा, चाहे किसी भी आकार मे रहे..
फिर मरता कौन है?
मृत्यु किसकी है ?

मृत्यु मान्यता की है.. मां,बाप,भाई,बहन,बेटा ये मरते है.. ये क्या हैं ? ये मन्यता है , ये जो तुमने मान रखा है केवल ये मानी हुई मान्यता की मृत्यु होती है.. इसी का भय है .. झूठ का भय है..

अपने सत्य स्वरूप में आ जाओ झूठी मान्यता नही रहेगी..

श्वेताश्वतर उपनिषदमें भी यह बात स्पष्ट की है । यथा,

द्वा सुपर्णा सयुजौ सखायौ, समाने वृक्षे परिषस्वजाते ।
तयोरेकं पिप्पलं स्वादुमत्तिः अनश्ननन्यो अभिचाकषीति ।।

अर्थात् एक वृक्षमें दो पक्षी सखाभावसे रहते हैं । उनमेंसे एक उस वृक्षके फलका आस्वादन करता है तो दूसरा मात्र देखता रहता है ..

*यामें जीव दोय भाँत के, एक खेल दूजे देखनहार| पेहेचान ना होवे काहू को, आड़ी पड़ी माया मोह अहंकार||*
(कि: 30/12)
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Tuesday, January 3, 2017

सुप्रभात जी

पढ़  पढ़  के  इलम  की बाते  तू ज्ञानी तो हो  गया  पर  कभी अपने  आप  को  जानने का प्रयास  नही कीया ,
तू  मंदिर मस्जित भागता फिरता हैं  कभी अपने हृदये  में  झांक के नही देखता ,
तू सोचता  हैं की शैतान बहार  हैं और रोज इसी  उलझन  में रहता  हैं पर  कभी अपने अंदर के दैूत रूपी अंधकार को दूर नही करता  जहाँ से महान शैतान  उत्पन्न होता हैं ,
तू समझता हैं की खुदा आसमान में रहता हैं पर वो तो तेरे  हृदये धाम  में हैं याने तेरे  घर में हैं जीसे तूने कभी  खोजने का प्रयास नही कीया.... तू इस बात से सदा अनंजान है की तू हर जगह सवंय (आनंद) को ही खोज रहा है, पर कभी सवंय तक आने का प्रयास नही करता...
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