मंदिर में जाकर शांति मिलती है, फिर आत्म जागृति में इसे बुरा क्यों मानते हो ??
मंदिर में मूच्र्छा होती है। वहां भजन, प्रार्थना सत्संग आदि के नाम आत्म-विस्मरण होता है। अपने को भूलना दुख-विस्मरण करा देता है, जो नशा करता है, वही काम धर्म के ऐसे रूप भी कर देते है।जीवन-संताप को कौन नहीं भूलना चाहता है? मादक द्रव्य इसीलिए खोजे जाते हैं। मनुष्य ने बहुत तरह की शराबें बनाई हैं और सबसे खतरनाक शराबें वे हैं, जो कि बोतलों में बंद नहीं होती।दुख-विस्मरण से दुख मिटता नहीं है। उसके बीज ऐसे नष्ट नहीं होते, विपरीत, उसकी जड़े और मजबूत होती जाती हैं। दुख को भूलना नहीं, मिटाना होता है। उसे भूलना धर्म नही है।दुख-विस्मरण का उपाय जैसे स्व-विस्मरण है, वैसे ही दुख-विनाश का स्व-स्मरण है।धर्म वह है, जो स्व को परिपूर्ण जाग्रत करता है। धर्म के शेष सब रूप मिथ्या हैं। स्व-स्मृति (आत्मजागृति) पथ है। यह भी स्मरण रहे कि स्व-विस्मृति से स्व मिटता नहीं है। स्व-स्मृति से ही स्व विसर्जित होता है।जो स्व को परिपूर्ण जानता है, वह स्व के विसर्जन को उपलब्ध हो, सर्व को पा लेता है। स्व के विस्मरण से नहीं, स्व के विसर्जन से सर्व की राह है।भगवान के स्मरण से स्व को भूलना भूल है। स्व के बोध से स्व को मिटाना मार्ग है और जब स्व नहीं रह जाता है, तब जो शेष रह जाता है, वही परमात्मा है। परमात्मा स्व के विस्मरण से नहीं, स्व के विसर्जन से प्राप्त होता है।
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