Saturday, July 23, 2016


अविद्यायामंतरे वर्तमाना: स्वयंधीरा: पण्डितं मन्यमाना:।
जंघन्यमाना: परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा:।।
(मुण्डकोपनिषद् १/२/८)

व्याख्या:- जब अन्धे मनुष्य को मार्ग दिखलाने वाला भी अंधा मिल जाता है तब जैसे वह अपने अभीष्ट स्थान पर नहीं पहुँच पाता, बीच में ही ठोकरें खाता-भटकता है, वैसे ही उन मान बडाई के लालच में गूरू बने हुये मूर्खो को भी पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि विविध दु:ख पूर्ण योनियों में एवं नरकादि में प्रवेश करके अनन्त जन्मों तक अनन्त यन्त्रणाओं का भोग करना पड़ता है, जो अपने आप को ही बुद्धिमान और विद्वान समझते हैं, थोडा बहोत धर्म सास्त्रो का दूैत में भाव निकाल के अर्थ का अनर्थ बना रखा है..धर्म सास्त्रो को कंठस्त करके विद्या-बुद्धि के मिथ्याभिमान में "परा विद्या" की कुछ भी परवाह न करके उनकी अवहेलना करते हैं और प्रत्यक्ष सुख रूप प्रतीत होने वाले भोग का भोग करने में तथा उनके उपार्जन में ही निरन्तर संलग्न रहकर मनुष्य जीवन का अमूल्य समय व्यर्थ नष्ट करते रहते है.. और अंधकार में भटकाते हैं..

अदूैत के मार्ग के बिना माया का फन्दा नही हट सकता, बडे बडे संत गुरू भी दूैत की भक्ति करके दूैत रूपी माया में ही अटक कर विषय वासनाओ कि अग्नी में जलते रहते हैं. और जल्ती हुई वस्तु अपने सम्पर्क से दूसरो को भी जलाती है इसलिय उनके अनुयायी व उनके शिष्य भी विषय वासनाओ  घिरे रहते हैं... एकमात्र अदैत ही मार्ग है..
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प्रणाम जी

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