Friday, April 28, 2017

एक महात्मा था, उनके एक शिष्य ने सवाल किया कि संसार में किस तरह के इन्सान को मुक्ति मिलती है ?

महात्मा अपने शिष्य को तेज बहाव की नदी पर लेकर गये और जाल डालकर मछलियों को पकडने के लिए कहा।
शिष्य ने नदी में जाल फेंका और कुछ मछलियाँ जाल में फंस गई।फिर महात्मा ने शिष्य से सवाल किया कि जाल मे अटकने के बाद मछलियों का व्यवहार कैसा है ?
शिष्य ने कहा कि कुछ मछलियाँ अपनी मस्ती में मस्त हैं , कुछ मछलियाँ छटपटा रही है और कुछ मछलियाँ आजाद होने के लिए भरपूर प्रयास कर रही हैं , लेकिन आजाद नहीं हो पा रही है। सभी मछलियां एक जैसी ही दिखाई दे रही है लेकिन तीन प्रकार का मछलियां का रवैया देखा।
महात्मा ने मुस्कराते हुए कहा तुम्हें तीन प्रकार की मछलियां दिखाई दिया लेकिन चार प्रकार की मछलियां है।
शिष्य ने कहा वो चौथे प्रकार मछली किस तरह और उसका रवैया क्या है ?
महात्मा ने कहा कि जो मछलियां अपनी मस्ती में मस्त हैं वो वह जीव जो इस संसार में खा-पीकर माया में मस्त है।
दुसरा वो मछलियां जो छटपटा रही यह वो जीव हैं जो कभी-कभी सतसंग जाते हैं और ज्ञान की बातें करते हैं लेकिन अमल नहीं करते।
तीसरे प्रकार की मछलियां उस प्रकार के जीव हैं जो नित नेम सतंसग जाते है और भजन सिमरन भी करते हैं लेकिन मन में बदले में कुछ सांसारिक कामना रखते हैं और जिसके अंदर सांसारिक कामना हो वो ना मुक्त हो सकते और ना ही परमात्मा के प्रति प्रेम।
शिष्य ने कहा चौथे प्रकार की मछलियां और लोग किस तरह है ?
महात्मा ने कहा कुछ मछलियां इस जाल में फंसती नहीं है वो अदूैतप्रेममयी आत्त्माऐं हैं ..ये  परम सत्य के अंश व सदा आनंद की चाह रखने वाले वो जान्ते है यह जाल कैसा है, संसार महासागर है उसके अंदर रज,तम ओर सत रूप में मायाजाल है ... *जो निरन्तर परमात्मा के सत्य के भी सत अदूैत रूप को धारण किय रहते हैं वो इसके सतगुण के मायाजाल में भी नहीं फंसते है।*
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प्रणाम जी

Sunday, April 23, 2017

अष्टावक्र कहते हैं -

तुम्हारा किसी से भी संयोग नहीं है, तुम शुद्ध हो, तुम क्या त्यागना चाहते हो, इस झूठे (अवास्तविक को अपने से अलग मानकर) सम्मिलन को समाप्त कर के ब्रह्म से योग (एकरूपता) का बोध करो॥

जिस प्रकार समुद्र से बुलबुले उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार विश्व एक आत्मा से ही उत्पन्न होता है। यह जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) का बोध करो॥

यद्यपि यह विश्व आँखों से दिखाई देता है परन्तु अवास्तविक है। विशुद्ध तुम में इस विश्व का अस्तित्व उसी प्रकार नहीं है जिस प्रकार कल्पित सर्प का रस्सी में। यह जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) का बोध करो ॥

स्वयं को सुख और दुःख से अलग, पूर्ण, आशा और निराशा में पृथक, जीवन और मृत्यु से अलग, सत्य जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) का बोध करो ॥
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Monday, April 17, 2017

सुप्रभात जी
"ध्यान"
मन के जरिये ध्यान तक नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान इस बात का बोध है कि मैं 'मन' नहीं हूं। ध्यान चेतना की खालिस अवस्था है। जहां न विचार होता है, न कोई विषय। अमूमन हमारी चेतना विचारों से, विषयों से, इच्छाओं से भरी रहती है। जैसे कि कोई शीशा धूल से ढका हो। हमारा मन एक लगातार बहते रहने वाली चीज है। विचार चल रहे हैं, कामनाएं चल रही हैं, पुरानी यादें सरक रही हैं। नींद में भी हमारा मन चलता रहता है। सपने चलते रहते हैं। यह अ-ध्यान की अवस्था है। इससे उल्टी अवस्था ध्यान की है।

जब कोई विचार नहीं चलता और कोई कामना सिर नहीं उठाती। जब मन नहीं होता, तब ध्यान होता है। मन के जरिये ध्यान तक नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान इस बात को जान लेना है कि मैं 'मन' नहीं हूं।मन की बनाई ध्यान के विषय मे सारी कल्पनायें झूठी हैं.. जब मन में कुछ भी चलता नहीं, उन शांत पलों में ही हमें खुद के बोध की अनुभूति होती है। धीरे-धीरे ध्यान हमारी सहज अवस्था हो जाती है। मन असहज अवस्था है, जिसे हमने पा लिया है। ध्यान हमारी सहज अवस्था है, लेकिन हमने उसे खो दिया है। मगर इसे फिर पाया जा सकता है।

इस शरीर में स्थित आत्मिक भाव (सत्य) ही परमात्मा (सत्य) को प्राप्त कर पाती है। जब आत्मा को परमात्मा के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का संशय नहीं रह जाता, तब अदूैत भाव प्रकट होता है।
मैं (अहम् ,मन जीव आदी) का जल बहुत गहरा है। यह आत्मा और परमात्मा के बीच उस झूठ के परदे की तरह है, जो परमात्मा से अदूैत संबंध नहीं होने देता। जब तक इसका अस्तित्व बना रहता है, तब तक आत्मा और परमात्मा ये दो वस्तुयें या भाव प्रतीत होते रहते हैं।
अहं का परित्याग किये बिना आत्मा व परमात्मा का एकत्व भाव सम्भव ही नहीं है। *और यह एकत्व भाव ही ध्यान है सत्य धयान*
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प्रणाम जी

Saturday, April 15, 2017

कयों विकार विकार करते हो, तुम कभी विकारित नही हो सकते, जिसको तुम विकार, काम,क्रोध, लोभ, मोह,अहंकार आदि मान्ते हो वो तो जीव और शरीर का विषय सम्बंध है, तुम तो शुद्ध आत्मा हो तुममें कभी विकार नही आ सकते, फिर तुम कयों व्यर्थ में सवंय को आरोपित कर रहे हो.. मत लो ये आरोप अपने उपर की तुम विकारित हो..और तुम लाख प्रयत्न करलो इस शरीर से विकार अलग नहीं होगें, कयोंकी ये इस जीव का विषय है, ये जीव और शरीर बना ही विकार से है तो इनसे अलग कैसे होगा..जैसे मिट्टी के ढेले से मिट्टी को अलग नही कर सकते कयोंकी वो बना ही मिट्टी से है, इसी प्रकार तुम भी आत्मा हो आनंद हो, तुम्हारा विषय आनंद है तुम आनंद से बने हो, तुम अपना विषय भूलकर जीव व शरीर के विषय को अपने पर आरोपित मत करो, बल्कि अपना विषय शरीर और जीव को दो ताकी यो भी तुम्हारे विषय को जान सकें..ये भी आनंदित हो सकें..
प्रणाम जी
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Wednesday, April 12, 2017

*धार्मिकता कितने परकार की है?*

*धार्मिकता दो तरह की, एक प्रयासरत दूसरी प्रयास रहीत*
शुद्ध आनंद में लय के अतिरिक्त जो प्रयास हैं वे सब प्रयास रहीत धार्मिकता है..

अदूैत आनंद में लय ही सही प्रयासरत धार्मिकता है..

ध्यान देना अनुभव केवल *प्रयास रहीत* धार्मिकता में ही होते हैं ओर ये अनुभव भी कई प्रकार के हो सकते है.. कयोंकी इसमें अनुभव लेने वाला उपस्थित होता है..

प्रयासरत में अनुभव नही होता इसमें आनंद होता है..जो हम है, परमात्मा है, ये अदूैत आनंद है ये हमारा आनंद है .. यही हमारा लक्ष्य है..
इसलिय परयासरत रहो ..आनंद मार्ग को चुनो..
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Saturday, April 1, 2017

*अंदर और बाहर का कया अर्थ है ?*

अंदर से अभीप्राय शरीर के अंदर से नही है..
अंदर का अर्थ है,आत्मा, सवंय, आनंद, परमात्मा |

बाहर का अर्थ है, अदंर से अलग जो भी है वो बाहर है जैसे,शरीर, अंतःकरण, तीन गुण, सत्ता, ये आनंद की सत्ता होने के कारण इसमें आनंद भाषित होता है पर है नही |

अविद्या कया है ?

बाहर को ही अंदर समझना अविद्या है अग्यान है..

विद्या कया है ?

अंदर व बाहर के भेद व अभेद को जान्ना ही विद्या या ग्यान है...
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साधना कया है..
जो दृष्मान है वो तो सब साध्य है उसको कया साधना..
साधना तो वो है जो साध्य नही है .. तुम्हे सवंय अर्थात आत्मा या परमात्मा के अलावा और हर वस्तु का अनुभव है, धन, परिवार, साधन, मन व अंतःकरण आदि को तो तुम सदा से साध रहे हो, इनका तुम्हे सदा से अनुभव है..बस अनुभव नही है ते केवल सवंय का,इसी को साधना है बस यही सच्ची साधना है..कयोंकी तुम्हारे अलावा कुछ सच है ही नही.. सवंय को साधना ही सच्ची साधना है..
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सुप्रभात जी

पुस्तकीय ज्ञान दूसरों का ज्ञान है तुम्हारा अपना नहीं . ज्ञान तो स्वयं की अनुभूति का नाम है. देह मिली है जिसका अर्थ है प्रारब्ध और वासनाओं का व्यापार अभी शेष है . देह के सभी आवरण केवल भ्रांति हैं और भ्रांति का नाश केवल बोध से होता है . जो कुछ भी परिवर्तन शील है केवल भ्रांति हैं जिसने आत्मा को जान लिया, उसका संसार स्वयं छूट जाता है ,संसार छोड़ने से आत्म ज्ञान नहीं होता है, संन्यास लेना या देना जैसा कुछ भी नहीं होता हैं, यह विरक्ति और त्याग की ,मन की अवस्थाएँ हैं , अतः सच्चा सन्यास मानसिक व शाररिक  कार्य नहीं अपितु आत्म अनुभूति है।
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प्रणाम जी