Monday, April 17, 2017

सुप्रभात जी
"ध्यान"
मन के जरिये ध्यान तक नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान इस बात का बोध है कि मैं 'मन' नहीं हूं। ध्यान चेतना की खालिस अवस्था है। जहां न विचार होता है, न कोई विषय। अमूमन हमारी चेतना विचारों से, विषयों से, इच्छाओं से भरी रहती है। जैसे कि कोई शीशा धूल से ढका हो। हमारा मन एक लगातार बहते रहने वाली चीज है। विचार चल रहे हैं, कामनाएं चल रही हैं, पुरानी यादें सरक रही हैं। नींद में भी हमारा मन चलता रहता है। सपने चलते रहते हैं। यह अ-ध्यान की अवस्था है। इससे उल्टी अवस्था ध्यान की है।

जब कोई विचार नहीं चलता और कोई कामना सिर नहीं उठाती। जब मन नहीं होता, तब ध्यान होता है। मन के जरिये ध्यान तक नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान इस बात को जान लेना है कि मैं 'मन' नहीं हूं।मन की बनाई ध्यान के विषय मे सारी कल्पनायें झूठी हैं.. जब मन में कुछ भी चलता नहीं, उन शांत पलों में ही हमें खुद के बोध की अनुभूति होती है। धीरे-धीरे ध्यान हमारी सहज अवस्था हो जाती है। मन असहज अवस्था है, जिसे हमने पा लिया है। ध्यान हमारी सहज अवस्था है, लेकिन हमने उसे खो दिया है। मगर इसे फिर पाया जा सकता है।

इस शरीर में स्थित आत्मिक भाव (सत्य) ही परमात्मा (सत्य) को प्राप्त कर पाती है। जब आत्मा को परमात्मा के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का संशय नहीं रह जाता, तब अदूैत भाव प्रकट होता है।
मैं (अहम् ,मन जीव आदी) का जल बहुत गहरा है। यह आत्मा और परमात्मा के बीच उस झूठ के परदे की तरह है, जो परमात्मा से अदूैत संबंध नहीं होने देता। जब तक इसका अस्तित्व बना रहता है, तब तक आत्मा और परमात्मा ये दो वस्तुयें या भाव प्रतीत होते रहते हैं।
अहं का परित्याग किये बिना आत्मा व परमात्मा का एकत्व भाव सम्भव ही नहीं है। *और यह एकत्व भाव ही ध्यान है सत्य धयान*
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प्रणाम जी

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