Saturday, July 29, 2017

जैसे धूप में छाया नहीं, जैसे सूर्य में अंधकार नहीं, जैसे अग्नि में बरफ नहीं, और जैसे अणु में सुमेरु नहीं होता, तैसे ही आत्मामें जगत् नहीं होता । सत्यरूप आत्मा में असत्यरूप जगत् कैसे हो? आत्मा कारण से भी मुक्त है..कारण दो प्रकार का होता है-एक समवाय कारण और दूसरा निमित्तकारण, आत्मा दोनों कारणों से रहित है । निमित्तकारण तब होता है जब कार्य से कर्त्ता भिन्न हो, पर आत्मा तो अद्वैत है, उसके निकट दूसरी वस्तु नहीं, वह कर्त्ता कैसे हो और किसका हो, वह तो मन और इन्द्रियों से रहित निराकार अविकृ तरूप है । और समवाय कारण भी परिणाम से होता है । जैसे वट बीज परिणाम से वृक्ष होता है, पर आत्मा तो अखंड़ है , परिणाम को कदाचित् नहीं प्राप्त होता तो समवाय कारण कैसे हो? जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, क्षियते, नश्यति, इनषट् विकारों से रहित निर्विकार आत्मा जगत् का कारण कैसे हो? इससे यह जगत् अकारणरूप भ्रान्ति से दिखता है ।

 जैसे आकाश में नीलता,सीप में रूपा और निद्रादोष से स्वप्न दिखते हैं वैसे ही यह जगत् भ्रान्ति से दिखाइ देता है । और जब अपने सवंय के स्वरूप में जागे तब जगत्‌भ्रम मिट जाता है । इससे कारणकार्य भ्रम को त्यागकर तुम अपने स्वरूप में स्थित हो । दुर्बोध और मान्यता से संकल्प रचना हुई है उसको त्याग करो और आदि, मध्य और अन्त से रहित जिसकी सत्ता है उसी आनंदस्वरूप में स्थित हो तब जगत्‌भ्रम मिट जायेगा ।
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प्रणाम जी

Sunday, July 23, 2017

प्रश्न- अगर मेरी मृत्यु हो गई तो कया मेरी भक्ती का अगले जन्म में कया होगा..??

उत्तर- अगर इसका उत्तर जान लिया तो सफर यहीं समाप्त हो जायगा कयोंकी इसके उत्तर में पूरी गहनता छिपी हुई है.

चलिय जान्ने का प्रयास करते हैं...

पहले तो ये जान लो की जो भक्ती या सत्य का मार्ग है वो कोन कर रहा है अर्थात इस मार्ग का मुसाफिर कौन है.. कयोंकी अगले जन्म मे भक्ती के सफर की बात कर रहे हो तो मुसाफिर कौन है ये भी तो पता होना चाहिये..
1. कया ये शरीर भक्ती कर रहा है, नही ये जड़ है ये कैसे भक्ती कर सकता है..

2. तो कया मन भक्ती कर रहा है, नही ये मन है ही नही ये जो मन जैसा लग रहा है ये आपसे उत्पन्न स्थिती है जो निरंतर बदलती है इसलिय इसके भक्ती करने का ते सवाल ही नही होता. बुद्धि और अहंकार भी इसी श्रेणी में आते है इसलिय वो भी नही..
तो कौन???
अब रहा केवल चेतना या चेतन, जिसकी मृत्यु नही हो सकती..( ये कौन है ये अलग विषय है तो अभी मोटे तौर पर अपने को चेतन ही मानो)

तो अब उत्तर शपष्ट है की जिसे तुम मृत्यु कह रहे हो वो उसकी होती है जो भक्ती कर ही नही सकता, और जो भक्ती कर रहा है उसकी मृत्यु होती नही है वो निरंतर अपनी साधना करता है,पुर्ण होने तक निरंतर केवल शरीर बदल सकते है चेतना वही रहती है, जो भक्ती कर रही होती है.. तुम्हारी मृत्यु ही नही होनी, तो जिसकी मृत्यु होनी है तुम वो अपने को मान बैठे हो इसलिय ये सवाल कर रहे हो..
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Friday, July 21, 2017

पहले के समय तीर्थयात्रा पर जाना बहुत कठिन होता था। यात्रा पैदल या बैलगाड़ी से की जाती थी। थोड़े-थोड़े अंतर पर यात्रियों को रुकना होता था। उन्हें कई तरह के लोगों से मिलना होता था। कई अनुभव भी वे प्राप्त करते थे। एक बार तीर्थयात्रा पर जाने वाले लोगों का संघ संत तुकाराम जी के पास जाकर उनसे साथ चलने की प्रार्थना करने लगा।

तुकाराम जी ने अपनी असमर्थता बताई। उन्होंने तीर्थयात्रियों को एक कड़वा कद्दू देते हुए कहा, मैं तो आप लोगों के साथ जा नहीं सकता, लेकिन आप इस कद्दू को साथ ले जाइए और जहां-जहां आप स्नान करें, इसे भी पवित्र जल में स्नान करा लाएं।

लोगों ने उनके गूढ़ार्थ पर गौर किए बिना वह कद्दू ले लिया। वे जहां-जहां गए, स्नान किया, वहां-वहां उन्होंने कद्दू को स्नान करवाया; उन्होंने मंदिर में जाकर दर्शन किया, तो कद्दू को भी दर्शन करवाया। इसी तरह उन्होंने यात्रा पूरी की, और वापस आकर कद्दू संत जी को दे दिया।

तुकाराम जी ने सभी यात्रियों को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। तीर्थयात्रियों को विविध पकवान परोसे गए। उस आयोजन में तीर्थ में घूमकर आए हुए कद्दू की सब्जी विशेष रूप से बनवाई गई थी। सभी यात्रियों ने खाना शुरू किया और सबने सब्जी कड़वी होने की बात कही।

तुकाराम जी ने आश्चर्य जताते हुए कहा, यह तो उसी कद्दू से बनी है, जो तीर्थ स्नान कर आया है। बेशक यह तीर्थाटन के पूर्व कड़वा था, मगर तीर्थदर्शन तथा स्नान के बाद भी इसमें कड़वाहट ही है!

*यह सुनकर सभी यात्रियों को बोध हुआ कि सुधारा अंदर से होना है.. बाहर से तीर्थ का लाभ नहीं केे समान है, अगर अंदर की यात्रा नही की तो बाहर की तीर्थयात्रा का कोई मूल्य नहीं है। हम भी कड़वे कद्दू जैसे कड़वे रहकर वापस आए हैं।*
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प्रणाम जी

Sunday, July 16, 2017

सुप्रभात जी

लोहेके टुकड़ेको चुम्बकके साथ एक ही दिशामें घसने(रगड़ने) लगेंगे तो वह भी चुम्बकीय गुण प्राप्त करता है । इस प्रक्रियामें चुम्बकसे लोहेके टुकड़ेमें चुम्बकीय शक्ति नहीं जाती है अपितु चुम्बकके साथ एक दिशामें घर्षण होने पर लोहेके टुकड़ेके अणु-परमाणुओंको एक दिशा प्राप्त होती हैं । शक्ति तो उन्हीं अणुओंमें है किन्तु वे एक दिशामें न होनेसे संगठित नहीं हो पाते हैं । चुम्बकके संसर्गसे उन्हें एकदिशा प्राप्त होती है जिससे उन अणुओंकी शक्ति प्रकट होती है । इस प्रकार एक सामान्य लोहा चुम्बक बन जाता है ।

इसी प्रकार मनुष्यके अन्तःकरणकी वृत्तियाँ, जो चारों दिशाओंमें फिरती रहती हैं, साधनाके द्वारा एक सही दिशा प्राप्त करती हैं । उससे अपार शक्ति प्रकट होती है उसीको लोगोंने सिद्धि कहा है । ऐसी साधना आत्मा के मार्गदर्शनमें हो तो व्यक्तिके अन्तःकरणकी वृत्तियोंको आनंद या परमात्माकी दिशा प्राप्त होती है जिससे व्यक्ति आत्म बोध प्राप्त कर सकता है । इसीको सही दिशा की साधना कहा है ।
इसी साधनाके द्वारा आत्माकी अनुभूति होती है, परमात्माकी अनुभूति होती है और परमधामकी अनुभूति होती है । आत्मा परमात्मा व प्रेम एक ही हैं  इसलिए इस साधनाको प्रेम साधना भी कहा है ।
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प्रणाम जी

Saturday, July 15, 2017

जो लोग सोचते है की नाम जाप, भजन, भक्ती तिर्थ, तप, ध्यान आदी से मृत्यु के बाद वो किसी आनंद के लोक या परमधाम में चले जायेंगे तो वो धोर अंधकार में हैं | उस आनंद की स्थिती को पहले ही पा कर उस पद में मृत्यु से पहले ही लय होना होगा  तभी शरीर समाप्ती के पश्चात वह स्थिती बनी रह सकती है | अन्यथा अनंनत जन्मों के लिय धोर अंधकार है..
*उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है जो उसी प्राण रूप में गतिमान है। उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो मानते हैं, अमरत्व को प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व सूर्य तपते हैं और इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने कामों में लगे रहते हैं। शरीर के नष्‍ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।'।। 2-8-1।।-तैत्तिरीयोपनिष*
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Friday, July 14, 2017

पढ़ पढ़ इल्म तू फाजिल होईया कदे आपने आपनू पढ़िया ही नही...
बूल्ले शाह..

पढ़  पढ़  के  इलम  की बाते  तू ज्ञानी तो हो  गया  पर  कभी अपने  आप  को  जानने का प्रयास  नही कीया ,
तू  मंदिर मस्जित भागता फिरता हैं  कभी अपने हृदये  में  झांक के नही देखता ,
तू सोचता  हैं की शैतान बहार  हैं और रोज इसी  उलझन  में रहता  हैं पर  कभी अपने अंदर के दूैत रूपी अंधकार को दूर नही करता  जहाँ से शैतान  उत्पन्न होता हैं ,
तू समझता हैं की खुदा आसमान में रहता हैं पर वो तो तेरे  आत्महृदये में हैं याने तेरे  घर में हैं जीसे तूने कभी  खोजने का प्रयास नही कीया..

प्रणाम जी

Thursday, July 13, 2017

*पूरा दिन परमात्मा में ध्यान नही रख पाता कई बार सांसारिक कार्य करते हुऐ भूल लग जाती है...कृप्या निवारण किजीय..*

ऐसा उल्टे स्वभाव के कारण है..तुमने अपना स्वभाव उल्टा बना रखा है..कैसे? जो तुम नही हो वो बनकर जो तुम हो वो करना चाहते हो..अर्थात तुम प्राथमिक को अन्य व अन्य को प्राथमिक समझ रहे हो..कहने का अर्थ यह है कि तुम अपने आत्म स्वभाव को करने की सोच रहे हो और जो तुम नही हो वो मानकर सांसारिक कार्य करते हो..
*तो करना कया है?*
बस अपने आत्म भाव को सवंय मान कर कार्य को अन्य समझ कर करना है.. *अर्थात*

पूरा दिन अपने स्वभाव में रहो और कार्य को अन्य समझ कर करो..
बस जो प्राथमिक है उसे प्राथमिकता देनी है और जो अन्य है उसको अन्य समझना है..(यह केवल मार्ग है मंजिल नही है)
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Sunday, July 2, 2017

सवंय का संग ही सतसंग है.. तुम सवंय ही सत्य हो आनंद हो.. इसके अलावा कोई सत्यसंग नही है..अगर स्वंय को नही पहचाना तो कही भी भ्रमण करलो झूठ का झूठ ही रहेगा, और सवंय को जान लिया तो बस फिर निरंतर सत्य ही है.. फिर सतसंग के विकार भाव को भी पार करलोगे..
सतसंग को विकार भाव इसलिय काहा है कयोंकी इसमें दो का भाव है सत्य और संग, अर्थात सत्य का संग करने वाला, अर्थात *अहं* | अपने को सत्य से अलग मान्ते हो, यही अहं भाव सतसंग मे विकार रूप में उपस्थित रहता है.. इसलिय सवंय की शुद्ध पहचान ही सतसंग है..आनंद ही सत्य है ,आप ही आनंद हो..बाहर तो सब झूठ है..
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