*सन्यास एक रहस्य का बोध है, जिसने यह रहस्य जान लिया वह सन्यासी है, फिर चाहे उसके वस्त्र व रहन सहन कैसा भी हो, ओर जो इस रहस्य से दूर है, वह सन्यासी के वस्त्र पहन कर भी सन्यासी नहीं है ।*
'मैं जगत में हूं और जगत में नहीं भी हूं' - ऐसा जब कोई अनुभव कर पाता है, तभी जीवन का रहस्य उसे ज्ञात होता है। जगत में दिखाई पड़ना एक बात है, जगत में होना बिलकुल दूसरी। जगत में दिखलाई पड़ना आत्म ज्ञान है, जगत में होना अज्ञान है। जब-तक जीवन है, तब तक शरीर जगत में होगा ही। लेकिन, जिसे 'उस' जीवन को जान लिया हो- जिसका कि कोई अंत नहीं आता है- उसके अंदर से जगत समाप्त हो जाता है।
एक संन्यासी ने सुना कि देश का सम्राट परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया है। उस संन्यासी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या यह संभव है कि जिसने कुछ भी नहीं त्यागा है, वह परमात्मा को पा सके? वह संन्यासी राजधानी पहुंचा और राजा का अतिथि बना। उसने राजा को बहुमूल्य वस्त्र पहने देखा, स्वर्ण पात्रों में स्वादिष्ट भोजन करते देखा- रात्रि में संगीत और नृत्य का आनंद लेते हुए भी। उसका संदेह अनंत होता जा रहा था। वह तो सर्वथा स्तब्ध ही हो गया था।
रात्रि किसी भांति बीती। संन्यासी संदेह और चिंता से सो भी नहीं सका। सुबह ही राजा ने नदी पर स्नान करने के लिए उसे आमंत्रित किया। राजा और संन्यासी नदी में उतरे। वे स्नान करते ही थे कि अचानक उस शांत, निस्तब्ध वातावरण को एक तीव्र कोलाहल ने भर दिया- आग, आग, आग! नदी तट पर खड़ा राजमहल धू-धूकर जल रहा था और उसकी लपटें तेजी से घाट की ओर बढ़ रही थीं। अपना कौपीन बचाने के लिए संन्यासी ने स्वयं को सीढि़यों की ओर भागते हुए पाया। उसे स्मरण ही न रहा कि साथ में सम्राट भी है। लेकिन लौटकर देखा, तो पाया कि राजा जल में ही खड़े हैं और कह रहे हैं : ''हे मुनि, यदि समस्त राज्य भी जल जावे, तो भी मेरा कुछ भी नहीं जलता है।'' सम्राट थे जनक और मुनि थे शुकदेव।
लोग मुझ से पूछते हैं : योग क्या है? मैं उनसे कहता हूं : अस्पर्श भाव। स्वयं में प्रतिष्ठित चेतना बाह्य अस्पर्शिता होती है, यही सन्यास है । ओर जो चतना स्वयं में नहीं होती वहीं दर दर भटकती रहती है, वहीं जन्म ओर मृत्यु को प्राप्त होती है ।
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om tat sat
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